नीलम प्रभा , नाम से क्या परिचय दूँ ..... इस नाम से मेरा भी संबंध है . जी , नीलम प्रभा मेरी बड़ी बहन हैं , ... पर इस रिश्ते से अलग वह एक अलाव है - जिसमें भावनाओं की तपिश है . कलम में उसकी सरस्वती भी हैं , दुर्गा भी हैं ... नहीं ज़रूरत उसे आकृति लिए पन्नों की , मुड़े तुड़े, बेतरतीबी से फटे हुए पन्नों को भी वह जीवंत बना देती है , जब उसमें से कृष्ण का बाल स्वरुप दिखता है इन शब्दों में -
" हैं कृष्ण किवाड़ों के पीछे
और छड़ी यशोदा के कर में
क्या करूँ हरि ये सोच रहे
फिर पड़ा हूँ माँ के चक्कर में ...."
सच तो ये है कि उसके पास ख्यालों के कई कमरे हैं ... तिल रखने की भी जगह नहीं , पर महीनों गुजर जाते हैं ... कमरे की सांकल खुलती ही नहीं ! उसे कहना पड़ता है - " खोलो तो द्वार , ख्याल सिड़ न जाएँ ..." बेतकल्लुफी से वह कहती है , " ख्याल नहीं सिड़ते... और फिर मैं तो अलाव हूँ , जहाँ सूरज ठहरता है खोयी गर्मी वापस पाने के लिए ..." ( ऐसा कुछ वह कहती तो नहीं , पर उसके तेवर यही कहते हैं !)
उसे आप कुछ भी लिखने को कहिये , वह यूँ लिखकर देती है - जैसे पहले से लिखा पड़ा था .
आप उसे खूबसूरत से खूबसूरत कॉपी दीजिये , पर फटे पन्नों पर ही वह आड़े तिरछे लिखती है ....... ऐसा करके शायद वह इन एहसासों को पुख्ता करती है कि " ज़िन्दगी कभी सीधे समतल रास्ते से मंजिल से नहीं मिलती ..."
यह परिचय जो आपके सामने है , वह भी बस पुरवा का एक झोंका है .... ' लो लिख दिया - खुश ?' मैं तो खुश हूँ ही , क्योंकि मैं उसे जानती हूँ , उसकी हर विधा से वाकिफ हूँ ....
अब उसकी कलम में आप देखिये - वह क्या है !
क्या कहकर परिचय दूँ अपना!
कि मैं पैदा हुई कहाँ और कहाँ पढ़ी ?
खड़ी थी कब ऊँचे शिखरों पर कब उतरी ?
कितनी किताबें हुईं प्रकाशित , मिले हैं कितने पुरस्कार ?
किन लम्हात ने मेरी कलम में शब्दों में पाया आकार ?
इस परिचय की मुझको है दरकार नहीं
ऐसा कुछ मेरे मैं को स्वीकार नहीं।
माँ से केवल नाम नहीं पाया मैंने
कलम भी मेरे हिस्से विरासत में आई
पिता से यह सुनकर मैं बड़ी हुई
’मेरी बेटी ने असाधारण प्रतिभा है पाई'
अपने सभी निज़ामों को खुसरो की तरह मैं प्रिय रही
इसीलिए गर्दिश में भी, जीवन की सुंदर कथा कही
जायदाद ’ग़र कलम की हाथ नहीं आती
तो मैं निश्चित बरसों पहले मर जाती
घर और घर के रिश्तों का हावी होना
तय था जो भी कुछ था सब भावी होना
बेशक! सब अपनों ने देखा भाला था
पर बिना शर्त जिन्होंने मुझे सँभाला था
वह मेरी कलम, कविता थी मेरी - ये क्या न बनीं मेरी खातिर!
आब बनीं, आहार बनीं, आधार बनीं, अधिकार बनीं,
हर मौके का इज़हार बनीं, मेरा पूरा परिवार बनीं
अब क्या कहना कि क्या है कलम और कविता क्या है मेरे लिए!
है कलम मेरी मेरा वजूद, मैं खुद कविता हूँ अंतहीन
ये दीन मेरा, मेरा यक़ीन
मेरे ख्वाबों की सरज़मीन
ये आफ़रीन, मैं आफ़रीन
हो इनसे अलग मैं कुछ भी नहीं, हो इनसे अलग मैं कुछ भी नहीं।