tag:blogger.com,1999:blog-55223535352725886422024-03-06T00:43:27.839+05:30शख्स - मेरी कलम सेरश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.comBlogger38125tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-78633832407137429922013-04-17T18:26:00.004+05:302013-04-18T11:07:30.942+05:30Sanjay Pal: Researcher and Link Writer<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt7fp92sr6sJiHQW2a4F0LThtOvsJ9RfLxC5UbYsV2O7H1vkQW9La-m0z5C2H_My7ShNhn-8mQ90msrnDqBkr1f_2cNvZYFy-ppig-U9Bot9yAR2gH_eVzhA3VaneGb_Mu7IJbZ4jwqob9/s1600/734833_4688277497647_229749217_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="226" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt7fp92sr6sJiHQW2a4F0LThtOvsJ9RfLxC5UbYsV2O7H1vkQW9La-m0z5C2H_My7ShNhn-8mQ90msrnDqBkr1f_2cNvZYFy-ppig-U9Bot9yAR2gH_eVzhA3VaneGb_Mu7IJbZ4jwqob9/s320/734833_4688277497647_229749217_n.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial;">हर अगला कदम पीछे होता है,और पीछेवाला आगे आता है ..... पिछले कदम की यह अनवरत यात्रा है, स्वाभाविक दृढ़ प्रयास ! हिमालय हो या कैलाश पर्वत ..... ऊँचाई विनम्र होती है,पर </span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial;">नीचे </span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial;">नहीं उतरती - उसे पाने के लिए उसमें रास्ते बना उसपर चढ़ना होता है ... यदि कल को कोई नन्हा सूरज आ जाये आकाश में तो निःसंदेह उसे अपनी पहचान के लिए सदियों से उगते सूरज से सामंजस्य बिठाना होगा,उसके ताप को सहना होगा अपने भीतर ऊर्जा जगाने के लिए . </span><br />
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
शब्दों की यात्रा में,मुखरता के आज में कई लोग मिलते हैं - पर उद्देश्यहीन . उद्देश्य के मार्ग में उम्र क्या और यात्रा की अवधि क्या ! युवा उम्र की गति आशीष लेकर जब चलती है तो मंजिलें उन तक स्वयं बढ़ने को आतुर होती हैं ...... आज ऐसे ही एक युवा से मेरी बातों की मुलाकात हुई FB के मेसेज बॉक्स में ...</div>
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
रोमन लिपि में बातचीत के क्षणिक अंश -</div>
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
<div>
Rashmi Mam.. Sadar namaskar ... aap se judna chahta hoon plz.. accept my Req..</div>
<div>
Kabhi mauka mile to meri wall pe jana .. thoda bahut likhne ki koshis bhi kar raha hoon ... </div>
<div>
<br /></div>
<div>
===========मैंने जवाब दिया - </div>
<div>
main gayi thi abhi aur padhkar hi request confirm kiya :) yahi aashirwaad hai aur meri pratikriya</div>
</div>
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
ओह! भूमिका प्रवाह में है और मैंने उभरते स्थापित युवा का नाम बताया ही नहीं .... ये हैं <u>संजय पाल</u> </div>
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
और इनके पंखों की उड़ान का दृष्टिगत आकाश है -</div>
<div style="color: #222222; font-family: arial;">
<h3 class="" style="font-family: arial, sans-serif; font-weight: normal; margin: 0px; overflow: hidden; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-overflow: ellipsis; white-space: nowrap;">
<a class="" href="http://deshbharat.blogspot.com/" style="color: #1122cc;"><span style="font-size: small;"><em style="font-style: normal; font-weight: bold;">My Litraryzone</em><span style="color: #1122cc;"> ! </span><em style="font-style: normal; font-weight: bold;">Sanjay Pal</em></span></a></h3>
<h3 class="" style="font-family: arial, sans-serif; font-weight: normal; margin: 0px; overflow: hidden; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-overflow: ellipsis; white-space: nowrap;">
<span style="font-size: small;"><br /></span></h3>
<div>
13 फरवरी 2013 से इस आकाश की रचना देखकर कौन कह सकता है कि 13 unlucky नम्बर है ......... मेरी प्रतिक्रया तो यही है कि यह उड़ान बड़ी लम्बी होगी . </div>
<div>
<br /></div>
<div>
आइये इनकी कुछ रचनाओं से भी मिलवाऊँ -</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<div>
जिंदगी की तमाम</div>
<div>
राहों को छोड़कर</div>
<div>
हम मिले थे</div>
<div>
एक अजनबी मोड़ पर</div>
<div>
चाहत जगी ऐसी</div>
<div>
बिछडना गंवारा ना हुआ</div>
<div>
हम एक दूजे के हुए</div>
<div>
पर वक़्त हमारा ना हुआ</div>
<div>
<br /></div>
<div>
हम बढ़ते रहे</div>
<div>
एक उमर तक</div>
<div>
चाहतों को साथ लेके</div>
<div>
एक दूजे के हाथों में</div>
<div>
एक दूजे का साथ लेके</div>
<div>
हमें मुंह मोड़ना गंवारा ना था</div>
<div>
वक़्त ने दोराहे पर छोडा</div>
<div>
जाने कैसे यूं ही चलते-चलते</div>
<div>
<br /></div>
<div>
समझ से परे था</div>
<div>
समय से भी परे</div>
<div>
वक़्त की ठोकर को समझना</div>
<div>
एक दूजे को</div>
<div>
समझते हुए भी समझ पाना</div>
<div>
दर्द हुआ था मुझे</div>
<div>
हुआ होगा तुम्हें भी</div>
<div>
वक़्त ने मारी थी ठोकर</div>
<div>
छुपछुप के रोना गवांरा ना था</div>
<div>
हमने हर उस घाव को सहा</div>
<div>
जो मेरा था - तुम्हारा था</div>
<div>
पर हमारा ना था</div>
<div>
<br /></div>
<div>
कुछ मजबूरियां थी मेरी</div>
<div>
रही होगीतुम्हारी भी</div>
<div>
पास आना था आ गए</div>
<div>
दूर जाने की बेवशी थी</div>
<div>
जिसे चाहकर भी</div>
<div>
हम मिटा ना सके</div>
<div>
प्यार था, मोहब्बत थी</div>
<div>
तुम्हें खोने की टीस भी</div>
<div>
बस एक दुसरे को पाकर भी पा ना सके ...</div>
<div>
<br /></div>
<div>
===========================</div>
<div>
<br /></div>
<div>
शब्द नहीं थे </div>
<div>
तो हम कितने अकेले थे </div>
<div>
ग़मों का गम नहीं था </div>
<div>
खुशियों का खुमार नहीं था </div>
<div>
दुःख था, दर्द था </div>
<div>
अपनत्व था, प्यार था </div>
<div>
बस इजहार नहीं था </div>
<div>
सनिध्व जुड़ा शब्दों से </div>
<div>
प्यार की नदी बही </div>
<div>
कुछ आंसू उमड़े आंखों से </div>
<div>
दिल के दर्द को भी </div>
<div>
एक दिशा मिली </div>
<div>
यह शब्द ही हैं जो </div>
<div>
जीवन के अकेलेपन से लड़ते हैं </div>
<div>
यह शब्द ही हैं जो </div>
<div>
जीवन के खालीपन को भरते हैं </div>
<div>
अब तो एक रिश्ता सा बन गया है </div>
<div>
इन अनबोलते शब्दों से </div>
<div>
मैं चुप रहता हूं </div>
<div>
और मेरे शब्द बोलते हैं ...</div>
<div>
<br /></div>
<div>
============================</div>
<div>
<br /></div>
<div>
खुद में खुद नहीं </div>
<div>
महज खुद में खुद के </div>
<div>
होने का अहसास था </div>
<div>
जो वक़्त के साथ भरम बनता गया </div>
<div>
कितना अपरिहार्य लगता है ना ?</div>
<div>
खुद में खुद के होने </div>
<div>
और नहीं होने का भरम ?</div>
<div>
सचमुच कितना कठिन है ?</div>
<div>
अपने आपमें </div>
<div>
अपने आपको खोजना ?</div>
<div>
स्वय में स्वय को ढूंढना ?</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मैंने अक्सर </div>
<div>
खुद ही खुद को छला </div>
<div>
हमेशा दूसरों को कोसा </div>
<div>
कीचड़ उछाला </div>
<div>
और जब मुझे </div>
<div>
मेरी जरुरत थी </div>
<div>
मैं मुझमें था ही नहीं </div>
<div>
फिर मैं आज कैसे कहूँ </div>
<div>
कि मैं – मैं हूं </div>
<div>
और तुम – तुम हो ?</div>
<div>
चलो एक बार फिर से खंगालें</div>
<div>
<br /></div>
<div>
स्वय को मनाएं </div>
<div>
मैं – मैं हूं </div>
<div>
तुम – तुम हो </div>
<div>
खुद को विश्वास दिलाएं </div>
<div>
और हम बन जाएं </div>
<div>
प्रेम में भरम अच्छा नहीं </div>
<div>
हम का हम नहीं होना चल जाएगा </div>
<div>
मैं का मैं और </div>
<div>
तुम का तुम होने में दाग धब्बा नहीं .... </div>
<div>
<br /></div>
<div>
इत्तेफ़ाक की बात कहूँ या होनी ........ पर कोई शक्स किसी से यूँ ही नहीं मिलता . </div>
</div>
</div>
</div>
रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-71710424788840262802013-01-26T19:30:00.002+05:302013-01-26T19:30:29.938+05:30अचानक एक सागर मिला -सौरभ रॉय <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiHyvOaC9GT33y7p8fI6VhRx4qgwbiDLAn3pUHCgsB2DGUgfjYJrItrH2NKhadg2eTlnTxpNKyg7zmP9tFDENVfvuJvgYELly9fYkpRwhH2voz5UXOp-wRQDmsqyOyMtrsZxe9dvwYv5Rp/s1600/535844_3923917298038_1690938675_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiHyvOaC9GT33y7p8fI6VhRx4qgwbiDLAn3pUHCgsB2DGUgfjYJrItrH2NKhadg2eTlnTxpNKyg7zmP9tFDENVfvuJvgYELly9fYkpRwhH2voz5UXOp-wRQDmsqyOyMtrsZxe9dvwYv5Rp/s320/535844_3923917298038_1690938675_n.jpg" width="191" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="font-family: arial;">मैं शब्द हूँ, स्याही हूँ, कलम हूँ, पन्ना हूँ ...... या भावनाओं की यायावर </span><br />
<div style="font-family: arial;">
अपनी पहचान से अलग मैं बस इतना जानती हूँ - कि </div>
<div style="font-family: arial;">
बंजारों की तरह मैं चलती हूँ </div>
<div style="font-family: arial;">
जहाँ मिलते हैं अद्भुत एहसास </div>
<div style="font-family: arial;">
कुछ दिन वहीँ खेमा लगा लेती हूँ ............ ताकि उस जमीन की मिटटी आपके लिए उठा सकूँ . </div>
<div style="font-family: arial;">
मिटटी की कोई उम्र नहीं होती, वह नम है तो उसकी उर्वरक क्षमता आपको विस्मित कर देगी . ऐसे ही विस्मित भाव जगे जब एक मेल मुझे मिला -</div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
<div>
<b>नमस्कार,</b></div>
<div>
<b><br /></b></div>
<div>
<b>मेरा नाम सौरभ राय 'भगीरथ' है और मैं हिंदी में कवितायेँ लिखता हूँ । मेरी उम्र 24 वर्ष वर्ष है एवं मेरी कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमे से यायावर गतः शनिवार (15 दिसम्बर, 2012) को बैंगलोर में रिलीज़ हुआ । मेरी कवितायेँ हिंदी की कई किताबों में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अलावा हंस मेरी कविताओं को अपने अगले संकलन में प्रकाशित कर रहा है । इसके अलावा हिन्दू, डीएनए, वीक सहित कई अंग्रेजी के पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेखन के बारे में छप चुका है ।</b></div>
<div>
<b><br /></b></div>
<div>
<b>अपनी कुछ कवितायेँ आपके उत्कृष्ट पत्रिका 'वटवृक्ष' में छापने हेतु भेज रहा हूँ । आशा है आपको पसंद आएँगी । इनके प्रकाशित होने पर इनका एक संकलित लिंक मुझे भेज दीजियेगा ताकि मैं अपने वेबसाइट http://souravroy.com से पाठकों को आपके साईट में भेज सकूं ।</b></div>
</div>
<div style="font-family: arial;">
<b><br /></b></div>
<div style="font-family: arial;">
एक एक शब्द विश्वास से लबरेज .... मैं पढ़ती गई और लगा 24 वर्ष का अनुभव गौरवान्वित कर रहा है इस देश को - भगीरथ का प्रयास और गंगा, सौरभ रॉय 'भगीरथ' के शब्द शिव जटा से कम नहीं लगे . भावनाओं के आवेग को शब्दों का खूबसूरत कैनवस देकर इस युवा कवि ने कलम की जय का शंखनाद किया है . </div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
सौरभ रॉय की अपनी वेबसाइट है - जहाँ पहुंचकर आपको उस गुफा में हीरे जवाहरातों से कीमती एहसासों के उजाले मिलेंगे .मेरी यात्रा,मेरा पडाव कविता,कहानियाँ होती हैं तो आइये इस गुफा के कुछ कोने तक मैं ले चलूँ -</div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
<div>
<b>एक और दिन</b></div>
<div>
<br /></div>
<div>
प्रदुषण से लड़ते लड़ते</div>
<div>
एक और पत्ती</div>
<div>
सूख गयी है</div>
<div>
पक्ष विपक्ष ने</div>
<div>
एक दुसरे को गालियाँ देने का</div>
<div>
मुद्दा ढूंढ लिया है</div>
<div>
डस्टबिन कूड़े से</div>
<div>
थोड़ा और भर गया है</div>
<div>
किसान का बैल</div>
<div>
भूखे पेट</div>
<div>
हल जोतने से अकड़ गया है |</div>
<div>
<br /></div>
<div>
पत्रकारों ने जनता को</div>
<div>
डरना शुरू कर दिया है</div>
<div>
मज़दूर कारखानों में पिस रहें हैं</div>
<div>
उनकी सांसें निकल रही चिमनियों से</div>
<div>
किसानों के घुटनों के घाव</div>
<div>
फिर से रिस रहें हैं</div>
<div>
हीरो हिरोइन का रोमांस पढ़</div>
<div>
युवा रोमांचित है</div>
<div>
लड़की का जन्म अनवांछित है |</div>
<div>
<br /></div>
<div>
धर्मगत जातिगत नरसंहार</div>
<div>
डेंगू मलेरिया कालाज़ार</div>
<div>
हत्या ख़ुदख़ुशी बलात्कार</div>
<div>
हाजत में पुलिस की मार</div>
<div>
ज़हरीले शराब की डकार से</div>
<div>
थोड़े और लोग मर रहें हैं</div>
<div>
कुछ मुष्टंडे</div>
<div>
लो वेस्ट निक्कर पहन</div>
<div>
रक्तदान करने से दर रहे हैं |</div>
<div>
<br /></div>
<div>
एक और सूरज डूब रहा है</div>
<div>
अपने घोटालों की फेहरिस्त देख</div>
<div>
मंत्री स्वयं ही ऊब रहा है</div>
<div>
अमीर क्रिकटरों के नखरे</div>
<div>
और नंग धडंग लड़कियों का नाच देख</div>
<div>
पब्लिक ताली पीट रहा है</div>
<div>
मुबारक हो ! मुबारक हो !</div>
<div>
भारतवर्ष में एक और दिन</div>
<div>
सकुशल बीत रहा है ||</div>
<div>
=========================</div>
<div>
<b>दो बहनें</b></div>
<div>
<br /></div>
<div>
‘विरक्ति’ और ‘अशांति’</div>
<div>
दो बहनें हैं |</div>
<div>
दो चंचल बहनें</div>
<div>
जो पता नहीं कितनों से ‘ब्याही’ हैं</div>
<div>
कितनो से ‘बंधी’ हैं |</div>
<div>
स्वांगमय-गरिमामय रूप उनका |</div>
<div>
मैं एक से ब्याहा हूँ</div>
<div>
दूसरी से बंधा हुआ !</div>
<div>
दोनों को छोड़ दूं</div>
<div>
तो क्या सुखी हो जाऊंगा</div>
<div>
या और सुनसान ?</div>
<div>
=============================</div>
<div>
<b>करवटों के जोकर</b></div>
<div>
<br /></div>
<div>
भारत का संविधान जानते हो</div>
<div>
कई लोगों को पहचानते हो</div>
<div>
समझते हो देश की तकलीफें</div>
<div>
आते हो</div>
<div>
आकर चले जाते हो |</div>
<div>
इस नितम्बाकार अजायबघर में क्यों बैठे हो ?</div>
<div>
बाहर आकर देखो</div>
<div>
दुनिया सदियों से दु-निया है |</div>
<div>
प्रसंगों में जी रहे हो</div>
<div>
दीमक की तरह</div>
<div>
मेरी माँ के शरीर पर</div>
<div>
अपेंडिक्स की तरह क्यों लटके हो ?</div>
<div>
जब तुम्हारी ज़रुरत</div>
<div>
आदमी को कम</div>
<div>
बंदरों को ज़्यादा है |</div>
<div>
<br /></div>
<div>
आँखों में बुखार की जलन नहीं</div>
<div>
नस में रक्त स्राव की टूटन नहीं</div>
<div>
जर्जर आत्मबल लिए</div>
<div>
तुम्हारी देह</div>
<div>
खड़ी है कपड़े उतारकर, और</div>
<div>
पृथिवी के संग बस</div>
<div>
घूम रही है</div>
<div>
और तुम अपने होने भर के</div>
<div>
एहसास में उत्सव मना रहे हो</div>
<div>
करते रहो लीचड़ बहाने</div>
<div>
अस्पताल में क्रांति के</div>
<div>
क्या माने ?</div>
<div>
बनाकर गूखोर सूअरों का गिरोह</div>
<div>
घूमते रहो सड़कों पर</div>
<div>
एक आसान शिकार की तरह |</div>
<div>
बैठो नुक्कडों पर</div>
<div>
बातें करो</div>
<div>
पैसे-चाय-क्रान्ति की</div>
<div>
घुट्टी पियो सीमेंट घोलकर</div>
<div>
तुम्हारी बारिश भी</div>
<div>
तुम्हारे फसल को देख कर बरसती है</div>
<div>
तुम्हारी माँ तुम्हारी आत्मा को तरसती है</div>
<div>
जब तुम ट्रैफिक जाम में फंसे</div>
<div>
हार्न पर माथा पीटते हो</div>
<div>
एक और अभिमन्यु</div>
<div>
एक और व्यूह में पिट जाता है</div>
<div>
चलो आज बता ही दूं</div>
<div>
तुम्हारा विद्वतापूर्ण संवाद</div>
<div>
एक विशिष्ट बकवास में सिमट जाता है |</div>
<div>
<br /></div>
<div>
पीछे हटो</div>
<div>
ओ असाध्य रोग के ग्रास !</div>
<div>
ओ सुलभ मृत्यु के दास !</div>
<div>
तुम्हारे झुके कन्धों से</div>
<div>
आज मेरी माँ शर्म से झुकी है</div>
<div>
करते रहो प्रयोग अपनी भाषा सुधारने की</div>
<div>
और अपनी यातना को कला का नाम देकर</div>
<div>
बने रहो करवटों के जोकर</div>
<div>
कभी काल कुछ करते भी हो</div>
<div>
तो उसे क्या बुलाओगे ?</div>
<div>
मनुष्यता ?</div>
<div>
या परिणति ?</div>
<div>
अंत से पहले ही</div>
<div>
ख़त्म हो गए?</div>
<div>
जानने से पहले ही</div>
<div>
जान लिया?</div>
<div>
<br /></div>
<div>
स्तन मदिरा प्रार्थना ज़हर</div>
<div>
कहो तुम्हारा मुंह कहाँ खुलेगा?</div>
<div>
अपने कटे हाथों को</div>
<div>
माचिस की डिब्बी में डाल</div>
<div>
चलते रहो घुटनों के बल</div>
<div>
घुटनों के बिना</div>
<div>
शिकस्त आदमी अधमरे अस्तित्व</div>
<div>
हर चीज़ ऊंचे पर है</div>
<div>
उल्लू चिमगादड़ से भी ऊंचे</div>
<div>
और उछालना तुम्हारी औकात से बहार</div>
<div>
<br /></div>
<div>
तुम्हारे वस्त्रों के पार दिखते हैं</div>
<div>
तुम्हारे अंग</div>
<div>
जिनसे आती है</div>
<div>
जले मांस की गंध</div>
<div>
बार बार टकराते हो खुदसे</div>
<div>
जानते हो ऐसा ही है</div>
<div>
तुम्हारे पास मुस्कुराने की</div>
<div>
एक ठोस वजह नहीं है !</div>
<div>
सर उठाओ</div>
<div>
अब तो जी कर दिखाओ</div>
<div>
वरना फिंक जाओगे</div>
<div>
अकेलेपन की तरह</div>
<div>
तुम्हारा खून कितना ही लाल हो</div>
<div>
कैनवास पर खून नहीं बना सकते</div>
<div>
काले पड़ जाओगे</div>
<div>
उसी तरह आते रहेंगे</div>
<div>
उन्हीं उन्हीं नामों के</div>
<div>
वही वही दिन</div>
<div>
कुकुरमुत्तों की तरह तुम</div>
<div>
बिस्तर पर सड़ जाओगे |</div>
<div>
तलवार से परछाईयाँ नहीं काट सकते</div>
<div>
मैं क्यों चीख रहा हूँ</div>
<div>
तुम्हारे वास्ते ?</div>
<div>
क्यों बांस बन</div>
<div>
तुम्हारी चिता उलट रहा हूँ ?</div>
<div>
तुम्हारे वास्ते |</div>
<div>
पर जान लो ये बात</div>
<div>
जो करता हूँ</div>
<div>
ईमान से</div>
<div>
प्यार करुँ या सैर</div>
<div>
इन पंक्तियों में भी मैंने</div>
<div>
थाम रक्खा था हाथ तुम्हारा</div>
<div>
लिख रहे थे पैर !!</div>
<div>
===============================</div>
<div>
<b>विक्रम बेताल</b></div>
<div>
<br /></div>
<div>
मेरा आत्मा रोज़</div>
<div>
ज़बरजस्ती मर कर</div>
<div>
लटक जाती है</div>
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पेड़ पर</div>
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वहां प्रलाप करती है</div>
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चीखती है</div>
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क्रांति क्रांति !</div>
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और लिपटी रहती है</div>
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अपनी शाखा से |</div>
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<br /></div>
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मेरे तले अँधेरा है</div>
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घनघोर !</div>
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<br /></div>
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मेरा शरीर</div>
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मुझे ढूंढता हुआ</div>
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रोज़ आता है</div>
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मुझे ढोता है कंधे पर</div>
<div>
और ऊल फिजूल</div>
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प्रश्नों में फंस</div>
<div>
फोड़ डालता है</div>
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अपना ही सिर |</div>
<div>
<br /></div>
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मेरे सिरे रोशनी है</div>
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प्रचंड !</div>
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<br /></div>
</div>
</div>
रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-2528923631277943172012-11-05T14:10:00.002+05:302012-11-05T16:16:52.544+05:30योजना के यज्ञ में शक्ति जिसे समिधा बनाती है, उसके क़दमों के निशाँ गहरे होते हैं ... आकाश मिश्रा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZ9QUhnNhPpmaS41Ft3o425m52Hv1xAKawz7512_NuLXS9nBNigcB2QnNGTNlSQoro6k0h2mrILmNdg3Gy4GbZVFGjHMt6JDMs0GYjNrrN1maCfLsQpvAwUSl8i3cwC9xWQ9XSvG95d0PK/s1600/DSC00247.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZ9QUhnNhPpmaS41Ft3o425m52Hv1xAKawz7512_NuLXS9nBNigcB2QnNGTNlSQoro6k0h2mrILmNdg3Gy4GbZVFGjHMt6JDMs0GYjNrrN1maCfLsQpvAwUSl8i3cwC9xWQ9XSvG95d0PK/s1600/DSC00247.JPG" /></a></div>
<br />
<span style="font-family: arial;">आकाश के उस पार क्या होगा ? निःसंदेह एक आकाश और - जो सितारों की सौगात लिए चाँद और सूरज के संग हमारे लिए छत बनकर हमारे लिए ही प्रतीक्षित होगा . उस आकाश के आगे भी कवि बच्चन ने कहा होगा -</span><br />
<div>
<div style="font-family: arial;">
इस पार प्रिये मधु है तुम हो, </div>
<div style="font-family: arial;">
उस पार न जाने क्या होगा !... उस पार का रहस्य,संभावनाएं हमेशा बनी रहती है और अनुसन्धान को विचरता मन उस दिशा में बढ़ता है,चिंतन करता है ... </div>
<div style="font-family: arial;">
जीवन, जीवन को जीने के लिए आजीविका,उसके लिए शिक्षा-कर्मठता .... उस रास्ते से अपनी विशेष रूचि के लक्ष्य के आगे बढ़ना विशेष शक्ति की विशेष योजना है . इस योजना के यज्ञ में शक्ति जिसे समिधा बनाती है, उसके क़दमों के निशाँ गहरे होते हैं . </div>
<div>
<span style="font-family: arial;">लिखना और उतनी ही उत्कंठा से पढना - ऐसा अगर ना हो तो ना लिखे के अर्थ सर्वव्यापी होते हैं, ना उनका कोई मूल्य अपने ही भीतर होता है . अपनी इस विचारधारा के रास्ते पर मैंने गौर से देखा एक शक्स को .... आकाश मिश्रा </span><span style="font-family: arial;">का </span><span style="font-family: arial;"> - </span><em style="color: #1122cc; font-family: arial, sans-serif; font-style: normal; font-weight: bold; white-space: nowrap;"><a href="http://shroudedemotions.blogspot.com/2012/08/aakash-ke-us-paar.html" style="color: #1122cc;" target="_blank">आकाश के उस पार</a> </em><span style="font-family: arial;">ब्लॉग है . अभी बहुत समय नहीं हुआ लिखते हुए, पर जो भी लिखा है उन्होंने, वह लीक से हटकर अपनी पहचान देती है, पहचान आकाश के विस्तार का, उसमें भरे चाँद सितारों का, उल्का,नक्षत्र,ग्रहों की विशेष योजनाओं का ... और यह तभी मिलता है जब विनम्रता साथ चलती और रहती है . </span></div>
<div style="font-family: arial;">
आकाश नहीं कहता की मैं आकाश हूँ, क्षितिज का आधार,सितारों का घर,न जाने कितने धरतीवासियों की छत ..... कभी नहीं कहता आकाश ऐसा कुछ भी, ना ही वह दिखावे की भाषा बोलता है - आकाश आकाश है और इस गरिमा को वह खोता नहीं . छोटे छोटे सितारे भी उसकी आगोश में एक अस्तित्व रखते हैं .... सच भी है, जहाँ आकाश है,वहीँ तो जमीन है !</div>
<div style="font-family: arial;">
कल यानी 30 अक्तूबर 2012 को आकाश मिश्रा ने मेरे एक ब्लॉग की यात्रा की .... सम्पूर्णता उनकी टिप्पणी की समग्रता में थी, एक एक शब्द धैर्य,रूचि,समझ के परिचायक थे . टिप्पणियों को देखते हुए मैंने माना कि शिव धनुष सी क्षमता है इस युवा में, मात्र हिंदी को लेकर नहीं ... विचारों के ओजस्वी धरोहर की तरह जीवन के समुचित वेग के संग !!!</div>
<div style="font-family: arial;">
अभी तो अगस्त से लिखना शुरू ही किया है , कुल 22 पोस्ट हैं आज की तारीख तक और हर पोस्ट के माध्यम से कुछ विशेष सन्देश दिया है आकाश ने ....</div>
</div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
मैं अगर मिली होती तो मेरी कलम चलती ही जाती,पर एक दिन में जो सच मैंने पाया,वह पूरी तरह आपके सामने है . आगे की बागडोर तो आकाश के हाथों में है ... स्वभाव से शर्मीला,बड़ों के समक्ष नत आकाश कुछ नहीं कहना चाहता, पर कुछ नहीं के क्रम में शब्द,अर्थ मिल ही जाते हैं -</div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
<b>आकाश ने कहा - </b></div>
<div style="font-family: arial;">
<b><br /></b></div>
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<div>
यकीन मानिए कोई विशेष घटना नहीं हुई | बचपन से बहुत दब्बू और शर्मीले किस्म का था , तो कुछ खास घटित नहीं हुआ | पिता जी से बहुत डर लगता था तो पढ़ाई के अलावा कोई चाह या विशेष रूचि भी नहीं रही , इसी वजह से कैरम तक ढंग से नहीं खेल पाता हूँ , और लिखने के लिए तो मैंने आपको पहले ही बताया कि मुझे हिंदी विषय कभी पसंद नहीं रहा और न घर में कोई साहित्यिक माहौल था जो लिखता , शायद जब पहली बार वक्त ने मुझे कुछ सिखाने के लिए पटखनी दी , तभी से लिखना शुरू किया (शायद , पक्का याद नहीं )</div>
<div>
और आपके ब्लॉग में इतनी बड़ी बड़ी हस्तियाँ हैं , उनके बीच में मेरा आना शोभा नहीं देगा , मेरी और आपकी दोनों की आलोचना होगी | </div>
<div>
मेरा आपसे फिर से विनम्र निवेदन है कि कृपया मेरे ऊपर इतना भार न डालें , मुझे एक अच्छे पाठक होने का ही आशीर्वाद दें |........ </div>
</div>
<div style="font-family: arial;">
...............</div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
<b>फिर भी मैं आकाश लेकर आई हूँ - आकाश के ही शब्दों में </b></div>
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<b><br /></b></div>
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१ जुलाई १९९२ को कानपुर के एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार में उसका जन्म हुआ | उसकी माँ श्री मती विजय श्री मिश्रा एक कुशल गृहणी थीं और कला में विशेष रूचि रखती थीं और उसके पिता श्री सुधीर कुमार मिश्र कोषागार , औरैया(कानपुर और इटावा के बीच एक छोटा सा जिला) में कार्यरत थे | उसका एक छोटा भाई भी था-सागर | घर का सबसे बड़ा लड़का होने के कारण सभी उसे ‘अंकुर’ बुलाते थे | उसके छोटे से सफर में तीन बातें हैं , जिन्होंने उस पर खास असर डाला –</div>
<div>
१.)<span style="white-space: pre-wrap;"> </span>बचपन से ही उसे हिंदी विषय में कोई खास रूचि नहीं थी | वो पीछे वाली सीट पर सो कर हिंदी की कक्षा का भरपूर उपयोग करता था | लेकिन फिर भी उसे कभी किसी कविता की व्याख्या करने में कोई खास परेशानी नहीं होती थी , जिसका कारण सिर्फ उसकी माँ थीं | उन्हें दोहे-चौपाई वगैरह काफी आते थे , जिन्हें वो यूँ ही घर का काम करते हुए गुनगुनाया करतीं थीं | बस इससे ज्यादा उसके घर में कोई साहित्यिक माहौल नहीं था | लेकिन उसकी माँ ने उसमें बीज डालने का सबसे जरूरी काम कर दिया था |</div>
<div>
२.)<span style="white-space: pre-wrap;"> </span>१०वीं में पहली बार उसने जगजीत सिंह जी को सुना , ‘हे राम’ में | फिर उनकी कुछ और गजलें भी सुनीं और कुछ पुरानी फिल्मों के गीत सुने | तब पहली बार उसका रुझान गजल/कविता कीओर हुआ लेकिन ये शौक सिर्फ सुनने तक ही सीमित था |</div>
<div>
३.)<span style="white-space: pre-wrap;"> </span>पढ़ाई-लिखाई में औसत से कुछ अच्छा था तो सब दोस्तों की देखा देखी इंजीनियरिंग में कूद गया(छोटी जगहों में ज्यादा विकल्प भी कहाँ होते हैं) | कोचिंग के लिए कानपुर आया तब कहाँ सोचा था कि जिंदगी बदलने वाली है | प्रवेश परीक्षाओं का नतीजा उसके लिए एक सौगात ले कर आया , उसने पहली बार असफलता का मुंह देखा | एक दिन में ही सब कुछ बदल गया | उसका सारा घर इस बात से टूट चुका था , वो भी | ढाई महीना बहुत बुरागुजरा | फिर एक दिन उसके पिता जी ने उसे दोबारा तैयारी के लिए कोटा भेजा(हालाँकि वो इसके लिए तैयार नहीं था , लेकिन उसके पिता जी को उस पर उस से ज्यादा भरोसा था) | कोटा में एकदम अकेले बिताए उन दस महीनों ने उसे वो बनाया जो वो आज है | वहाँ कुछ अधूरी कवितायेँ भी लिखीं , लेकिन सब की सब दुखियारी , फ्रस्ट्रेट करने वाली , पकाऊ | उसने कभी उनका संग्रह नहीं किया | अंततः कोटा का नतीजा सुखद रहा | जिंदगी वापस पटरी पर लौट आयी लेकिन उस एक हार और उस एक साल ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया |</div>
<div>
मैं ‘आकाश’(आसमान) हूँ , मैंने इस धरती के हर प्राणी को बहुत करीब से देखा है | मैं आपको कहानी सुना रहा था धरती पर रहने वाले एक और आकाश की जिसको ये नाम उसकी बुआ ने दिया और वो इस नाम को ही अपना शक्ति-स्रोत मानता है |आज पीछे पलटकर देखता होगा तो सोचता होगा कि अगर जीवन में वो असफलता न मिली होती तो उसके पास कितना कुछ नहीं होता और अगर उस असफलता से लड़ने की ताकत उसके माता-पिता ने उसे न दी होती तो शायद वो भी टूटकर भीड़ में शामिल हो गया होता |</div>
<div>
उसके २० साल के सफर को जितना भी खींच-तान कर कहूँ , बात सिर्फ इतनी है –</div>
<div>
आँखों में एक नमी सी बची है , बस ,</div>
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मेरे आंसुओं को इस कदर पिया है तुमने |</div>
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जिसे लोग गलती से मेरा मानते हैं , वो </div>
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नाम तक चेहरे को मेरे , दिया है तुमने |</div>
<div>
मुझपे दुनिया का स्याह रंग चढ़ता ही नहीं ,</div>
<div>
मेरी तस्वीर को कुछ ऐसा रंग दिया है तुमने |</div>
<div>
मैं आईना तो हूँ , मगर बिखरा नहीं अब तक ,</div>
<div>
मेरे माथे को दुआ बन के छू लिया है तुमने |</div>
<div>
-<span style="white-space: pre-wrap;"> </span>मेरी माते और पापा(यही कहता हूँ मैं उन दोनों को) के लिए</div>
</div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
<b><br /></b></div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
मेरी कलम आशीर्वाद ही है ... उस पार का रहस्य भी तुम जान लो, शिखर को छुओ .... पर एक बात सकारात्मक रूप में जानो की वक़्त की पटखनी ईश्वर की विशेष कृपा होती है, पटखनी यानी जीत के लिए </div>
<div style="font-family: arial;">
विस्तृत आकाशीय धरातल . </div>
</div>
रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-55507040902099423072012-10-30T10:52:00.002+05:302012-10-30T10:53:17.227+05:30परिवर्तन की इक मंद हवा - रश्मि तारिका<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgloB4EfohCaZC-bwTjlnlD6_qpVsASVCotZyEOpmYt0vT3d_cSNSSPJO2zElfkil-yuDNg8vGXcZbHM3mM5BXsN-TZeT1Nqxp4X2Ht1-1yExO2gEdPAYwgihZAnsHr1Z-dMpciuDCxyRJE/s1600/226316_215346398489473_2543543_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgloB4EfohCaZC-bwTjlnlD6_qpVsASVCotZyEOpmYt0vT3d_cSNSSPJO2zElfkil-yuDNg8vGXcZbHM3mM5BXsN-TZeT1Nqxp4X2Ht1-1yExO2gEdPAYwgihZAnsHr1Z-dMpciuDCxyRJE/s320/226316_215346398489473_2543543_n.jpg" width="221" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="font-family: arial;">यायावर मन रुकता कहाँ है !!! हर दिन नई प्रत्याशा में सृष्टि मंथन करने निकल पड़ता है . आँखें क्षितिज से आगे ढूंढती हैं उन निशानों को , जो मन की गहराईयों</span><span style="font-family: arial;"> से उभरते हैं . झुरमुट से एक किरण ने बाहें पकड़ लीं और मैं आदतन किरणों के पृष्ठ पलटने लगी . सम्पूर्णता के क्रमिक प्रकाश के बीच -</span><span style="font-family: arial;"> एक किरण सी रश्मि तारिका मुझे मिलीं </span><a href="http://www.catchmypost.com/Blogs/rashmi.html" style="font-family: arial;" target="_blank">http://www.catchmypost.<wbr></wbr>com/Blogs/rashmi.html</a><span style="font-family: arial;"> पर . </span><br />
<div style="font-family: arial;">
सहज सोच की सहज अभिव्यक्ति,दृढ़ता के ओज से परिपूर्ण . बगावत,विरोध,परिवर्तन की मांग में भी एक सौम्यता ... सौम्यता ना हो तो विचारणीय नहीं रहते कथन ! </div>
<div style="font-family: arial;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial;">
आप इनको इनके ब्लॉग पर मेरे शब्दों के अनुरूप पा सकते हैं, उससे पहले उनके शब्दों में उन्हें जानिए - </div>
<div style="font-family: arial;">
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
<div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif;">
अपने बारे में क्या कहूँ? मुझे जब रश्मि दी ने अपने दृष्टिकोण से खुद का परिचय लिखने को कहा तो समझ नहीं पाई! मुझे तो इतना मालूम था कि.... </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
दिल में कुछ हसरतों को समेटे जिए जा रहे थे </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
पलकों में कुछ खवाब सजाये जिए जा रहे थे</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
अपनी ख्वाइशों का भी कुछ अता पता नहीं था </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
हम खुद में सिमटे ज़िन्दगी जिए जा रहे थे.</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
ख़ामोशी से बेरंग हुई उमंगों को दबाये जा रहे थे </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
चाहतों के टूटने पर अश्कों को खुद पिये जा रहे थे,</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
न मालूम था ज़िन्दगी को कैसे देखना अब मयस्सर होगा</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
हम खुद से ही पूछते खुद ही जवाब दिए जा रहे थे ...</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; margin: 0px; padding: 5px;">
</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: 'times new roman', 'new york', times, serif;">
एक सीधी साधी गृहणी , जो अपनी छोटी सी बगिया को अपने फ़र्ज़,कर्तव्यों से सींचती हुई खुश रहती है और कभी खाने की तारीफ या परिवार वालों से दो शब्द प्यार के भी सुनती है तो अपने आत्मसम्मान के लिए अपना इजाफा समझती है ! लेकिन अब ....<br />
''हाँ ,आजकल आसमान में उड़ने लगी हूँ !जैसे किसी ने मेरे पंखो को उड़ान दे दी हो !बताऊँ क्यों? दरअसल ,अपने ख्यालों को जो ताबीर दी थी ,कुछ करने की चाह जो दिल में बरसों से ज़िम्मेवारियों और फर्जो की किसी गहरी खाई में दबी पड़ी थी अब उन्हें निकलने का वक़्त मिला तो कुछ अपनों और दोस्तों की प्रेरणा रुपी रस्सी से निकाला तो जल रुपी भावों की मटकी भरी हुई पाई !उस मटकी से छलकते जल की शीतलता का एहसास ही जैसे प्यासे को उस जल की उपयोगिता जतलाता है वैसे ही मेरे भावों को भी शब्दों की उपयोगिता का आभास हुआ !तब से ये भावरूपी मटकी अब भरती जा रही है !अब शायद ये कभी खाली न हो !'' ये एहसास मुझे रश्मि दीदी ने करवाया कि अपनी लेखनी में से चंद शब्दों का लेख द्वारा इज़हार उनकी पुस्तक के लिए करू !यह सुनकर तो मेरी ख़ुशी का पारावार न था !मानो बहुत कुछ पा लिया हो मैंने !<br />
कभी सोचती हूँ , अपने माता पिता और भाई बहनों में एक भोली छवि वाली लड़की ,गर्ल्स कॉलेज ,(हिसार हरियाणा ) में भी अपने आप में सिमटी रहने वाली ,अपने शर्मीले स्वाभाव के साथ ही बी.ऐ पूरी होते ही केवल इन्ही गुणों के साथ ससुराल '' सहारनपुर'' आ गई और खो गई अपने परिवार में !उस वक़्त देवरों ,ननदों में ही अपना दोस्त मिला और प्यारे पति के साथ ज़िन्दगी बिताना ही मात्र एक पूर्णता का एहसास था और इसे बेटी और एक बेटे के जनम ने चार चाँद लगा दिया !मायके में पत्र पत्रिकाओं , कहानियां उपन्यास पढने का शौक था तो ससुराल में एक अखबार की भी कमी खलती !किसी को शौक नहीं था इन सब का ! मेरे शौक ज़िम्मेवारियों में दब गए और मुझे पता भी न चला !पर जैसे समय ने ही करवट ली और हम सहारनपुर (उ.प) से सूरत(गुजरात) में आ गए !उस वक़्त कम्पुटर का 'स्विफ्ट ज्योति ' का बेसिक कोर्स महिलाओं के लिए शुरू हुआ था जो मेरी भी करने की चाह थी परन्तु किन्ही कारन वश मुझे घर में मना कर दिया गया !अपना खाली समय उस वक़्त केवल बच्चो की स्कूल मैगज़ीन में बच्चो के लिए कुछ न कुछ लिख कर या उनके चार्ट्स बना कर अपने लिखने की हसरत पूरी कर लेती !धीरे धीरे ये एहसास हुआ कि मन बहुत कुछ लिखने को मचलता है !सोचती थी ,कि आखिर अपने भावों को शब्दों में पिरोने की ललक क्यों ? कॉलेज में हिंदी को (ऐच्छिक और वैकल्पिक) विषय चुनना और उस में उच्चतम नंबर लाना ही लिखने का कारण नहीं हो सकता !यद्यपि ये कारक सहयोगी अवश्य हो सकता है लेखनी में ! फिर ये लिखने की अनुभूति हुई कैसे ?... मन स्वत: ही इन 'भावों की जननी अपनी माँ '' की तरफ जाने लगा जिन्होंने अपनी लिखने की कला को ईश्वर भक्ति को समर्पित अपने स्वरचित और स्व लिखित भजनों द्वारा किया और मेरे मानस पटल पर भी अंकित कर दिया! उनका ईश्वर प्रेम प्रतिदिन एक नया भजन बन कर दृश्यमान और गुंजायमान होता !कुछ ऐसे ...<br />
'' धूल बनके तेरे चरणों से लिपटना अच्छा लगता है<br />
साँसों कि लय से तझे सिमरना अच्छा लगता है !''<br />
घर के कार्यो में व्यस्त होने के बावजूद माँ ने अब तक खुद के ही २०० भजन बना लिए और एक बार १०८ भजनों की माला हमारे गुरुओं के चरणों में समर्पितकी !उनकी इस सात्विक सोच का हमारे जीवन पर भी प्रभाव रहा !<br />
''मेरी आँखें तलाशती रहती हैं हर इंसान में हर रूप तेरा<br />
<wbr></wbr> सारी दुनिया 'रब' लगती है यह हाल मेरा<br />
<wbr></wbr> तेरा सिमरन कर लेती हैं मेरी साँसे चलते चलते<br />
<wbr></wbr> मुझे प्रेम हो गया है तुझसे तेरे चर्चे करते करते ...!''<br />
उनका मानना था कि.मुश्किलों का घबराकर नहीं ,उनका समाधान ढूँढ़ कर निवारण करो और फिर भी कोई रास्ता न सूझे तो बजाये चिंता करने के वो वक़्त प्रभु सिमरन में लगा दो और उस मालिक पर छोड़ दो ''<br />
सच पूछिये तो इन दो वाक्यों का मुझ पर हमेशा प्रभाव रहा है !फलस्वरूप मैंने परिस्थितियों से हार न मानते हुए अपने व्यस्त पलों से कुछ पल अपने लिए निकाल कर अपनी लेखनी को देने प्रारम्भ किये !पहली बार अपने स्कूल के विद्यार्थियों और अध्यापिकाओं को समर्पित करते हुए एक कविता लिखी जब शादी के काफी वर्षो बाद अपने विद्यार्थी काल की सखी को अपने ही शहर में पाया तो उस ख़ुशी को भी शब्द दे दिए ,<a href="https://www.facebook.com/notes/rashmi-tarika/campus-school-ki-yaadein/207428335935860" style="color: #1155cc;" target="_blank"><span style="color: #0066cc;">https://www.facebook.com/<wbr></wbr>notes/rashmi-tarika/campus-<wbr></wbr>school-ki-yaadein/<wbr></wbr>207428335935860</span></a>जो बेहद पसंद की गई !सबने उत्साहित किया तो लिखती चली गई !अपने मन की ख्वाइशों को <a href="http://www.catchmypost.com/kavita/2011-10-02-22-02-23.html" style="color: #1155cc;" target="_blank"><span style="color: #0066cc;">http://www.catchmypost.com/<wbr></wbr>kavita/2011-10-02-22-02-23.<wbr></wbr>html</span></a>शब्दों का जामा पहनाया और उन्हें कविता में ढालकर ,''catchmypost ''पर प्रतियोगिता हेतु भेजा !उसका चयनित होना ही एक बड़ी उपलब्धि थी मेरे लिए ! लेकिन इसका श्रय मैं अपनी दीदी शील निगम जी को देती हूँ ! इस तरह मैं लेखनी के अथाह सागर में धीरे धीरे पांव जमाती हुई उतर पड़ी !ये एहसास हुआ कि.<br />
बहुत गहरा सागर है यह जिसमें ज्ञान के सीप भरे पड़े हैं !मेरी लेखनी का रूख कहानियों ,कविताओं ,लेख,शाएरी और भजन की तरफ भी है जैसे ....<br />
'' कागज़ में जो लिखा नाम तेरा,वो लगे मुझे तस्वीर तेरी<br />
वो पूजा मेरी हो जाए वो बन जाए तकदीर मेरी<br />
यही प्रेम और भक्ति यही ,कुछ और मुझे नहीं आता<br />
जब जहाँ भी तेरा ख्याल करू सर श्रधा से झुक जाता ...!''<br />
<wbr></wbr> कभी कभी लौंग ड्राइव पर जाते हुए ,बारिश की रिमझिम और चेहरे पर पड़ती बुँदे और हमसफ़र का साथ ,रास्ते में कहीं गाडी रोक कर चाय की चुस्कियों का या गरम गरम भुट्टे का आनंद मेरे मन में एक तरंग पैदा कर देते हैं और इन्ही रूमानियत<br />
भरे पलों में एक कविता का आगाज़ हो जाता है !<br />
<wbr></wbr> <wbr></wbr> कभी कभी ट्रेन में बैठे बैठे अपने मन पसंद लेखको की कृत्तियों को पड़ना एक सुखद एहसास देता है !<br />
उतर जाती हूँ तब उनके भावों की गहराई के समुन्द्र में और कल्पनाशील होकर मंथन करने लगते हैं विचार उन पात्रों के साथ !<br />
<wbr></wbr> <wbr></wbr> कभी कभी छोटी छोटी बातें भी बड़ी ख़ुशी दे जाती हैं !कभी लिख कर खुद ही खुश हो जाया करती थी पर आज इन छोटी खुशियों में परिवार का सहयोग और प्यार नज़र आता है जब पति मुझे ''मेरी लेखिका पत्नी ''कहकर पुकारते हैं और बच्चे ,''keep it mom '' कहकर उत्साह बढ़ाते हैं!यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है !<br />
<wbr></wbr> <wbr></wbr> अंत में इतना ही कहूँगी कि २ बच्चो और पति के साथ अपने छोटे से परिवार के साथ खुशियों के पल समेटते हुए कुछ पल निकालकर अपनी कलम से चंद शब्दों को कभी कविताओं ,कभी कहानिओं या लेखों में बाँध देती हूँ !भावनाओं को,अपने आसपास हो रही हर गतिविधि को अगर शब्दों में ढाल कर उचित तरीके से एक अच्छे सन्देश के साथ किसी भी आम इंसान तक पहुंचा सकू तो मुझे ख़ुशी होगी !इसी कोशिश के साथ अब तक अपनी कहानिया ,कवितायेँ और लेख आदि ई पत्रिका ..लेखनी,प्रवासी दुनिया ,रचनाकार,म्हारा हरयाणा ,,मैथिलिप्रवाहिका पत्रिका जो छतीसगढ़ से छपती है, में भेज चुकी हूँ और छपती रही हैं !अभी कुछ दिन पूर्व ही मेरे कहानी "आत्मसम्मान'' राष्ट्रीय समाचार पत्र ''rajasthan पत्रिका"में प्रकशित हुई जिसका लिंक है <a href="http://epaper.patrika.com/63713/Indore-Patrika/21-10-2012#page/37/2" rel="nofollow
nofollow" style="color: #3b5998; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; line-height: 18px; text-decoration: none;" target="_blank">http://epaper.patrika.com/<wbr></wbr>63713/Indore-Patrika/21-10-<wbr></wbr>2012#page/37/2</a><br />
बाकि सब रचनायें मेरे ब्लॉग <a href="http://www.catchmypost.com/rashmi/" rel="nofollow nofollow" style="color: #3b5998; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; line-height: 14px; text-decoration: none;" target="_blank">http://www.catchmypost.com/<wbr></wbr>rashmi/</a><br />
पर आप पढ़ सकते हैं!<br />
<wbr></wbr> मित्रो ,आप की प्रतिक्रिया ही मेरी अग्रिम रचना के लिए शुभकामना है !<br />
<wbr></wbr> इसलिए इंतज़ार में ...<br />
<wbr></wbr> <wbr></wbr> आपकी दोस्त ...रश्मि तरीका</div>
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रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-32178665340086898952011-11-23T09:25:00.004+05:302011-11-27T08:46:01.507+05:30मैं खुद कविता हूँ अंतहीन- नीलम प्रभा<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBI7_b6BYZKyrJFSoC8NsGv1rpzs4474RWmsK0rs7p1rreUej0gABMGqiu6NWJj1O1m-QnJSUpdurYPfcloi1o_LnUKBBsSrKlkSa6fIgke5GigWXxgPo4h2b7-qHWYud4A2JUIF6jlumf/s1600/302279_10150396233118809_838198808_8277300_270196873_n+%25281%2529.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBI7_b6BYZKyrJFSoC8NsGv1rpzs4474RWmsK0rs7p1rreUej0gABMGqiu6NWJj1O1m-QnJSUpdurYPfcloi1o_LnUKBBsSrKlkSa6fIgke5GigWXxgPo4h2b7-qHWYud4A2JUIF6jlumf/s320/302279_10150396233118809_838198808_8277300_270196873_n+%25281%2529.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5678035192187602514" style="display: block; margin-top: 0px; margin-right: auto; margin-bottom: 10px; margin-left: auto; text-align: center; cursor: pointer; width: 270px; height: 320px; " /></a><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><span class="Apple-style-span" style="font-family: Georgia, serif; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span><div style="text-align: -webkit-auto; "><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">नीलम प्रभा , नाम से क्या परिचय दूँ ..... इस नाम से मेरा भी संबंध है . जी , नीलम प्रभा मेरी बड़ी बहन हैं , ... पर इस रिश्ते से अलग वह एक अलाव है - जिसमें भावनाओं की तपिश है . कलम में उसकी सरस्वती भी हैं , दुर्गा भी हैं ... नहीं ज़रूरत उसे आकृति लिए पन्नों की , मुड़े तुड़े, बेतरतीबी से फटे हुए पन्नों को भी वह जीवंत बना देती है , जब उसमें से कृष्ण का बाल स्वरुप दिखता है इन शब्दों में -</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><b><br /></b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><b>" हैं कृष्ण किवाड़ों के पीछे</b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><b>और छड़ी यशोदा के कर में</b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><b>क्या करूँ हरि ये सोच रहे</b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><b>फिर पड़ा हूँ माँ के चक्कर में ...."</b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">सच तो ये है कि उसके पास ख्यालों के कई कमरे हैं ... तिल रखने की भी जगह नहीं , पर महीनों गुजर जाते हैं ... कमरे की सांकल खुलती ही नहीं ! उसे कहना पड़ता है - " खोलो तो द्वार , ख्याल सिड़ न जाएँ ..." बेतकल्लुफी से वह कहती है , " ख्याल नहीं सिड़ते... और फिर मैं तो अलाव हूँ , जहाँ सूरज ठहरता है खोयी गर्मी वापस पाने के लिए ..." ( ऐसा कुछ वह कहती तो नहीं , पर उसके तेवर यही कहते हैं !)</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">उसे आप कुछ भी लिखने को कहिये , वह यूँ लिखकर देती है - जैसे पहले से लिखा पड़ा था .</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">आप उसे खूबसूरत से खूबसूरत कॉपी दीजिये , पर फटे पन्नों पर ही वह आड़े तिरछे लिखती है ....... ऐसा करके शायद वह इन एहसासों को पुख्ता करती है कि <b>" ज़िन्दगी कभी सीधे समतल रास्ते से मंजिल से नहीं मिलती ..."</b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">यह परिचय जो आपके सामने है , वह भी बस पुरवा का एक झोंका है .... ' लो लिख दिया - खुश ?' मैं तो खुश हूँ ही , क्योंकि मैं उसे जानती हूँ , उसकी हर विधा से वाकिफ हूँ ....</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "> अब उसकी कलम में आप देखिये - वह क्या है !</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">क्या कहकर परिचय दूँ अपना!</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">कि मैं पैदा हुई कहाँ और कहाँ पढ़ी ?</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">खड़ी थी कब ऊँचे शिखरों पर कब उतरी ?</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">कितनी किताबें हुईं प्रकाशित , मिले हैं कितने पुरस्कार ?</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">किन लम्हात ने मेरी कलम में शब्दों में पाया आकार ?</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">इस परिचय की मुझको है दरकार नहीं</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">ऐसा कुछ मेरे मैं को स्वीकार नहीं।</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">माँ से केवल नाम नहीं पाया मैंने</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">कलम भी मेरे हिस्से विरासत में आई</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">पिता से यह सुनकर मैं बड़ी हुई</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">’मेरी बेटी ने असाधारण प्रतिभा है पाई'</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">अपने सभी निज़ामों को खुसरो की तरह मैं प्रिय रही</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">इसीलिए गर्दिश में भी, जीवन की सुंदर कथा कही</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">जायदाद ’ग़र कलम की हाथ नहीं आती</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">तो मैं निश्चित बरसों पहले मर जाती</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">घर और घर के रिश्तों का हावी होना</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">तय था जो भी कुछ था सब भावी होना</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">बेशक! सब अपनों ने देखा भाला था</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">पर बिना शर्त जिन्होंने मुझे सँभाला था</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">वह मेरी कलम, कविता थी मेरी - ये क्या न बनीं मेरी खातिर!</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">आब बनीं, आहार बनीं, आधार बनीं, अधिकार बनीं,</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">हर मौके का इज़हार बनीं, मेरा पूरा परिवार बनीं</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">अब क्या कहना कि क्या है कलम और कविता क्या है मेरे लिए!</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">है कलम मेरी मेरा वजूद, मैं खुद कविता हूँ अंतहीन</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">ये दीन मेरा, मेरा यक़ीन</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">मेरे ख्वाबों की सरज़मीन</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">ये आफ़रीन, मैं आफ़रीन</span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">हो इनसे अलग मैं कुछ भी नहीं, हो इनसे अलग मैं कुछ भी नहीं।</span></span></div></div><div style="line-height: normal; text-align: -webkit-auto; font-size: small; "><br /></div><div style="line-height: normal; text-align: -webkit-auto; font-size: small; "></div><div style="line-height: normal; text-align: -webkit-auto; font-size: small; ">नीलम प्रभा</div><div style="line-height: normal; text-align: -webkit-auto; font-size: small; ">डी पी एस , patna</div></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com31tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-12758574565375170892011-11-17T10:54:00.002+05:302011-11-17T10:57:30.147+05:30निष्पक्ष साथ - संजीव तिवारी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ4Db4mDDeuBHIKgU7p81pKgUCpDbQLGjKPlQFhje5C0mPRpD0kEfGN9OUyRFkRRgwfc3PlO_2No7Mm5UvlX7cny7DJikuuWeqwth0_SU2FE5YfTcvUHacrQFr0y6pbGyDYnCWHZU6War3/s1600/Sanjeev.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 227px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ4Db4mDDeuBHIKgU7p81pKgUCpDbQLGjKPlQFhje5C0mPRpD0kEfGN9OUyRFkRRgwfc3PlO_2No7Mm5UvlX7cny7DJikuuWeqwth0_SU2FE5YfTcvUHacrQFr0y6pbGyDYnCWHZU6War3/s320/Sanjeev.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5675832052258399858" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; ">२००७ में मैंने ब्लोगिंग शुरू की - हिंदी में लिखने का सुझाव दिया संजीव तिवारी जी ने , और इस तरह एक परिचय हुआ उनसे . मेरी </span><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">रचना जो हिंदी में ब्लॉग जगत के सामने आई ' अद्भुत शिक्षा ', उसे लोगों के सम्मुख लाने का भी प्रयास संजीव जी ने ही किया .... यूँ कहें ,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">इस जगत में मेरी पहचान के सूत्रधार या गुरु संजीव तिवारी जी हुए . </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">उनकी कलम से जब मैंने उनका परिचय माँगा तो लेखन में सधे संजीव जी ने इस तरह अपना परिचय भेजा जैसे पसीने से तरबतर हो कोई कह रहा </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हो - अब ये बहुत हुआ ' ! तो चलिए रूबरू हो लें -</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><br /></div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><span style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; ">रश्मि जी, प्रणाम!</span><div><span ><span style="border-collapse: collapse; "><br /></span></span></div><div><span ><span style="border-collapse: collapse; ">संपूर्णता के फेर में जीवन परिचय पूर्ण ही नहीं कर पाया, एक संक्षिप्त परिचय भेज रहा हूं, आजकल ब्लॉग पढ़ना नहीं हो पा रहा है.<br /></span></span></div><div>विलंब के लिए क्षमा सहित.</div><div><br /></div><div><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><b><span lang="HI" style="font-size: 14pt; font-family: Mangal, serif; ">संजीव तिवारी</span></b><b><span style="font-size: 14pt; font-family: Georgia, serif; "></span></b></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: normal; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">माता -</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">स्व.श्रीमति शैल तिवारी</span><span style="font-size: 12pt; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">पिता - स्व.श्री आर.एस.तिवारी</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span style="font-size: 12pt; font-family: Georgia, serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">शिक्षा -</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">एम.काम.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">एलएल.बी.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "><br /></span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">संप्रति -</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">वर्तमान में</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">हिमालया ग्रुप</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">भिलाई में विधिक सलाहकार.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><b><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">पता</span></b><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> - </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">ग्राम- खम्हरिया(सिमगा के पास)</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">पोस्ट- रांका</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">तहसील- बेरला</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">जिला-दुर्ग</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">छत्तीसगढ़.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">लेखन प्रकाशन -</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में </span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">1993</span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; "> से कविता</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">लेख</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">कहानी व कला-संस्कृति पर आधारित आलेख प्रकाशित.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">संपादन : छत्तीसगढ़ी भाषा की आनलाईन पत्रिका गुरतुर गोठ डाट काम </span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">(</span><a href="http://gurturgoth.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); ">http://gurturgoth.com</a><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">) </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">का विगत </span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">2008</span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; "> से प्रकाशन व संचालन.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">ब्लाग लेखन - छत्तीसगढ पर केन्द्रित हिन्दी ब्लाग</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> <a href="http://www.aarambha.blogspot.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); ">'<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; ">आरंभ</span>'</a> (<a href="http://www.aarambha.blogspot.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); ">www.aarambha.<wbr>blogspot.com</a>) </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">का संचालन. हिन्दी इंटरनेटी व ब्लॉग तकनीक पर निरंतर लेखन. छत्तीसगढ़ के कला-साहित्य व संस्कृति को नेट प्लेटफार्म देकर सर्वसुलभ बनाने हेतु निरंतर प्रयासरत.</span><span style="font-size: 12pt; font-family: 'Times New Roman', serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><b><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">सम्मान/पुरस्कार</span></b><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> - </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">राष्ट्रभाषा अलंकरण</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">छत्तीसगढ़ राष्ट्र भाषा प्रचार समिति. वर्ष के सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय लेखक</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">परिकल्पना सम्मान - </span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">2010. </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">रवि रतलामी जी के छत्तीसगढ़ी आपरेटिंग सिस्टम में सहयोग (इस आपरेटिंग सिस्टम को दक्षिण एशिया का प्रसिद्ध मंथन पुरस्कार प्राप्त हुआ)</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "> </span><span style="font-size: 10pt; font-family: 'Times New Roman', serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">वर्तमान पता - ए</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">40, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">खण्डेलवाल कालोनी</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">दुर्ग</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; ">, </span><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">छत्तीसगढ़.</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.0001pt; margin-left: 0px; line-height: 14.25pt; "><span lang="HI" style="font-size: 10pt; font-family: Mangal, serif; ">प्रोफाईल -</span><span style="font-size: 10pt; font-family: Georgia, serif; "><a href="https://plus.google.com/118048021077011570543/posts" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); "> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; ">गूगल</span> </a># <a href="http://www.facebook.com/tiwari.sanjeeva" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); "><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; ">फेसबुक</span></a> # <a href="http://twitter.com/#!/aarambha" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); "><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; ">ट्विटर</span></a></span></p></div><div>--<br /><span ><div>संजीव तिवारी</div>देश भाषा-लोक भाषा <a href="http://www.gurturgoth.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); ">www.gurturgoth.com</a> <div>मेरी अभिव्यक्ति <a href="http://sanjeevatiwari.wordpress.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); ">http://<wbr>sanjeevatiwari.wordpress.com</a></div><div><a href="http://www.gurturgoth.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); "></a>जगमग छत्तीसगढ़ <a href="http://aarambha.blogspot.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); ">http://aarambha.<wbr>blogspot.com</a></div><div><a href="http://aarambha.blogspot.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); "></a><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); ">मेरा पेशा </span><a href="http://jrcounsel4u.blogspot.com/" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); ">http://jrcounsel4u.<wbr>blogspot.com</a> <div style="font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); "><span style="border-collapse: collapse; ">....... आप मुझे राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रतिउत्तर देंगे तो मुझे खुशी होगी. </span></div></div><div><span style="border-collapse: collapse; ">उनकी आखिरी पंक्तियाँ हिंदी के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाती है . इसी हिंदी ने ही तो हम सबको जोड़ा है . </span></div><div><span style="border-collapse: collapse; "><br /></span></div></span></div></div></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-78746181274427922212011-09-17T10:36:00.003+05:302011-09-17T17:31:04.411+05:30बौद्धिक सूर्य रथ की विनम्र सारथी - डॉ सुधा ओम ढींगरा<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs486KceaBTCaGdHsvA5SdW0ftJuUPyg_mQsizEjlZqSuyRcLwb1NG2Hq3gZ74_-l9rDFVTg27S1fBSWw9C2GXvkEKyzeILBWsaeSCa4tEzAbjh5N3t_x9uQwyicPhsK_Al3VZAMVd5quu/s1600/sudhaji.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 213px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs486KceaBTCaGdHsvA5SdW0ftJuUPyg_mQsizEjlZqSuyRcLwb1NG2Hq3gZ74_-l9rDFVTg27S1fBSWw9C2GXvkEKyzeILBWsaeSCa4tEzAbjh5N3t_x9uQwyicPhsK_Al3VZAMVd5quu/s320/sudhaji.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5653191179665670642" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; ">उपाधियाँ , सम्मान तो समय के साथ व्यक्ति को हासिल होते हैं , पर विनम्रता , शालीनता व्यक्ति को अजेय बनाती है ...बौद्धिक सूर्य रथ की विनम्र सारथी सुधा धींगरा जी का नाम तो सुना था , पर मीलों की दूरी को मिटाकर कोई बात नहीं हुई थी . मीलों की कौन कहे - यहाँ तो देश- विदेश की दूरी थी , पर अचानक एक दिन बिना टिकट , बिना किसी आकस्मिक खर्चे के , बिना किसी औपचारिकता के हम एक साहित्यिक मोड़ पर मिले ...<div> एक मेल मिला ,<br /><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); "><span style="border-collapse: separate; color: rgb(0, 0, 0); font-family: 'Times New Roman'; font-style: normal; font-variant: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px; font-size: medium; "><span style="color: rgb(204, 102, 0); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; "><strong><span style="font-family: times, serif; color: rgb(0, 0, 0); "><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; "><span style="font-family: times, serif; "><span style="font-size: 21px; line-height: 37px; "><span style="font-size: 21px; "><span style="color: rgb(204, 102, 0); "><strong><span style="font-family: times, serif; color: rgb(0, 0, 0); "><span style="color: rgb(0, 0, 0); "><span style="font-size: large; ">नए कलेवर, नए रंग- रूप और नई साज- सज्जा के साथ </span></span></span></strong></span></span></span></span></span></span></strong></span></span><br /><span style="font-size: medium; ">उत्तरी अमेरिका की लोकप्रिय त्रैमासिक पत्रिका '<strong>हिन्दी चेतना</strong>' का </span><br /><span style="font-size: medium; ">जुलाई -सितम्बर 2011अंक प्रकाशित हो गया है </span>|<br /></span><div><br /></div><div>देखकर इस सज्जा को मैंने पूछा -</div><div><b>'<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); ">मैं अपनी रचना भेज सकती हूँ इसके लिए ? '</span> </b></div><div>और विनम्रता ने सुधा जी के लिबास में कहा -</div><div>'<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial, sans-serif; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); font-size: large; ">आदृत्या रश्मि जी,</span></div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial, sans-serif; line-height: normal; background-color: rgb(255, 255, 255); font-size: large; ">यह पत्रिका आपकी है |'</span><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; ">और मैंने पत्रिका को अपना मान लिया .... सुधा जी को अपना मान लिया .... और अपनी कलम को सुधा जी के नाम की स्याही से भरा , जिन बातों से मैं अनभिज्ञ थी , उन बातों का आधार , उनकी कलम से उनका परिचय माँगा ... परिचय की माँग ने मोबाइल से हमारी आवाज़ की मुलाकात करवाई - फिर क्षणों में अपरिचय की रही सही दीवार भी गिर गई और अपनी कलम के माध्यम से सुधा जी सिर्फ मुझ तक नहीं आईं , बल्कि हम सब के पास आईं ..... तो मैं झीने परदे का आवरण हटती हूँ और मिलवाती हूँ </span></span><b>हिंदी चेतना</b> हिंदी प्रचारिणी सभा, कैनेडा की त्रैमासिक पत्रिका की संपादक: डॉ सुधा ओम ढींगरा जी से -</div><div><br /></div><div><b>सुधा जी की कलम से </b></div><div><div> एक मुस्कराती आवाज़ कानों को तरंगित कर गई | आप सोच रहे होंगे कि फ़ोन पर मुस्कराती आवाज़ का कैसे पता चला | जी...फ़ोन पर आवाज़, आप के चेहरे के हाव -भाव, मूड सब बता देती है | बस संवेदनाओं के मंथन की आवश्कता है, अभ्यास सब सिखा देता है | आवाज़ रश्मि जी की थी और उन्होंने कहा कि अपना परिचय लिखूँ....सोच में पढ़ गई कि अभी तक तो मैं ही अपने बारे में कुछ नहीं जानती तो लिखूँ क्या ...पर रश्मि जी का मीठा, प्यारा अनुरोध है इसलिए स्वयं को ढूँढ़ना तो पड़ेगा | चलिए अतीत की तरफ लौटती हूँ जिसके पलों को यादों की अंगूठियों में हीरे, पन्ने, नीलम, मूंगे और पुखराज सा जड़ कर मैंने अपने हृदय की संदूकची में सुरक्षित रखा हुआ है | जब भी अतीत के गलियारे में झाँकने को मन करता है तो उन अंगूठियों को पहन लेती हूँ और सुखद अनुभूतियों से सराबोर हो जाती हूँ | लिखने के लिए उन अंगूठियों को पहन लिया है और ऐसा महसूस हो रहा है कि जिस धन को मैं वर्षों से अपना, सिर्फ अपना समझती थी, उसे आज आपके साथ ख़ुशी से साझा कर रही हूँ..</div><div> जालन्धर के एक साहित्यिक परिवार में जन्म हुआ | मम्मी -पापा और भाई तीनों डाक्टर थे | पोलिओ सर्वाइवल हूँ | अपंग होने से तो बच गई पर दाईं टाँग कमज़ोर रह गई इसलिए मेरा बचपन आम बच्चों की तरह नहीं बीता | तरह -तरह के तेलों की मसाज शरीर पर होती और काफ़ी व्ययाम करवाया जाता | बहुत दर्द होता और पलायन में परिकल्पना की दुनिया सजा लेती और कब कागज़ों पर कलम से शब्दों के चित्र उकेरने लगी याद नहीं | हाँ, काग़ज़, कलम और पुस्तकों से दोस्ती हो गई | यही दोस्त मुझे पीड़ादायक वर्षों से निकाल लाए | १२ वर्ष की माँ -पापा की मेहनत रंग लाई और मैं स्वस्थ्य किशोरी बनी | कत्थक, आकाशवाणी, रंगमंच और बाद में दूरदर्शन की कलाकार बनी | इस सब का श्रेय मैं अपने माँ -पा और अपने से दस साल बड़े भाई को देती हूँ जिन्होंने घर का वातावरण बहुत सकरात्मक रखा और मुझ में किसी तरह की कुण्ठा नहीं आने दी | माँ ने हमेशा एक बात सिखाई कि अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसे अपनी ताकत और ढाल बनाओ | पापा ने हमेशा कुछ अलग हट कर करने के लिए प्रोत्साहित किया | कविता, कहानी, उपन्यास, इंटरव्यू, लेख एवं रिपोतार्ज सब लिखती रही और जीवन में जो कमी थी उसका एहसास नहीं हुआ | चाल से कभी कोई ढूँढ नहीं पाया कि मेरी टांगों में कोई अन्तर है | क़दमों को साधने का वर्षों से अभ्यास है और स्वयं कभी किसी को बताया नहीं | मुझे सहानुभूति नहीं चाहिए थी और 'बेचारी' शब्द नहीं सुनना था | पिछले कुछ वर्षों से पत्र -पत्रिकाओं के लिए इंटरव्यू देते समय तरह -तरह के प्रश्नों के उत्तर में बचपन का ज़िक्र स्वाभाविक रूप से आ जाता है अन्यथा उम्र भर किसी को पता न चलता | स्वाभिमानी हूँ, हर काम अपने दम पर करती हूँ | किस साहित्यिक परिवार से हूँ, उसका ज़िक्र भी कभी नहीं किया | कई पुस्तकें लिखने, 'हिन्दी चेतना' पत्रिका का संपादन करने और भारत की स्तरीय पत्र -पत्रिकाओं में छपने के उपरांत आज भी लगता है कि अभी तो कलम को माँज रही हूँ | साहित्य का समुद्र बहुत गहरा है, अभी तक घोघे- सिप्पियाँ ही हाथ लगे हैं, न जाने कितनी डुबकियाँ और लगानी पड़ेंगी हीरे जवाहरात ढूँढने के लिए और इस जन्म में ढूँढ भी पाऊँगी या नहीं, समय बताएगा |</div><div> लेखन के साथ -साथ एक सामाजिक एक्टिविस्ट भी हूँ | इसके बीज परिवार से मिले और मेरी मूल भूत प्रवृति ने इसे खाद -पानी दिया | माँ-बाप आज़ादी की लड़ाई में वर्षों जेलों में रहे | पापा वामपंथी विचारधारा के थे और माँ कट्टर कांग्रेसी | राजनीतिक विचारों में भिन्नता होते हुए भी समाज सेवा में वे दोनों एक थे | समाज की विद्रूपताओं और कुरीतियों के लिए जीवन की अंतिम साँस तक लड़ते रहे | विवाहोपरांत अमेरिका मेरी कर्म भूमि बना और भाषा, संस्कृति तथा महिलाओं के लिए अपने वैज्ञानिक पति डॉ. ओम ढींगरा के सहयोग से मैंने बहुत काम किया | </div><div> चिठ्ठा -लेखन को कम समय दे पाती हूँ | 'हिन्दी चेतना' के संपादन, नियमित स्तम्भ लेखन, कविता, कहानियाँ और लेख लिखने के उपरांत जो समय मिलता है, उसमें पढ़ती बहुत हूँ | </div><div> अब कुछ अंगूठियाँ अपनी संदूकची में वापिस रख रही हूँ | न जाने कब, कहाँ, किस मोड़ पर आपसे मुलाकात हो जाए तो ख़ाली हाथ न हूँ......</div><div><br /></div><div>http://www.vibhom.com/index1.html</div><div>http://www.vibhom.com/blogs/</div><div>http://www.shabdsudha.blogspot.com/</div><div>http://hindi-chetna.blogspot.com/</div><div>http://www.vibhom.com/hindi%20chetna.html</div></div><div><br /></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-73711156967707386022011-08-03T17:12:00.003+05:302011-08-03T17:20:32.304+05:30जिजीविषा की झलक - महेश्वरी कनेरी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiP-_l0zpk77miZqLSABedFmpF2oDLxj80CugDKlDvXOGN5A14XFO83DXY-eKD11rToc2K3HPkSldxbTGWlB1eXktWhZDOVf1tPBIRgniOE54-kNnAu3X__cvYX3SMI3hQv20vIvLd0FfXK/s1600/65827_102176333180897_100001655917864_13236_1871080_n.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 249px; height: 260px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiP-_l0zpk77miZqLSABedFmpF2oDLxj80CugDKlDvXOGN5A14XFO83DXY-eKD11rToc2K3HPkSldxbTGWlB1eXktWhZDOVf1tPBIRgniOE54-kNnAu3X__cvYX3SMI3hQv20vIvLd0FfXK/s320/65827_102176333180897_100001655917864_13236_1871080_n.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5636595770263059058" /></a><br /><div><br /></div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-size: 14px; line-height: 25px; "><div style="font-family: arial; ">ब्लॉग <b><a href="http://kaneriabhivainjana.blogspot.com/" target="_blank">http://<wbr>kaneriabhivainjana.blogspot.<wbr>com/</a> </b> पर <b>जिजीविषा की झलक</b> यूँ मिली - ,"पैतीस साल अध्यापन कार्य करने के बाद ,२००९ में जब मैं सेवानिवृत हुई। मुझे लगा ,मेरा जीवन कहीं रुक सा गया है ,मैं जैसे गति हीन होगई हूँ। मेरे पास करने को कुछ नया नहीं था । मुझे लगता था मैं अपनी पहचान खोने लगी हूँ । यही सब सोच- सोच मुझे डिप्रेशन सा होने लगा था।</div><div style="font-family: arial; ">तभी अचानक एक दिन गुगुल सर्च करते- करते एक हिन्दी ब्लॉग में जा पहुँची । मुझे मालूम था कि कुछ लोग ब्लॉग लिखा करते हैं, पर इस के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं थी । मुझे लगा… बस मुझे रास्ता मिल गया मुझे मेरी मंजिल मिल गई । </div><div style="font-family: arial; ">फिर डरते-डरते मैंने दिनांक ४.अप्रेल २०११ को अपना एक ब्लॉग खोल ही दिया।सब् से पहले माँ सरस्वती का एक सुन्दर सा चित्र लगा कर मैंने प्रथम पोस्ट का श्रीगणेश किया ।उसी दिन फिर एक लघु कविता “ ऋतुराजबसन्त” की दूसरी पोस्ट भी पब्लिश कर दी। ब्लॉग का ये अनुभव मेरे लिए जितना रोमांचकारी था उतना ही अनजाना और अनभिज्ञ भी ।"</div><div style="font-family: arial; ">खुद को वही दिशा दे पाते हैं , जिनमें हार मानने की प्रवृति नहीं होती .... कोशिशें उनकी ही रंग लाती हैं . प्रतिभाओं की कमी नहीं , पर खुद पे भरोसा नहीं .... महेश्वरी जी में प्रतिभाएं भी मैंने पायीं और जीवन को फिर से एक पहचान देने की उत्कंठा भी देखी , प्रकृति से खुद को जोड़ते हुए उन्होंने मन को पंख दिए - ' <b>रे मन, मुझे ले चल उस पार</b></div><div style="font-family: arial; "> <b>जहाँ स्वच्छंद प्रकृति राग सुनाए '</b></div><div style="font-family: arial; ">अपनी कलम में उन्होंने अपनी पहचान को गहन मायने दिए इन शब्दों में - <b>' मैं नारी हूं। नारी ह्रदय की वेदना और पीडा़ मुझ में भी है। लेकिन नारी होने पर मुझे गर्व है। मैं नारी मन की वेदना को अपने कलम में ढाल कर उस एहसास को एक नई सोच व नई दिशा देना चह्ती हूं । यही मेरा सपना है। शुरुवात नई है, शौक पुराना है मंजिल दूर है. रास्ता अंजाना है.”</b></div><div style="font-family: arial; "><b><br /></b></div><div style="font-family: arial; "><b>मुझे हमेशा ऐसे लोगों ने प्रभावित किया और मैंने बेझिझक उन्हें अपने ख़ास कैनवस पर चित्रित किया ...... महेश्वरी जी ने मेरे आगे आप तक पहुँचने के लिए कुछ इस तरह अपने को परिचय का परिधान दिया -</b></div><div style="font-family: arial; "><br /></div><div><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="font-family: Mangal, serif; "><span> </span></span><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">रश्मि प्रभा जी को बहुत-बहुत धन्यवाद उनके अनुकंपा से मै आप सब के सामने अपना ह्रदय खोल रही हूँ………………<span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="font-family: Mangal, serif; ">मै </span><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "> महेश्वरी कनेरी …</span><span style="font-family: Mangal, serif; ">एक साधारण परिवार में जन्मी चार बहनों और एक भाई में सबसे बडी़ हूँ । घर में बडी़ होने के कारण भाई बहनों के प्रति मेरी हमेशा से जिम्मेदारियाँ रही है। </span><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">मेरे पिता शिक्षा और अच्छे संस्कार पर बहुत ज़ोर दिया करते थे ।अपनी हैसियत के अनुसार हम सभी को उन्होंने अच्छी शिक्षा और अच्छे संस्कार दिए । मेरे</span><span style="font-family: Mangal, serif; "> पिता को मुझ से बहुत आशाएँ और उम्मीदें थीं मुझे हमेशा कहा करते थे “ बेटा ! तू मेरी बेटी नहीं बेटा है “</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: normal; "><span style="font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">बचपन से ही मैं बहुत ही संकोची तथा अन्तर्मुखी रही। अपनी मन की बात किसी से कहते घबराती ।बस मन में उठे हर भाव को काग़ज में उतारना अच्छा लगता था। लिखने का सिलसिला वही से शुरु हुआ ।</span><span style="font-family: Mangal, serif; ">बाबुल के आँगन में भाई बहनों के बीच कब और कैसे बचपन बीत गया और मैं </span><span style="font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">विवाह के बंधन में भी बँध गई </span><span style="font-family: Mangal, serif; ">पता ही नहीं चला ।</span><span style="font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; text-indent: 0.5in; line-height: normal; "><span style="font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">बचपन की एक घटना याद आरही है- जब मैं आठवी पास कर नौवी कक्षा में पहुँची तो मैं संगीत विषय लेना चाहती थी, क्यों कि मुझे संगीत से बहुत लगाव था । लेकिन पता नही क्यों अध्यापिका ने मुझे संगीत लेने ही नही दिया । औरों के मुकाबले मैं इतना बुरा भी नही गाती थी । ये बात मेरे मन को आहत कर गई ।मैंने उसी वक्त फैसला ले लिया कि मैं अपनी बेटी को संगीत जरुर सिखाऊँगी<span> </span>। विधि का विधान देखो आज मेरी बेटी रेडियो आर्टिस्ट होने के<span> </span>साथ- साथ हैदराबाद की जानी मानी गज़ल गायिकाओ मे से एक है ।कभी-कभी दुखी और अबोध मन से लिया, मासूम सा फैसला ईश्वर पूरा कर ही देते हैं।</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; text-indent: 0.5in; line-height: normal; "><span style="font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "><br /></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "><b><span> </span>सन१९७४ में अध्यापि्का के रुप में जब मेरी नियुक्ति केन्द्रीय विधालय में हुई मुझे लगा जैसे आज मेरे पंखो को परवाज़ मिल् गया । छोटे-छोटे बच्चों के बीच रह कर उनके मनोंभाव को समझते हुए उनके रुचि के अनुरुप कुछ गीत और काविताएं लिखने लगी “आओ मिलकर गायें गीत अनेक “ सन १९९४ में ये पुस्तक प्रकाशित हुई । सन१९९६ में गीत नाटिका का एक ओडियो कैसेट निकाला जिसमें छह गीतों भरी कहनियां हैं. सन १९९४ मे मुझे प्रोत्साहन पुरस्कार तथा २००० में राष्ट्र्पति पुरस्कार से सम्मानित कियागया । सन २००९ में सेवानिवृति के बाद ईश्वर की कृपा और आप लोगों की अनुकंपा से मैं फिर से लिखने का प्रयास कर रही हूं ।</b></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "><b>जुनून और कुछ् कर गुजरने की चाहत मनुष्य को हमेशा आगे बढ़ाता है। सच्चे मन से किया जाने वाले हर कार्य में ईश्वर का निवास होता है,येसा मेरा विश्वास है । मै सफल हूँ या नहीं लेकिन सन्तुष्ट जरूर हूँ ।</b></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "><span><b> <wbr> </b> </span> …</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); "> </span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="color: rgb(51, 51, 51); font-family: Mangal, serif; line-height: 16px; ">घबराते- घबराते गिरते पड़्ते हम चले डरते-डरते</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">सोचते थे मंजिल मिलेगी भी या नही</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">तभी हौंसले ने अंगुली थामी ,विश्वास ने सहारा दिया</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">और हम चल पड़े, चलते रहे और चलते रहेंगे <span> </span></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">क्योंकि आप सब का विश्वास हमारे साथ है</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span style="line-height: 16px; ">..............................<wbr>...</span></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">पंख होने से क्या होता है,हौसलो में उड़ान होती है</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span style="line-height: 16px; font-family: Mangal, serif; color: rgb(51, 51, 51); ">जीत उसकी होती है,जिसके सपनों में जान होती है</span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><br /></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; ">सच है... इस सच्चाई की जीती जागती तस्वीर है ये -</p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><br /></p><p class="MsoNormal" style="font-family: arial; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><b>राष्ट्रपति पुरस्कार </b></span></p></div></span></div><div><br /></div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_fXzcDEbYucZ86zsX5UNIu9DkbJg0vQAYX_4vTqwRZr4XkQVmuwUNAtPDS69n1T8qo7hRqXRYARHXdj__pHegVgOzOIFqKhCxCDb7iz32iJ6eI385qI8tzcwjUf6AjngBIg0yAJnXgp7v/s1600/DSC04820.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 240px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_fXzcDEbYucZ86zsX5UNIu9DkbJg0vQAYX_4vTqwRZr4XkQVmuwUNAtPDS69n1T8qo7hRqXRYARHXdj__pHegVgOzOIFqKhCxCDb7iz32iJ6eI385qI8tzcwjUf6AjngBIg0yAJnXgp7v/s320/DSC04820.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5636595465210891762" /></a><br /><div><br /></div><div><br /></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-71524815372649020372011-08-02T19:40:00.001+05:302011-08-02T19:41:36.619+05:30कभी झरना , कभी बादल - सोनल रस्तोगी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKvSu9IgnJZ3lFOfw_zHalEA9oAv5BppH-gQKcdhqyRTqZ4a6sgN9BH3g1ZPiu6jyRkYL6rfu-Zv4PNIZhiPNrTJPgTVAGqLvqXg3MjtmoUxqltySRznr9eOxYIgfFpP-ToINtNJ7Y2NQn/s1600/259040_179527555436340_100001372903897_412277_6471358_o.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 275px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKvSu9IgnJZ3lFOfw_zHalEA9oAv5BppH-gQKcdhqyRTqZ4a6sgN9BH3g1ZPiu6jyRkYL6rfu-Zv4PNIZhiPNrTJPgTVAGqLvqXg3MjtmoUxqltySRznr9eOxYIgfFpP-ToINtNJ7Y2NQn/s320/259040_179527555436340_100001372903897_412277_6471358_o.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5636261049384137058" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><div class="gmail_quote" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; ">सोनल रस्तोगी कहते कुछ सरसराते शब्द मेरा हाथ पकड़ लेते हैं - '<span style="font-size: small; "><b>जब भी खुद को शायरा,लेखिका और बुद्धिजीवी समझती हूँ नींद खुल जाती है'</b> और मैं हंसकर कहती हूँ -' <b>और तब तुम कलम उठा लेती हो, है न !' </b></span></div><div class="gmail_quote" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><span style="font-size: small; ">कभी झरना , कभी बादल , कभी बारिश की बूंदें , कभी प्यार का अलाव .... क्या नहीं लगती सोनल . चेहरे पर एक शरारत जो कहती है - '<b> ज़िन्दगी तो यूँ हीं बड़ी गंभीर हुआ करती है , अभी ज़रा मुस्कुरा लेते है ... बड़ी फुर्सत से धूप निकली है</b> ! '</span></div><div class="gmail_quote" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><span style="font-size: small; ">इनका ब्लॉग है - </span><span style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; border-collapse: separate; "><a href="http://sonal-rastogi.blogspot.com/" target="_blank">http://sonal-rastogi.<wbr>blogspot.com/</a> जहाँ इनकी सादगी, शरारत , और गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है . बिना मिले समझने का इससे बेहतर जरिया और क्या होगा , और मेरी कलम से अपनी कलम की आवाज़ मिलाकर तो इस जानकारी को और सुगम बना दिया है .... कहने को तो है यूँ बहुत सी बातें , पर अभी इतना ही सही ....</span></div><div class="gmail_quote" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><span style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; border-collapse: separate; "><br /></span></div><div class="gmail_quote" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><span style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; border-collapse: separate; "><b>चिट सामने है सोनल जी की फिर देर क्यूँ - </b></span></div><div class="gmail_quote"><span ><span style="border-collapse: collapse; ">अपने परिचय की चिट धीरे से आप तक बढ़ा रही हूँ बिलकुल वैसे ही जसे कोई चुपके से ख़त दरवाजे के नीचे से बढ़ा जाता है , फर्रुखाबाद में जन्मी परिवार की पहली बेटी लाड ढेर सारा ,ढेर सारे रिश्तों से घिरी,बेहद बातूनी ,हद दर्जे की शैतान माँ कहती है जब तक पढ़ना नहीं आया था तबतक ,फिर किताबों में ऐसी डूबी की आज तक नशा कायम है ,लिखने की शुरुवात स्कूल में लोकगीत की तुकबन्दिया भिडाने से शुरू हुई ,फिर गांधी जयंती ,रक्तदान ,नेत्रदान ,प्रदूषण हर सामाजिक विषय पर लिखा नाटक ,एकांकी सब लिखवाया मेरी अध्यापिकाओ ने और माँ सरस्वती के आशीष नें ही आम से ख़ास महसूस करवाया , इसी दौर में बालहंस में अपनी कहानी परिचय के साथ भेजी जो बाल प्रतिभा विशेषांक में छपी,फिर क्या था खाली लिफाफे और टिकेट मिल गए खूब लिखो और भेजो मनीआर्डर की रसीदे आज तक सहेजी है अपर किताबें ना सहेज पाई ,अनमोल है ना .....</span></span><br /><span ><span style="border-collapse: collapse; ">हर बार प्रोत्साहन मिला,वाद विवाद प्रतियोगिता ,नृत्य हर विधा का आनंद लिया ,खेलों में फिसड्डी थी हूँ और रहूंगी ,समय के साथ डायरी भरती गई 12th तक हर विषय पर लिखा ..लोगों के प्रेम पत्रों के लिए शायरी भी लिखी,समय बदला परिस्थितिया बदली पढ़ाई के बोझ के तले कविता कहानियाँ सब खो गई बहित बड़ा शून्य आ गया लेखन में,आगे बढना था ढेर सारी पढ़ाई, होने वाले जीवन साथी से जब मिली तो उनका मन भी एक कविता ने चुराया </span></span><br /><span ><span style="border-collapse: collapse; ">"</span></span><b style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; ">आज दिल ने चाहा बहुत अपना भी हमसफ़र होता<br />जिससे कहते हालात दिल के जिसके काँधे पर अपना सर होता ..... (बाकी फिर कभी )"</b><br /><span ><span style="border-collapse: collapse; ">भावनाएं उमड़ी और दिल से फिर फूट पड़ी कविता कहानिया, फर्रुखाबाद ..लखनऊ...मेरठ ...गुडगाँव . शहर बड़े होते गए और मैं इनके साथ बदलती गई, नया रिश्ता , नया शहर और ढेर सारा आत्मविश्वास और सहयोग. बस एक देसीपन आज तक वैसा ही है .. . ब्लॉग्गिंग से परिचय मेरे देवर डा. अंकुर ने करवाया </span></span><a href="http://gubaar-e-dil.blogspot.com/" target="_blank" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; color: rgb(0, 0, 204); ">http://gubaar-e-dil.<wbr>blogspot.com/</a><span ><span style="border-collapse: collapse; "> तब से जो पंख लगे आज तक उड़ रही हूँ, एक दिन रविश जी ने मेरे ब्लॉग को अपने कॉलम में जगह क्या दी तब से मेरी दुनिया बहुत बड़ी हो गई और प्यारी भी , रचनाओ को पाठक मिले और मुझे पढने के लिए ढेर सारी सामग्री, सच में यहाँ मैं सिर्फ मैं हूँ बेहद सुकून मिलता है.</span></span><br /><span ><span style="border-collapse: collapse; ">अभी तो घुटुनो के बल हूँ ,धीरे-धीरे चलूंगी पर दौड़ना नहीं है मुझे, ज़िन्दगी स्लो मोशन में ही भाती है सब देखना है मुझे .</span></span><br /><span ><span style="border-collapse: collapse; ">क्या पता किसी दिन ब्लॉग से अखबार और अखबार से किताब की शक्ल ले लूँ ... </span></span><br /><span style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><br /></span></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-86157038477771389542011-07-30T15:57:00.001+05:302011-07-30T15:59:25.550+05:30एक गहरा वजूद - असीमा भट्ट<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1PH9q1CRvNvfhWUoRjBixENgiCxZIi8S9gQeR9DMo8Wi4Qbpe07VRhYdLeKaxDUxsq6Py_RvfZz-7dNl8t_PMHNfmXpwhvF1nE2LUAuJE-3MUQf_63nb0xSZD3uk24tbfx-Z47yA26V7L/s1600/263583_1963129031610_1044362596_1740820_5826200_n.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 203px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1PH9q1CRvNvfhWUoRjBixENgiCxZIi8S9gQeR9DMo8Wi4Qbpe07VRhYdLeKaxDUxsq6Py_RvfZz-7dNl8t_PMHNfmXpwhvF1nE2LUAuJE-3MUQf_63nb0xSZD3uk24tbfx-Z47yA26V7L/s320/263583_1963129031610_1044362596_1740820_5826200_n.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5635090539164289666" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">ब्लॉग की दुनिया बहुत बड़ी है ... हर बार घूमते हुए यह गीत होठों पर काँपता है , '<b>इतना बड़ा है ये दुनिया का मेला , कोई कहीं पे ज़रूर है तेरा </b>' शब्दों का रिश्ता बनाने के लिए <span style="font-size: small; ">मानस के रश्मि ज्वलित जल से</span></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><span style="font-size: small; ">मैं शब्द शब्द में तैरती भावनाओं का अभिषेक करती हूँ , तन्मयता से मोती चुनती हूँ - हर किसी का अपना एक गहरा वजूद है , अपना अकेलापन और अकेलेपन में निखरी ज़िन्दगी है . उड़ान में कभी मैं दस्तक देती हूँ , कभी सामनेवाला - फिर कहते सुनते पढ़ते जीवन के पार छुपे वे तार दिखने लगते हैं , जिन पर उंगलिया रखो तो वे कभी एथेंस का सत्यार्थी के गीत गाती है, कभी बुद्ध, कभी यशोधरा , कभी कोलंबस, कभी आम्रपाली , कभी नीर भरी दुःख की बदली .... अनंत परिभाषाएं , अनंत अनुकरणीय कदम !</span></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><span style="font-size: small; ">पौ फटते अपनी दिनचर्या के बीच मैं एक अनंत यात्रा करती हूँ , और किसी दहलीज पर रुक जाती हूँ . फिर उस दहलीज से सोंधे एहसास , सोंधे आंसू, सोंधे सोंधे सपनों की खुशबू और हौसले ले आती हूँ ताकि जब कभी साँसें लड़खड़ाने लगें तो किसी पन्ने को आप अपना आदर्श बना लें !</span></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><span style="font-size: small; ">कुछ ऐसा ही एक आधार हैं <b>असीमा भट्ट </b>, जिनकी दहलीज से मैंने उनकी पहचान को उनके शब्दों में ढूंढा - <b>" मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”</b></span></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">और स्वतः मेरी हथेलियाँ उनके मन के दरवाज़े पर दस्तकें देने को आतुर हो गईं और बड़ी मीठी सी मुस्कान लिए द्वार खुले , ----- जिनकी मासूमियत से हवाएं अपना रूख बदलती हैं , वे अनजाने उन्हें जिद्दी बना जाती हैं और यही जिद्द खुद के साथ होड़ लेती हवाओं को अपना हमसफ़र बना लेती हैं . नहीं इंतज़ार होता उन्हें किसी से सुनने का ' यू आर द बेस्ट ' , क्योंकि विपरीत परिस्थितियाँ उनका स्वर बन जाती हैं - ' आय एम द बेस्ट !' </div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b><br /></b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b>अब आगे असीमा जी के साथ बढ़ते हैं . समय की अफरातफरी और खुली ज़िन्दगी के संजोये पलों में असीमा जी समझ नहीं पा रही थीं कि क्या लिखा जाए , फिर मैंने उनके पास अपने प्रश्न रख दिए जिनके जवाब उनका परिचय बन गए </b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b><br /></b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b><br /></b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">सबसे पहले धन्यवाद मुझ नाचीज को इतनी इज्ज़त देने के लिए .तो सुनिए ........</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "> मेरा बचपन फ़ुल ऑफ़ लाइफ था . नाना जी ज़मींदार थे , दादा जी बहुत ही प्रतिष्ठित डॉक्टर और सिनेमा हॉल के मालिक थे . और पिता जी BHU (बनारस हिन्दू युनिवेर्सिटी ) के स्टुडेंट थे जो बाद में स्टुडेंट मूवमेंट में शामिल हो गए . मैं तीन बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी थी . जब मैं छोटी थी पिता जी ने घर छोड़ दिया . कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाईमर हो गए . माँ को बहुत दुःख हुआ था . सदमे में वो मुझे मारती थीं क्योंकि मैं पिता की कट्टर पक्षधर (पिता जी को बहुत प्यार और रेस्पेक्ट देती थी ) . इसलिए माँ को बुरा लगता था और अपना गुस्सा मुझपर उतारती थीं . और शायद इसलिए भी कि शायद मैं बचपन में बहुत चंचल थी . बहुत शैतानियाँ करती थी . जो कि मेरा एक लड़की होने के नाते माँ को गवारा नहीं था . बस खूब पिटाई होती थी और मैं फिर भी शैतानियाँ करती थीं . शायद यही वो वजह है कि मैं जिद्दी हो गई .</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">अपने पिता के बारे में कहूँ तो हमेशा मुझे उनकी बात अच्छी ही लगी . तब भी अच्छा लगता था , कभी बुरा नहीं लगा . कभी उपेक्षित नहीं महसूस किया . हमेशा प्राउड फील होता था . मुझे बचपन का एक वाकया याद आता है . एक बार मुझे स्कूल में कल्चरल प्रोग्राम में फर्स्ट आने के लिए पुरस्कार मिला था . पुरस्कार वहाँ के D.M. दे रहे थे , उन्होंने पुरस्कार देते हुए मुझसे पूछा -"तुम्हारे पापा का नाम क्या है ? मैंने कहा - श्री सुरेश भट्ट , वो बोले - अच्छा , तो तुम 'भट्ट जी ' की बेटी हो , वाह "</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">मैंने यह बात घर आकर पिता जी को बताया कि - DM ने यह कहा कि आप 'भट्ट जी ' की बेटी हो - वाह !'</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">पापा बोले - मुझे उस दिन ख़ुशी होगी जब लोग कहेंगे कि मुझसे - ' क्रांति भट्ट (वो मुझे क्रांति ही बुलाते थे ) के पिता हो .वाह !'</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">मैंने अपनी जिंदगी को नहीं ढाला, बस खुद ब खुद ढलता चला गया . "अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं , रुख हवाओं का जिधर का है , उधर के हम हैं .</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">मुझे महात्मा बुद्ध की तरह दिखाई देते हैं अपने पापा (बुद्ध की तरह ही वे हमें बचपन में छोड़ कर समाज सेवा के लिए चले गए थे ) , बातें भी उन्हीं की तरह करते . मुझे याद है , जब मैं बच्ची थी मेरे पापा नक्सलाईट थे , वो कहा करते थे - "हम नक्सलाईट लोग हैं , गोली पहले चलाते हैं सोचते बाद में हैं ." आज वही इन्सान कहते हैं - "हिंसा से कुछ भी हासिल नहीं होगा . हिंसा किसी समस्या का हल नहीं ."</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "> मैं फिल्म में कहाँ आना चाहती थी . बहुत ही ओर्थोडोक्स फैमिली में थी , वहाँ ऐसी बातें सोचना भी गुनाह था . मैं पता नहीं कैसे आ गई . आज भी यह एक पहेली सा लगता है कि मैं कैसे यहाँ तक आ गई ! <b>Its all destiny </b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b><br /></b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b> </b>जिंदगी मेरे लिए एक इम्तहान है . मैं रोज़ एक प्रश्न -पत्र हल करती हूँ . रोज़ इम्तहान देती हूँ और हाँ रोज़ पास होती हूँ </div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "> लेखन से भी कैसे जुड़ी , यह भी ठीक से याद नहीं . शायद पापा की किताबें पढ़ने की आदत मेरे अन्दर आई . शायद इसीलिए थोड़ा बहुत लिख लेती थी . फिर जब मैं पटना आई तो सर्वाइवल के लिए मुझे न्यूज़ पेपर में काम करना पड़ा . और ऐसे लिखना पेशा बन गया ...</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><br /></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">जिंदगी से मुझे कोई शिकायत - नहीं . कुछ भी नहीं . <b>I love it. My life is beautifull.</b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><b><br /></b></div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "> बहुत कुछ खोया है .... बहुत कुछ पाया है . अब तो बात जिद्द पे आ गई है - <b>अब तो जिंदगी से सूद समेत वापस लेना है और उसे भी देना पड़ेगा </b>.</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "> </div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; ">आखिर में इतना ही कहूँगी - मुश्किलें पड़ीं मुझ पे इतनी कि ज़िन्दगी आसान हो गई ....</div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "> </div><div style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><a href="http://asimabhatt.blogspot.com/" target="_blank">http://asimabhatt.blogspot.<wbr>com/</a></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-47366143827714178972011-07-29T14:38:00.002+05:302011-07-29T14:43:21.238+05:30अनकहा कहा - मीनाक्षी धन्वन्तरी<div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><b>(नोट - अस्वस्थता की वजह से मेरी कलम रुक गई थी , अभी भी मध्यांतर का आलम होगा .... पर कलम चलेगी )</b></span></div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgG1KX8ARIt21sGSpnu67M91WH4pqVtxX_PzwBIvnNJYk-saEXulr1IP9WS6vb_8rBgj1KW478NGmFnuubDZmaoqQ-l3icPVBxSC7qThBWfFH-oqEIs6P1XOQ7H1Ihro4_JG4dFmZZNPU_z/s1600/187076_576665146_41371_n.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 180px; height: 146px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgG1KX8ARIt21sGSpnu67M91WH4pqVtxX_PzwBIvnNJYk-saEXulr1IP9WS6vb_8rBgj1KW478NGmFnuubDZmaoqQ-l3icPVBxSC7qThBWfFH-oqEIs6P1XOQ7H1Ihro4_JG4dFmZZNPU_z/s320/187076_576665146_41371_n.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5634699531563002994" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div><span ><span style="line-height: normal; "><b>कितना कुछ अनकहा कहा होता है</b> , जो कभी पत्तियों से ओस बन सरकता है , कभी चिड़ियों की उड़ान में गगन का विस्तार नापता है , कभी किसी की सिसकी में अपनी ज़िन्दगी के इक लम्हें को पाता है , कभी सन्नाटे में एक मुस्कान रख देता है , फिर अचानक बिल्कुल अचानक अपनी डायरी के पन्नों में उसे समेट बन्द कर देता है उस कमरे में - जहाँ हर ताखे पर यादों की एक सिहरती पोटली होती है ....... ऐसा ही लगा जब अपनी यात्रा के दौरान मैं मीनाक्षी जी के ब्लॉग </span></span><a href="http://meenakshi-meenu.blogspot.com/" target="_blank"><b>http://meenakshi-meenu.<wbr>blogspot.com/</b></a> <span style="font-size: small; line-height: normal; ">पर रुकी ..... उनकी रचना ' मेरे पास एक लम्हा है ' एक लम्हें की मानिंद मेरी दोस्त बन गई ... हर एक कदम पर महसूस हुआ , <b>यह पहचान आज की नहीं ... कुछ है जो दोनों के मध्य सरस्वती की तरह प्रवाहित है .</b></span></div><div><span style="font-size: small; line-height: normal; "><b><br /></b></span></div><div><span style="font-size: small; line-height: normal; ">कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते हैं , दो आँखें होती हैं - जिनसे आंसू अनजाने छलक उठते हैं , दो पाँव होते हैं - जिनके छालों से रास्तों की पहचान मिलती है , और होती है एक सहज मुस्कान जिसकी व्याख्या नहीं होती ...</span></div><div><span style="font-size: small; line-height: normal; "><br /></span></div><div><span style="font-size: small; line-height: normal; "><b>चलिए अनकहे कहे से कुछ सुनें -</b></span></div><div><br /></div><div>कितने दिनों से टलता आ रहा सीधा सादा सा परिचय आज कुछ हिम्मत करके एक कदम आगे बढ़ा ....यह सोच कर कि रश्मिजी की क़लम राह चलते चलते अपने हुनर से उसे सँवार ही देगी.... </div><div>“जब से होश सँभाला प्रेम को ही सत्य माना...इसलिए ब्लॉग का नाम भी रखा ‘प्रेम ही सत्य है’” बचपन से ही प्रकृति और मानव में एक दूसरे की छाया मन को आकर्षित करती...वही जाने अंजाने लेखन में झलक जाता..इसी से जुड़ी एक घटना का ज़िक्र ज़रूरी लगता है...सातवीं कक्षा में हिन्दी टीचर ने प्रात:काल पर एक लेख लिखने को कहा...चहचहाती चिड़ियाँ लगी थीं देश के भूखे बच्चे जो रोते हैं एक निवाले के लिए...या शायद बिन माँ के बच्चे माँ के आँचल के लिए... बस फिर क्या था फौरन मम्मी डैडी की पेशी हुई कि शायद घर में कुछ अनहोनी न हुई हो...उसके बाद से लेखन जारी रहा लेकिन डायरी के पन्नों में कैद रहा...मुक्त हुआ तो <b>2007 में..डायरी के पन्नों से उतरा ब्लॉग़ पर</b>....</div><div>अपने जीवन के बारे में क्या कहूँ...आम जीवन है लेकिन खास भी है....जिससे हर पल कुछ न कुछ नया सीखा... जन्म लेते ही दादी के रोने का सबब बनी लेकिन डैडी ने गोद में लेते ही कहा कि यह तो मेरी मीठी मधु है...बहेगी हमारे घर में महकती हुई मधु की धार और फिर छोटी बहन बेला भी आ गई.....दोनो बहनें जहाँ मम्मी डैडी और ननिहाल की लाडली थीं वहीं ददिहाल में एक आँख न देखी जातीं...फिर भी हमें दादी बहुत प्यारी लगतीं... शायद मम्मी के संस्कार थे जिन्होंने दादी की झिड़की को भी प्यार समझने की नसीहत दी. </div><div>ग्यारह साल की हुई तो घर में नन्हा सा चाँद उतरा....सबकी आँखों का तारा खासकर मम्मी डैडी के लिए तो वह तोता था जिसमें उनकी जान बसती फिर भी हम दोनों को कभी न लगता कि तीनों में कोई भेदभाव किया जाता है... सब को बराबर का प्यार और दुलार मिलता....शायद उसी कारण तीनों भाई बहन आज तक एक दूसरे के लिए कुछ भी करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं... </div><div>लड़की लड़के कोई भेदभाव ही नहीं था...कोई रोक टोक नही थी... इसलिए शायद आज़ादी मिलने पर भी उसका कभी फायदा नहीं उठाया हाँ मस्ती ज़रूर की...गर्मी की जिन छुट्टियों में ननिहाल या कुल्लू मौसी के पास न जा पाते तब मुझे अकेले ही जहाँ मैं जाना चाहती भेज दिया जाता...आठवीं में पहली बार अम्बाला अकेली गई थी...आज भी याद है जब बस से उतर कर घर जाने के लिए रिक्शे वाले का चेहरा पढ़कर रिक्शे पर बैठी थी...फिर भी सतर्क थी कि अगर वह किसी गलत गली में मुड़ा तो उसके सिर पर ब्रीफकेस दे मारूँगी...दसवीं के बाद अकेले कश्मीर जाने का अनुभव तो और भी दिलचस्प था...</div><div>दिल्ली में जन्मी पली-बढ़ी...स्कूल और कॉलेज खत्म हुआ तो.....बस यहीं ज़िन्दगी कुछ अटक गई या बहक गई...चार साल तक आवारा मस्त हवा की तरह बिना किसी लक्ष्य के बहती रही..... अपने मौसेरे भाई के ऑफिस में एक साल रिसेप्शनिस्ट की नौकरी की जहाँ मौसी से बहुत कुछ सीखा...उनकी एक बात को आज तक गाँठ बाँध कर रखा है.....”अपेक्षाओं की अति हमेशा दुख देती हैं... चाहे वे अपने से हों या अपनों से” उसके बाद पत्राचार से हिन्दी में एम.ए. किया.... उस दौरान जाना कि भाषाएँ जीवन में कितना महत्व रखती हैं...भाषाएँ भावनाओं को पुष्ट करती हैं... एक अच्छा डॉक्टर या इंजिनियर बनने के लिए अगर उनसे जुड़े विषय पढ़ने जरूरी होते हैं तो भाषा एक अच्छा इंसान बनाने में मदद करती है...और फिर एक अच्छा इंसान ही जीवन में आगे बढ़ सकता है......</div><div>अपनी सुरक्षा के लिए जूडो कराटे सीखने के लिए भेजा गया...उस कला का सही वक्त पर इस्तेमाल हो इसके लिए योग करने मानतलाई गई....मम्मी को मेरी लक्ष्यहीन ज़िन्दगी पसन्द नहीं थी, वे चाहती थीं कि अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कुछ करूँ... इधर डैडी की शय पाकर मैं अपने में मस्त बेफिक्र जीती रही....समाज और परिवार की तरफ से इशारा मिलते ही उस मस्ती पर रोक लगानी पड़ी...कानून और राजनिति की पढ़ाई बीच में ही छूट गई और शादी हो गई..... </div><div>ज़िन्दगी का आधा शतक पार करने पर बैठी सोच रही हूँ कि जितना विश्वास और आज़ादी का वातावरण माता-पिता के घर था उससे कहीं ज़्यादा पति के घर में पाया.....शादी के बाद रियाद आकर ज़िन्दगी ने नई करवट ली....दोनों बेटों के साथ हमने भी स्कूल में दाख़िला ले लिया हिन्दी अध्यापिका के रूप में....उस वक्त का वह निर्णय मेरी ज़िन्दगी का बेहतरीन फैंसला था..... ज़िन्दगी मेरी गुरु थी उसी के अनुभवों को बाँटने लगी स्कूल के बच्चों में... </div><div>जहाँ तक लेखन की बात है वह तो बचपन से साथ था जो अब तक है...रियाद और दुबई में पढ़ाते हुए डायरी, लेख, कविता और कहानी ने एक नया रूप पाया छोटे छोटे एकांकी और नाटकों के रूप में...बच्चों के साथ लिखना पढ़ना और भी बढ़ गया...स्कूल मेग्ज़ीन में हिन्दी सम्पादन के दौरान बच्चों की हिन्दी में लिखी रचनाएँ मन खुश कर देतीं...स्कूल कॉलेज के कई बच्चे आज भी हिन्दी सीखना पढ़ना चाहते हैं,,,गीत गज़ल और नाटक का मंचन करना चाहते हैं लेकिन......... इस लेकिन का जवाब आपको ढूँढना है...!! </div><div><b><br /></b></div><div><div><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>मेरा परिचय चाहा आपने इसका आभार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>कोशिश करके देती हूँ इसे कुछ आकार...</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>न मैं रचनाकार नामी, न कोई साहित्यकार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>हूँ बस एक आम साधारण सी चिट्ठाकार ...</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>जो भी है सब कुछ है अपना घर परिवार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>होती हैं इनमें छोटी छोटी खुशियाँ साकार ....</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>चिट्ठा ‘प्रेम ही सत्य’ करता सबका सत्कार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>स्वागत करता, नहीं किसी को देता दुत्कार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>सरल सहज सा लिखती, हूँ ऐसी कर्मकार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>है मेरा लेखन सादा, है सादा ही व्यवहार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>यहाँ सभी हैं एक से बढ़कर एक कलाकार</b></span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b>उन सभी को मेरा प्यार भरा नमस्कार </b></span></span></span></p></div></div><div><span ><span ><span style="border-collapse: collapse; line-height: 14px; "><b><br /></b></span></span></span></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-38698142927942729092011-07-13T16:27:00.003+05:302011-07-13T17:01:49.908+05:30जहाँ गई नज़रें , भाव उमड़े (निलेश माथुर)<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzAwQJk-G072dDi9fSnnUG-9WMduKUgW4shcQDfajT2216V3SCXqiVUSDko41sIMvLVCRnNXem1xXHOCTHgc5JJTn1PMR85q8SywgoNU6IDcrjqrHz_3Y-N7fiSjds-v_YPZYDJPc2Kp88/s1600/206713_202902023065808_100000380345546_604269_5950851_n.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzAwQJk-G072dDi9fSnnUG-9WMduKUgW4shcQDfajT2216V3SCXqiVUSDko41sIMvLVCRnNXem1xXHOCTHgc5JJTn1PMR85q8SywgoNU6IDcrjqrHz_3Y-N7fiSjds-v_YPZYDJPc2Kp88/s320/206713_202902023065808_100000380345546_604269_5950851_n.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5628795511266807426" /></a><div><span class="Apple-style-span" style="line-height: 25px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: normal; "><div><span class="Apple-style-span"><br /><div style="font-family: arial; font-size: small; "><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div></span></div></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; line-height: normal; "><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">निलेश माथुर , ब्लॉग - <b><a href="http://mathurnilesh.blogspot.com/" target="_blank">http://mathurnilesh.<wbr>blogspot.com/</a></b> , मुझे इस ब्लॉग से मिलना बहुत अच्छा लगा . रोज़मर्रा की जुड़ी चीजें .... निलेश जी ने सबको शब्द दिए ... फूलदान, मेरी कमीज ,मेरी पतलून ,मेरा जूता, मेरा ट्रांजिस्टर, ..... आपने पढ़ा है ? इसे कहते हैं , जहाँ गई नज़रें , भाव उमड़े और शब्दों ने उनको जीवंत कर दिया . चलिए एक पढ़वा ही दूँ , जिसने नहीं पढ़ा हो , वे भी मेरी तरह मिलकर खुश हो जाएँ <b>- <a href="http://mathurnilesh.blogspot.com/2010/04/blog-post_21.html" target="_blank">http://mathurnilesh.<wbr>blogspot.com/2010/04/blog-<wbr>post_21.html</a> </b>.<div>मैं आज भी उनको नियम से पढ़ती हूँ , पर ब्लॉग पर जाने से पहले ये सारे प्रसंग मुझे याद आ जाते हैं और धीरे से मैं ढूंढती हूँ - कमरे का आईना , रेत के कण, बारिश की बूंदें , बेतरतीब ज़िन्दगी, सोचती ज़िन्दगी .......</div></span><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 14px; line-height: 25px; "><br /></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div>परिचय लिखने से पूर्व मैंने हर शख्स का परिचय पढ़ा , निलेश जी ने जब दीदी संबोधन के साथ अपना परिचय मुझे दिया तो इस संबोधन ने तो मुझे अभिभूत किया ही , निलेश जी के सच ने मुझे सुकून दिया .... सच कहने का साहस तो दूर की बात है, मन से भी कोई स्वीकार कर ले तो बड़ी बात है . निलेश जी ने परिचय भेजते हुए लिखा -<b> दीदी, मेरी बचपन से अब तक की यात्रा शायद आपको अच्छी नहीं लगेगी लेकिन संक्षेप में सब सच सच लिख रहा हूँ ! इस सच ने </b>निलेश जी को मेरी नज़रों में और ऊँचा कर दिया </div></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div> . मैंने अपनी ज़िन्दगी में सच का सम्मान किया है . इस सच के निकट अपनी माँ (श्रीमती सरस्वती प्रसाद ) की लिखित पंक्तियाँ याद आ गईं -</div><div><br /></div><div><div style="line-height: normal; font-size: small; "><b>'दर्द मेरे गान बन जा</b></div><div style="line-height: normal; font-size: small; "><b>सुन जिसे धरती की छाती हिल पड़े</b></div><div style="line-height: normal; font-size: small; "><div><b>वज्र सा निर्मम जगत ये खिल पड़े</b></div><div><b>लाज रखकर ह्रदय की ऊँची इमारत का</b></div><div><b>मेरा सम्मान बन जा</b></div><div><b>दर्द मेरे गान बन जा ....'</b></div></div><div style="line-height: normal; font-size: small; "><br /></div><div style="line-height: normal; font-size: small; ">आइये निलेश जी के सच से मिलिए -</div><div style="line-height: normal; font-size: small; "><br /></div><div><div><span><span style="line-height: normal; ">पिता जी गांधीवादी अध्यापक थे और वो मुझे पढा लिखा कर डाक्टर इंजीनिअर कुछ बनाना चाहते थे, लेकिन मैं दोस्तों के साथ मिल कर शराब पीने और गुंडागर्दी करने में ही लगा रहता था, और बहुत पैसे कमाने का भूत भी सवार था, कभी कभी सोचता था कि मुंबई जा कर डी कंपनी में भर्ती हो जाऊ, पिता जी को सब जगह मेरी वजह से शर्मिंदा होना पड़ता था, कभी कभी गुस्से में वो मेरी पिटाई भी कर देते थे, एक बार मैंने एक दुकान में तोड़फोड़ कर दी, मुझे पता नहीं था कि दुकान का मालिक मेरे पिता जी का परिचित है, जब उसने मुझसे ये कहा तो मैं बहुत शर्मिंदा हुआ, इसी तरह दिन बीतते रहे, इस बीच मेरे कुछ दोस्त जेल की हवा खा रहे थे, मैं किस्मत से बचा हुआ था, पिता जी मुझसे परेशान मैं उनसे परेशान, इसी बीच मेरे मामा जी जो गुवाहाटी में रहते हैं वो मुझे बोले कि मेरे साथ गुवाहाटी चलो तब मैंने सोचा यहाँ रहकर मैं कुछ कर नहीं पाउँगा और मैं गुवाहाटी चला आया, जिस समय हम अपने नौकर को 1000 रूपया तनख्वाह देते थे मैंने यहाँ आ कर 800 रुपये महीने में सुरुआत की और 6 साल नौकरी की 6 साल बाद मेरी तनख्वाह थी 4000 रुपये, बांस के बने घर में बहुत दिन रहा सालों कुँए पर नहाया, जिद्दी तो शुरू से था 1997 में एक छोटी सी बात पर गुस्सा हो कर काम छोड़ कर चल दिया, एक पैसा जेब में नहीं था, अपने घर वालों को मैंने कभी अपनी ये स्थिति नहीं बताई, मैं नहीं चाहता था की मेरे लिए वो लोग चिंतित हों, दोस्तों से उधार ले कर किसी तरह 6-8 महीने बिताये और वो जीवन का बहुत ही बुरा वक़्त था, मेरे एक घनिष्ठ जो कि बहुत पैसे वाले थे उन्होंने उस समय मुझे 2000 रुपये उधार देने से मना कर दिया था, ये अलग बात है कि आज वो दस लाख भी देने को तैयार हैं, लेकिन फिर धीरे धीरे छोटा मोटा व्यवसाय करने लगा, जीवन में बहुत संघर्ष किया लेकिन आज इस लायक बन चुका हूँ कि अपना घर परिवार ठीक से चला रहा हूँ, और किसी भी ज़रूरतमंद के लिए सदा हाज़िर रहता हूँ, वो कहते हैं ना कि जिस पेड़ की जड़ें मजबूत होती है वो तूफ़ान में भी डटा रहता है, तो मेरी भी जड़ें शायद मजबूत हैं और संस्कारों ने मुझे कभी गिरने नहीं दिया, वक़्त के साथ साथ सोच बदलती गयी, अब सिर्फ एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश में हूँ, लिखने का शौक तो बचपन से ही था, थोड़े बहुत गुण पिता से भी तो आते हैं!</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">ख्वाब देखने में</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">और जीने की जद्दोजहद में</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">कब बीत गयी ज़िन्दगी</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">पता ही ना चला,</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">अब वक़्त बहुत कम है</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">और काम ज्यादा</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">काम मतलब किताबें</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">जो पढनी बाकी हैं,</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">और हंसना और हंसाना भी तो है</span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; "><br /></span></span></div><div><span><span style="line-height: normal; ">जो कि अब तक मैं नहीं कर पाया! .....</span></span></div></div></div></span></div></span></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-57526083984800810102011-07-12T17:19:00.001+05:302011-07-12T17:21:04.903+05:30संतुलित व्यवहार के धनी (कैलाश सी शर्मा)<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiX1grT4V9i45esS_utIGIV5zz4rQVt69X3ebsCrPruwgfDH7eaoxz3cLzZaV5sRgEI4j0z7cc6PtVGMYTuH4rLphLgxAXEBEFAcYwFWcvn1og_n_Mib8mHqUCO223WCKhTNlq0i9yaiOyw/s1600/15943_1269009891827_1427242922_30798208_5556214_n.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiX1grT4V9i45esS_utIGIV5zz4rQVt69X3ebsCrPruwgfDH7eaoxz3cLzZaV5sRgEI4j0z7cc6PtVGMYTuH4rLphLgxAXEBEFAcYwFWcvn1og_n_Mib8mHqUCO223WCKhTNlq0i9yaiOyw/s320/15943_1269009891827_1427242922_30798208_5556214_n.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5628432017907348290" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div><b>आज बैठे हैं मौन</b></div><div><b>कुछ चेहरे</b></div><div><b>अपनी झुर्रियों में </b></div><div><b>कितने दर्द की परतें चढाये,</b></div><div><b>ताकते उस सड़क को</b></div><div><b>जिससे अब कोई नहीं आता,</b></div><div><b>क्योंकि</b></div><div><b>युवा और बच्चे</b></div><div><b>खो गये हैं दूर</b></div><div><b>कंक्रीट के जंगल में</b></div><div><b>और भूल गये हैं रस्ता</b></div><div><b>बरगद तक वापिस आने का...</b></div><div><br /></div><div>इस सोच , इस अनुभव ने कैलाश सी शर्मा जी के ब्लॉग से मेरी पहचान करवाई . संतुलित व्यवहार के धनी लगे मुझे कैलाश जी .... ब्लॉग<b> <a href="http://sharmakailashc.blogspot.com/" target="_blank">http://sharmakailashc.<wbr>blogspot.com/</a></b> के साथ इनका एक ब्लॉग बच्चों के लिए भी है - <b><a href="http://bachhonkakona.blogspot.com/" target="_blank">http://bachhonkakona.<wbr>blogspot.com/</a></b> क्योंकि इनका मानना है कि , अगर चाहते हो तुम खुशियाँ, ढूँढो इसको बचपन में . अपनी उम्र के साथ जो बचपन की मासूमियत साथ लिए चलते हैं उनकी सोच, उनकी परख एक अलग विशेषता रखती है .... उनके कम शब्दों में भी जीवन के सार मिलते हैं , कुछ ऐसे ही सार जीवन के कैलाश जी के ब्लॉग से मिलते हैं . </div><div><b>अपनी कलम से कैलाश जी अपने लिए कहते हैं -</b></div><div><div><br /></div><div>मेरा जन्म 20 दिसम्बर, 1949 को मथुरा (उ.प्र.) के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ. मेरा बचपन मेरी नानी, जो उसी शहर में रहतीं थी, के साथ गुजरा. यह मेरे जीवन का स्वर्णिम समय था और नानी से मुझे जो प्यार मिला वह मेरे लिये आज भी अविस्मरणीय है . मैं जब १५ साल का था, वे इस दुनियां को छोड़ कर चली गयीं, लेकिन मुझे आज भी महसूस होता है कि वे सदैव मेरे आसपास हैं और उनके आशीर्वाद का साया हमेशा मेरे सिर पर है. माता पिता के प्यार के साथ बचपन और कॉलेज जीवन बहुत खुशहाल रहा.</div><div><br /></div><div>अंग्रेजी साहित्य और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर शिक्षा के उपरांत संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा केन्द्रीय सचिवालय सेवा में चयन के बाद, 1970 में संघ लोक सेवा आयोग, नयी दिल्ली में नियुक्ति होने पर विभिन्न राजपत्रित पदों पर कार्य किया. 1985 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के सतर्कता विभाग में विशेषज्ञ श्रेणी में ज्वाइन किया और पूर्व, उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत मुख्य रूप से मेरा कार्य क्षेत्र रहा. सम्प्रति मैं सेवानिवृत के पश्चात दिल्ली में रह रहा हूँ.</div><div><br /></div><div>मेरा सम्पूर्ण कार्यकाल मुख्य रूप से सतर्कता (Vigilance), भ्रष्टाचार-निरोध (Anti-corruption) और फ्रॉड अन्वेषण (Fraud Investigation) के क्षेत्र में रहा. कार्य काल में देश के सुदूर जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण के दौरान असीम गरीबी, शोषण, भ्रष्टाचार और मानवीय संबंधों की विसंगतियों से निकट का सामना हुआ. जब बस्तर के घने जंगलों में औरतों को बिना चप्पल पहने जंगल से लकड़ी लाते या राजस्थान के रेगिस्तान में भीषण गरीबी को देखा तो मन बहुत उद्वेलित हो गया. जब समाज के निम्नतर वर्ग को भी भ्रष्टाचार का शिकार बनते देखता तो यह सहनशीलता की सीमा से परे हो जाता था. गरीबी का निम्नतम स्तर और दूसरी तरफ धन का फूहड़ प्रदर्शन बहुत नजदीकी से देखा, जिसने मेरे जीवन और लेखन पर अमिट छाप छोड़ी.</div><div><br /></div><div>एक आम सरकारी कर्मचारी की तरह प्रारंभिक जीवन में कुछ कठिनाइयां भी आयीं, पर वह समय भी निकल गया. जीवन में सच्चाई और ईमानदारी के राह से भटकाने के लिये बहुत प्रलोभन भी आये, पर उनका सफलता से मुकाबला कर पाया और इसमें मेरी पत्नी का पूरा सहयोग रहा. जीवन में आवश्यकताओं को अपनी क्षमता के अंदर सीमित रखा और जो कुछ ईमानदारी से कमाया उसी में संतुष्ट रहा. आज बेटे और बेटी अपने अपने जीवन में अच्छी तरह सुव्यवस्थित हैं. आत्म संतुष्टी मेरे जीवन का मूल मन्त्र रहा जिसके कारण आज भी व्यक्तिगत जीवन शांतिपूर्ण बीत रहा है, जिसमें मुझे पत्नी का पूरा सहयोग मिला. रिश्तों की कडवाहट को आज के समय का रिवाज़ या अपनी नियति समझ कर भुलाने की कोशिश करता हूँ.</div><div><br /></div><div>लिखने का शौक कॉलेज जीवन से ही था, लेकिन कार्य व्यस्तता की वज़ह से समय नहीं निकाल पाता था. फिर भी जब समय मिलता लिखता रहता था. मेरा सब से सुखद पल संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी दिवस के अवसर आयोजित प्रतियोगिता में मेरी कविता ताज महल और एक कब्र के लिये आदरणीय बालकवि बैरागी के कर कमलों से प्रथम पुरुष्कार पाना था. लेखन मेरे लिये केवल एक स्वान्तः सुखाय अभिव्यक्ति और आत्म-संतुष्टी का माध्यम है.</div><div><br /></div><div>2010 में ब्लॉग जगत से परिचित हुआ और अपना पहला ब्लॉग ‘Kashish-My Poetry’ जुलाई 2010 में शुरू किया जिसे प्रबुद्ध पाठकों ने अपना स्नेह और प्रोत्साहन दिया. बच्चों से मुझे बहुत लगाव है क्यों कि उनका साथ जीवन को एक सात्विकता और निस्वार्थ प्रेम देता है. बच्चों के लिये लिख कर मन को बहुत सुकून मिलता है और एक अद्भुत शान्ति का अनुभव होता है, इसलिये 2011 में मैंने बच्चों के लिये ब्लॉग ‘बच्चों का कोना’ शुरू किया. </div><div><br /></div><div>मेरे ब्लोग्स हैं Kashish-My Poetry और बच्चों का कोना </div><div><br /></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-77977347394089586512011-07-11T16:42:00.003+05:302011-07-11T16:45:13.753+05:30वो कहते हैं ' पिक्चर अभी बाकी है दोस्त' - रश्मि प्रभा की<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhO5S4-Zqo7KyRAc8N55PJe_PV3yeKckirBRQXh_TNmjrfL3-YBIFNtHopw6giRA5Ptlwfau3hWvlb9TMszQSPcu_IXOOjWHfukzyQDdjaEW1Y92opKg4NK2Z-n0oOyfHYqQcOK-fRXyahV/s1600/Rashmi+%25287%2529.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 214px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhO5S4-Zqo7KyRAc8N55PJe_PV3yeKckirBRQXh_TNmjrfL3-YBIFNtHopw6giRA5Ptlwfau3hWvlb9TMszQSPcu_IXOOjWHfukzyQDdjaEW1Y92opKg4NK2Z-n0oOyfHYqQcOK-fRXyahV/s320/Rashmi+%25287%2529.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5628051231045329746" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">क्या रह गया ? वह आवरण जो उस लड़की के चेहरे पर धूप छाँही का खेल खेलता है , या वह जो उसके पहनावे से बता देता है कि वह जो दिखा रही है , वैसी है नहीं या वह जो मेरे शब्दों में सर पटकता है ! <div>तो .... बताओ बंधु , ख़ुशी और दर्द को पूरा शरीर मिलता कहाँ है ! जब तक ख़ुशी की आकृति बनाओ , दर्द आकर उसे अपाहिज बना देता है, जब तक दर्द को रेखांकित करो, ख़ुशी आकर उससे पंगे लेती है . बहुत मुश्किल है इन दोनों को हुबहू उतारना ! </div><div>चलिए एक प्रयास और सही - छोटी सी वह मिन्नी १३ फरवरी १९५८ को डुमरा (सीतामढ़ी) में जन्मी . तब वहाँ बिजली नहीं थी, यानि बिजली का कनेक्शन नहीं - जन्म के साथ बिजली का आना - शायद तय था मेरे नाम का होना 'रश्मि'. </div><div>मुझसे बड़ी तीन बहनें , एक भईया यानि मैं चौथी बेटी थी .... पापा नहीं हुए थे मायूस ना अम्मा , पर लोगों ने धीरे से निराशा व्यक्त की थी - बेटी हुई फिर ! इससे जुडी एक कहानी सुनाती हूँ - एक दिन हम सब बैठे थे , मैं ६ ७ साल की थी , स्कूल में चपरासी थे - चुल्हाई भाई, हाँ हम उनको भाई कहते , शुरू से इसी तरह हम किसी काम करनेवाले को बुलाते थे . हाँ तो चुल्हाई भाई ने बताना शुरू किया - " जब मुन्नू बबुआ हुए तो साहेब के पास जैकारी बाबा आए , साहेब उनको पूरा सीतामढ़ी, डुमरा में मिठाई बांटने का पैसा दिए ..." मैं तन्मयता से सुन रही थी और अपनी बारी की प्रतीक्षा में थी .... बड़े उत्साह से मैंने पूछा - ' और चुल्हाई भाई , हम हुए तो ...' ओह , बहुत ही खराब ढंग से चुल्हाई भाई ने कहा , ' तुम्हारे आने की खबर सुनते सब दुःख से सो गए ' , मैं तो फफक के रो पड़ी ... शाम में जब पापा आए तो मैंने पूछा - ' पापा हम हुए तो सब सो गए थे दुःख से ?' पापा ने बड़े प्यार से कहा - ' ना बेटा , हम जाग रहे थे '.... मैं तो खुश हो गई, पर कुछ बाहरी बड़ों ने चिढाया - ' उनको चिंता से नींद कहाँ आनेवाली थी !' .... ये चिंतावाली बात उस उम्र में समझ में भी नहीं आई . हम ४ बहनें , एक भईया .... कभी कोई फर्क होते हमने नहीं देखा . </div><div>मैं तो यूँ भी पापा के शब्दों में रिकॉर्ड प्लेयर थी .... बोलती थी तो बस बोलती जाती थी, गाती थी तो बस.......कोई हमारे घर आता ,पापा अम्मा जब तक नहीं आते , मैं पूछती - 'गाना सुनेंगे ?' जवाब मिले बगैर चालू .... आधे अधूरे जितने गाने याद होते वो सुनाकर हहाहाहा उनका मन लगाते ! </div><div><br /></div><div>धीरे धीरे दीदी भईया लोगों की शादी हो गई .... १९७९ में भईया की शादी हुई . मेरे लिए पापा हमेशा कहते - 'इतनी धूमधाम से शादी होगी कि सब दाँतों तले ऊँगली दबायेंगे ' और मैं ! मुझे तो पलक झपकते पंख लगाकर उड़ने की आदत थी, तो कई उड़ानें भरती . पर पलक झपकते यथार्थ की धरती पर ...................पापा नहीं रहे ....(१९८०) आनन् फानन में बहुत सारे दृश्य बदल गए . जब दृश्य बदलते हैं तो बदलते ही चले जाते हैं , तो बदलते ही गए . .... शादी हुई, बच्चे मेरी ज़िन्दगी बने .......... और ज़िन्दगी को बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी तो फिर ज़िन्दगी ने भी मुझे कसकर गले लगाया और ... उसीका करिश्मा है कि आज मैं आपके सामने हूँ और मैं जो लिखूं , आप सबकी ऊँगली नहीं छोडती . मैं बनाना चाहती हूँ एक साहित्यिक संसार , जिसे लोग याद करें .... जैसे हम याद करते हैं - महादेवी, पन्त, बच्चन, निराला , टैगोर, प्रसाद, शरतचंद्र , अज्ञेय , दिनकर ............और इनके जैसे कई विलक्षण रचनाकारों को .</div><div><b><br /></b></div><div><b>अब तो नहीं है न बाकी कुछ ?</b></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-53534447516146462312011-07-10T17:02:00.002+05:302011-07-10T17:15:27.099+05:30शांत, खामोश - पर बोलता अस्तित्व ! (अविनाश चन्द्र )<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOtz0zXxo4x3sxqOM-aU8tzRemx5M0RP3vX8k9kwYW5eFat9K_uMVD3w6vOY6E2p_Yia5AC-1Dg0A7LG8OAxgWnOiPYiyd8KUJtD-1Uu3xuLrW3lOgNhBKQWC8xR-MoJil42hy8uEhhQkP/s1600/avinash3.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 256px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOtz0zXxo4x3sxqOM-aU8tzRemx5M0RP3vX8k9kwYW5eFat9K_uMVD3w6vOY6E2p_Yia5AC-1Dg0A7LG8OAxgWnOiPYiyd8KUJtD-1Uu3xuLrW3lOgNhBKQWC8xR-MoJil42hy8uEhhQkP/s320/avinash3.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5627688421138367090" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">अविनाश .... उससे परिचय ऑरकुट पर हुआ , रचनाओं के माध्यम से - इससे अधिक महत्पूर्ण बात ये है कि मैं इस बच्चे से बहुत प्रभावित रही . 'माँ' के प्रति जो प्यार, श्रद्धा , निष्ठा शब्दों में लिपटे रहते थे , उसे मैं अपनी माँ , अपने बच्चों को पढकर सुनाती . कभी पापा , कभी भाई ...... कई बार शब्द धूमिल हो जाते , आँखों से आशीष बहता . <div>अविनाश से भी मैं मिली अनमोल संचयन के विमोचन में ... <b>संस्कार तहजीब उसके पूरे वजूद से टपक रहा था</b> . शांत, खामोश - पर बोलता अस्तित्व ! ... मेरी कलम अगर अविनाश को नहीं लिखती तो शख्सियत का यह ग्रन्थ अधूरा होता , क्योंकि इतनी कम उम्र में वह ख़ास ब्लॉगर्स के बीच अपनी पहचान रखता है . उसकी इन पंक्तियों की मासूमियत और अनुभव की प्रखरता पर गौर कीजिये ... </div><div><br /></div><div>'<b>अम्मी अम्मी </b></div><div><b>सुपर स्टार कैसा होता है</b></div><div><b>'जा देख ले अपने अब्बू को '</b></div><div><b>तब नहीं समझा </b></div><div><b>सच नहीं माना</b></div><div><b>अब दस गुनी तनख्वाह में </b></div><div><div><b>आधा घर नहीं चलता,</b></div><div><b>तब जाना.</b></div><div><b>तुम सच कहती हो अम्मी.'</b></div></div><div><b><br /></b></div><div>कितने नम एहसास ... अविनाश के साथ मैं भी मुड़ मुड़के देखती हूँ , मुझे यकीन है आप भी देखेंगे - </div><div><br /></div><div><div><b><br /></b></div><div><span style="font-size: 14px; line-height: 25px; "><div><div><b>बडबडाता हूँ जाने कैसे,</b></div><div><b>रोकने के लिए आँसू.</b></div><div><b>जो होते हैं आमादा,</b></div><div><b>अम्मा के पास रहने को.</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>नहीं रुकते पर माँ से,</b></div><div><b>वो गिरा देती है नमक.</b></div><div><b>चख लेता हूँ उन्ही को,</b></div><div><b>कुछ कहने को बचता नहीं.</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हर कदम कदम पर,</b></div><div><b>देखता हूँ मुड़ के.</b></div><div><b>वो भरी भारी आँखें,</b></div><div><b>वो हिलता हाथ उनका.</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उफ़ यह तल्ख़ एहसास,</b></div><div><b>मुश्किल से चलना मुड़ना.</b></div><div><b>उस वक़्त वो गली जाने,</b></div><div><b>कितनी लम्बी लगती है.</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>गली मुड़ते ही एहसास,</b></div><div><b>माँ से चिपक जाते हैं.</b></div><div><b>काश ये गली थोड़ी,</b></div></div></span><b><span style="font-size: 14px; line-height: 25px; "> </span></b><span style="font-size: 14px; line-height: 25px; "><b>लम्बी हुई होती.</b></span><b><span style="font-size: 14px; line-height: 25px; "> .......... </span> </b>यदि मैं अविनाश के इन एहसासों को यहाँ नहीं लिखती तो निःसंदेह उसके साथ न्याय नहीं करती , क्योंकि यह उसके जीवन का आधार है, पहला सच है . </div><div><span style="font-size: 14px; line-height: 25px; "><div><div><b><br /></b></div></div></span></div><div><b><br /></b></div><div><b>अब अविनाश की कलम से अविनाश - </b></div><div><br /></div><div><div>सच कहूँ ...बीते एक घंटे से सोच रहा हूँ कि क्या लिखूँ?</div><div>कारण, किसी इंटरव्यू के अलावा "अपने बारे में" जैसे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। और वो कहानियाँ यहाँ नहीं सुना सकता।</div><div><br /></div><div>सीधे शब्दों में , </div><div>नाम: अविनाश चन्द्र</div><div>जन्म: 18 जून, 1986, वाराणसी </div><div>शिक्षा: अभियांत्रिकी स्नातक </div><div>अनुभव: एक निजी संस्थान में ३ वर्षों से कार्यरत </div><div>रुचियाँ: क्रिकेट खेलना, खाना पकाना, बागवानी और जो कुछ मिले सब सीखना </div><div>ब्लॉग: </div><div>1) मेरी कलम से <a href="http://penavinash.blogspot.com/" target="_blank">http://penavinash.blogspot.<wbr>com/</a> (यहाँ कवितायें लिखता हूँ, हिंदी में)</div><div>2) NEON SIGN <a href="http://talebyavi.blogspot.com/" target="_blank">http://talebyavi.blogspot.<wbr>com/</a> (यहाँ कुछ भी लिखता हूँ, अंग्रेज़ी में)</div><div><br /></div><div>प्रकाशित: </div><div>काव्य संग्रह: अबाबील की छिटकी बूँदें </div><div>काव्य संग्रह: अनमोल संचयन (प्रतिभागी कवि)</div><div><br /></div><div>पूरी ईमानदारी से बात करूँ तो बताने लायक कुछ भी नहीं है मेरे पास, बनारस के एक साधारण से दम्पति कि साधारण सी संतान हूँ और उनका अज्रस प्रेम ही मेरी सबसे बड़ी थाती।</div><div>उस अतुल स्नेह और अदम्य ज्ञान में किलकता यही सीखा कि सब सीखना है इसी पार।</div><div>साहित्य पढ़ा हो या उसमे रूचि रही हो, ऐसा कहूँगा तो झूठ होगा स्वयं से ही। हाँ, ये कहूँगा कि पढ़ा है, और हमेशा पढ़ा है।</div><div>बचपन संभवतः गायत्री मन्त्र से शुरू हुआ होगा या सुन्दरकाण्ड से, ठीक से नहीं कह सकता लेकिन जो सामने आया सब पढ़ा है।</div><div>छोटा था तो पिता जी स्कूल खुलने के २-३ दिन पहले किताबें ले आते थे, जिल्द वगैरह बराबर करने के लिए और उन्हें पढने में तो १ दिन ही लगना था, अब आगे?</div><div>बड़ी कक्षा वालों की किताबें, यहाँ तक कि गणित की भी, माँग के पढ़ीं हैं।</div><div><br /></div><div>देखना, सुनना और चुप रहना, बचपन से ऐसे ही व्यसन लगे हुए हैं इस कारण गति तो नहीं ही रहती थी, पर किसी न किसी विधि शिक्षकगण धक्का दे दे के कुछ न कुछ गतिविधि करवा लेते थे।</div><div>बचपन से ही हर हफ्ते 'भविष्य में क्या बनना है?' इसका उत्तर बदलता रहता था। आठवीं तक आते-आते चित्रकार, गायक, कवि, पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी यह सब बन के उतर चुका था मैं। इसके बाद क्रिकेट से लम्बा प्रेम रहा, लेकिन कभी न कभी उतरना था ही और फिर मैं एक इंजिनियर बन गया। आजकल ३ वर्षों से गुडगाँव में हूँ।</div><div><br /></div><div>ज्ञान नहीं है पर आम रूचि की तरह भाषाओँ में भी रूचि है इसलिए जहाँ जाता हूँ वहाँ की भाषा और लिपि सीखने का यत्न करता हूँ, कितना सीख पाता हूँ इस पर बात करना अपनी पोल खोलने जैसा है।</div><div><br /></div><div>लिखना कब शुरू किया ये याद नहीं, पर हाँ ऐसा दिन होगा जब चित्रकारी नहीं कर पा रहा होऊंगा और कोई एक तरफ से सादा कागज़ हाथ में होगा।हमारी हिंदी की शिक्षिका जो हमें आठवीं में पढ़ाने आयीं थी, उन्होंने संभवतः अधिक कविताई कराई मुझसे। अब जो मैं लिखता हूँ उसे कुछ तो कहना ही पड़ेगा, कविजनों से क्षमा-याचना सहित।</div><div>उन्होंने पूरे साल वार्षिक पत्रिका के नाम पर हमें कवितायें लिखने को कहा, और साल ख़त्म होते होते बस मैं था जिसने तीसेक कवितायें दी थीं। नतीजा, कोई पत्रिका नहीं निकली। :)</div><div>पर उनके आशीष के शब्द आज भी छाँव करते हैं।</div><div><br /></div><div>रश्मि जी को तब से जानता हूँ जब मेरा या इनका ब्लॉग नहीं था, बहुत कुछ बदला है लेकिन अब तक एक चीज जो सबसे अच्छी थी, वो अब तक वैसी ही है। जब ये आशीष में कहती हैं, "खुश रहो बेटा!" मन सचमुच खुश हो उठता है। जब से इन्होने मुझसे कहा है परिचय देने को तब से सोच रहा हूँ, मेरा क्या परिचय दूँ?</div><div>और ऊपर की लीपा-पोती पढ़ कर कुछ-कुछ तो सब समझ गए होंगे कि बताने भर कुछ है नहीं मेरे पास। फिर भी...</div><div><br /></div><div>मुठ्ठियाँ भींचें,</div><div>मुस्कान लपेट,</div><div>बातें करें अनेक।</div><div>इससे अच्छा है,</div><div>तुम खिसियाओ,</div><div>हम चुप रहें।</div><div>खोल दें मुठ्ठियाँ,</div><div>उड़ा दें जुगनू,</div><div>सन्नाटा रौशन हो,</div><div>आहिस्ता-आहिस्ता।</div></div><div><br /></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-68451007644975353932011-07-09T19:08:00.001+05:302011-07-09T19:11:41.965+05:30शांत नदी सी - (शोभना चौरे)<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbFVBIAJfY5L2qaoe7YQLhG9-w56_wpA1QM3-Ikhyphenhyphenoov_qMBMpMK-liiun2zSHtOL-omNnL15R8-gbZMW5M-5OA9Rnu8g9Q8pSB-x6lwMdKeHJQfG-xNEAlFpjnxHOXdot726m4e51jJAA/s1600/kshitij-shveta+mysore+visit+003.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbFVBIAJfY5L2qaoe7YQLhG9-w56_wpA1QM3-Ikhyphenhyphenoov_qMBMpMK-liiun2zSHtOL-omNnL15R8-gbZMW5M-5OA9Rnu8g9Q8pSB-x6lwMdKeHJQfG-xNEAlFpjnxHOXdot726m4e51jJAA/s320/kshitij-shveta+mysore+visit+003.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5627347300708738546" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">वेदना तो हूँ पर संवेदना नहीं, सह तो हूँ पर अनुभूति नहीं, मौजूद तो हूँ पर एहसास नहीं, ज़िन्दगी तो हूँ पर जिंदादिल नहीं, मनुष्य तो हूँ पर मनुष्यता नहीं , विचार तो हूँ पर अभिव्यक्ति नहीं|... ये पंक्तियाँ हैं 'अभिव्यक्ति' की मालिकन शोभना चौरे जी की . मैंने शोभना जी को जब भी पढ़ा , वे मुझे एक शांत नदी सी लगी , जिसकी हर लहरों में जीवन के विविध संगीत होते हैं ! मेरे ब्लॉग के शुरूआती दौर में वे नियमित रूप से लिखती रहीं . मैंने जब 'अनमोल संचयन ' का संपादन किया तो शोभना जी भी उसका एक अंश बनीं , तात्पर्य कि उनकी रचना भी इस संग्रह में है . रचनाओं के मध्य मेरा उनका सम्मान का संबंध बना - वे मेरा सम्मान करती हैं, मैं उनका सम्मान करती हूँ . <div><br /></div><div> अब पकड़ते हैं परिचयात्मक सूत्र शोभना जी के शब्दों में -</div><div><br /></div><div><div>मेरा जन्म सन १९५४ में खंडवा (मध्य प्रदेश )में ऐसे परिवार में हुआ जहां पर लडकियो को कभी बोझ नही समझा |बहुत हि लाड प्यार से चार बहने होते हुये भी सम्पन्न सम्मिलित परिवार में लालन पालन हुआ |शिक्षा खंडवा में ही हुई |लाड प्यार से पालन जरूर हुआ कितु पिताजी बहुत सी बातो में सख्त | सरकारी पाठशालाओ में सम्पूर्ण शिक्षा | जिस महाविधालय मे पिताजी व्याख्याता थे सुविधाये मिलने के बावजूद भी कन्या महाविद्यालय में ही बड़ी मिन्नतो के बाद प्रवेश लेकर</div><div> बी.ए .तक शिक्षा |पढाई से ज्यादा कालेज की अन्य गतिविधियों में ज्यादा सक्रियता |और कालेज में आजीवन कुवारी रहने वाली प्रिंसिपल मेडम के सखत कानून जिन्होंने आत्मविश्वास प्रदान किया | औरे हर गलत बात का विरोध किया फलस्वरूप बहुत झिडकिया खाई है |</div><div>इन सब के बीच बड़ी मुश्किल से मिली एक डायरी में छोटी मोती कविताये या लेख लिखकर रख लेती एक बार पिताजी को हिम्मत कर डायरी बताई तो उन्होंने कहा "अब सब कवी ही हो गये क्या ?"तब से वो डायरी इतिहास बन गई |घर के कार्य करना और चोरी चोरी रेडियो सीलोन सुनना (क्योकि सिर्फ आकाशवाणी इंदौर और समाचार सुनना ही रेडियो का काम था )अच्छा लगता साहित्यिक किताबे जो तब समझ में नहीं आती थी उन्हें पढना |</div><div>कालेज खत्म होते ही शादी| शादी गाँव में हुई पर पति मुंबई में निजी कम्पनी में इंजिनियर तो एक महिना गाँव में बिताकर मुंबई की राह पर बहुत सारे सपने लेकर सपनो के शहर में |यहाँ भी काकी सास का सख्त कानून सारे सपने सपने ही रहे रहते अलग थे किन्तु मलाड और गोरेगांव के बीच की दूरी आतंक के लिए काफी थी |</div><div>आठ साल के देवर को पढ़ने की जिम्मेवारी थी मेरी परिवार में अघोषित नियम था जो पढ़ चुका है उसे आगे की पीढ़ी की जिमेवारी लेनी ही है |अपने भी दो बेटे हो गये |मुंबई के खर्चे बाहर जाकर काम भी नहीं किया जा सकता था \तब सिलाई का काम शुरू किया घर में ही|साथ ही महिला मंडल की सदस्य बनकर उन दिनों म्रणाल गोरे के साथ मिलकर बस्तियों में पढ़ाने का काम भी किया वही के बच्चो के कपड़े ,महिलाओ के कपड़े न्यूनतम शुल्क लेकर सिये |खूब संस्कृतिक गतिविधियों में भी भाग लिया और काकीजी को भी अपने अनुसार ढाल लिया तब काम आसान हो गया |मुंबई में १५ साल बिताने के बाद नोकरी के चलते विकरम सीमेंट( नीमच म प्र.)में आ गये |</div><div>यहाँ पर महिला मंडल के सोजन्य से गाँवो में काम करने का अवसर मिला जो मेरी दिली तमन्ना थी १० साल तक खूब काम किया |नेत्र शिविर ,परिवार नियोजन शिविर ,पोलियो शिविर ,महिलाओ को सिलाई सीखन,प्राथमिक स्कूल खोलना ,और सबसे बड़ा काम कारपेट बनाना बुनकर महिलाओ जिनका काम बंद हो चुका था उन्हें ट्रेनिग देकर काम सिखाना जो आज भी चल रहा है |वो मेरे जीवन का स्वर्णिम युग था |</div><div>इस बीच सन १९८९ में कविताओ की डायरी खुली |नै कविताये लिखी कुछ लेख धर्मयुग ,वामा सरिता में छपे भी दैनिक अख़बार में भी फिर इन सामाजिक कार्यो और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते फिर लिखना बंद हो गया २००८ में जब ब्लॉग के जरिये फिर लिखना शुरू किया सबका स्नेह पाकर भावनाएं चल पड़ी की बोर्ड के सहारे |</div><div>बहुत खूबसूरत जिन्दगी जी है सामाजिक व्यवस्थाओ से रिश्तो से शिकायत तो रहती ही है किन्तु कबीर की वाणी </div><div>बुरा जो देखन मै चला बुरा न मिलिया कोय </div><div>जो दिल देखा अपना मुझसे बुरा न कोय |</div><div>सारी कुंठाओ को मिटा देती है और एक नई उर्जा भर देती है जीवन में |</div><div>ब्लागिग ने भी बहुत कुछ दिया है पर पोते निमांश २ साल की बाल लीलाओ में अभी ब्लाग को कुछ नहीं दे पा रही हूँ |</div><div>प्रकाशित पुस्तक काव्य संग्रह -शब्द भाव , ... इसके साथ साथ मैं हूँ - 'अनमोल संचयन' एवं 'अनुगूँज' में ...</div><div><br /></div><div><a href="http://shobhanaonline.blogspot.com/" target="_blank">http://shobhanaonline.<wbr>blogspot.com/</a></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-43679135055973884382011-07-08T18:24:00.002+05:302011-07-08T18:25:28.662+05:30प्यार भरी जिद्दी सी लड़की<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEGDQJa9HXs6YqxiJHLyujglYFnX0gtcB49v2Az7QWgc87EUXuB8rV9OvTjQ_3-vIoWW8oFWH6M5xLbPz6OIfVxv8RnuOkMKKOj5omD9Nxqv0T0c5GV1f2B8fbJNtd3KftIaw5j9vqxbSz/s1600/sss.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 170px; height: 199px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEGDQJa9HXs6YqxiJHLyujglYFnX0gtcB49v2Az7QWgc87EUXuB8rV9OvTjQ_3-vIoWW8oFWH6M5xLbPz6OIfVxv8RnuOkMKKOj5omD9Nxqv0T0c5GV1f2B8fbJNtd3KftIaw5j9vqxbSz/s320/sss.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5626964223441649090" /></a><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">कैसे मिली .... कुछ याद नहीं , पर मुझे मिली और उसके मिलने में एक सच्चाई थी , है ....ब्लॉग तो उसके कई हैं , <a href="http://sadalikhna.blogspot.com/" target="_blank">http://sadalikhna.blogspot.<wbr>com/</a> <div><a href="http://sada-srijan.blogspot.com/" target="_blank">http://sada-srijan.blogspot.<wbr>com/</a></div>सभी अपनी पहचान रखते हैं , पर मुझे जो ब्लॉग सबसे अच्छा लगा , वह है - <a href="http://ladli-sada.blogspot.com/" target="_blank">http://ladli-sada.blogspot.<wbr>com/</a> . इस ब्लॉग में सीमा सिंघल ने अपनी माँ की एक अद्वितीय गरिमायुक्त छवि को सुरक्षित किया है , उसकी ममता , बच्चे का भोलापन .... एक पवित्रता है यहाँ . <div>शांत, स्थिर , अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक ... यह सीमा की विशेषता है , इस विशेषता के साथ एक और विशेषता है उसकी - <b>प्यार भरी जिद्दी सी लड़की</b> <b>की ! </b> </div><div>जहाँ तक मैं उसके करीब आती गई , बिना मिले उसे बहुत हद तक जाना ... जीवन उसका संघर्षमय रहा , पर अपनी सीमाओं के बीच उसने कभी हार नहीं मानी , न टूटी , ..... एक टूटना प्रत्यक्ष होता है, एक अप्रत्यक्ष - प्रत्यक्ष को हम मान के चलते हैं , अप्रत्यक्ष अपनी जगह होता है . तो - सीमा ने खुद को तो जतन से रखा ही , अपने पास के लोगों का भी भरपूर सम्मान और ख्याल किया .</div><div>बचपन में मैंने माँ के लिए पढ़ा था - '<b>दिन भर फिरकिनी सी खटती माँ बच्चों के सपनों के लिए सजग होती है , सिरहाने लोहे का टुकड़ा रखती है ताकि</b> <b>बुरे सपने ना आएँ '</b>.... सीमा अपने से जुड़े लोगों के लिए ऐसी ही है... दिन भर फिरकिनी सी खटती , उनकी खुशियों , उनके सपनों का ख्याल रखती है ! </div><div><br /></div><div>सीमा की तरह उसका परिचय भी सीमित है - पर परिपक्व है </div><div><br /></div><div><div>मैं सीमा सिंघल मेरे शब्दों में कहूं तो जब भी कभी मन के दरवाज़े पर भावनाओं ने दस्तक दी, उँगलियों ने उसे कलम के सहारे काग़ज़ पर उतार दिया ! आपने उसे कविता कहा...! ग़म, ख़ुशी, प्रेम, नाराज़गी, आग्रह, अवसाद या कुछ और...! सीधे सादे शब्दों में कहूं तो भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम कविता बखूबी करती है ! सिर्फ व्यक्त नहीं करती...बल्कि सिखाती भी है ! अनुराग...समर्पण ...जैसी सच्ची भावनाएं, ..जिसमें इंसानी जज्बे का अक्स हो ! मुझसे यह सब जुड़ता हैं.... ''खुद से'' आत्ममंथन के रूप में ! बस इसीलिए तो मन को भाता है कविता लिखना ! ...बचपन से ही पसन्द है लेखन का यह रूप ...! </div><div>कभी आकाशवाणी रीवा से प्रसारण द्वारा तो कभी पत्र-पत्रिकाओ में प्रकाशित होते हुए मेरी कवितायेँ आप तक पहुचती रहीं..! सन 2009 से ब्लॉग जगत में ‘सदा’ के नाम से जुड़ने के बाद सुखद परिणाम है कि मेरा प्रथम काव्य संग्रह ‘अर्पिता’ अब आप सबके बीच है ..! मेरी कुछ और कविताओं को आने वाले संकलन अनुगूंज में पढ़ा जा सकेगा.!</div><div>जन्म स्थान- रीवा (मध्यप्रदेश) शिक्षा एम.ए. (राजनीतिशास्त्र) से वर्तमान में एक निजी संस्थान में निजसचिव के पद कार्यरत हूं रूचियों में लेखन के अलावा पुराने सिक्के संग्रहित करना, पुराने फिल्मी गीत सुनने के साथ अमृता प्रीतम जी को पढ़ना अच्छा लगता है..... मेरा ई-मेल- <a href="mailto:sssinghals@gmail.com" target="_blank">sssinghals@gmail.com</a> एवं ब्लॉग - <a href="http://sadalikhna.blogspot.com/" target="_blank">http://sadalikhna.blogspot.<wbr>com/</a></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-89805794652091219622011-07-07T16:06:00.003+05:302011-07-08T10:09:27.014+05:30बोलने में शालीनता ,बैठने में शालीनता , चलने में शालीनता (मुकेश कुमार सिन्हा)<div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; "><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_FzyPPih__z1eY3T-YzelPq_HLW20k_C1vOd5_k_jkDuI1TIyK4NGifKYDs-jLP64mbOLqeDQW9RanLCRXn3iJTQ9C7WmOTiuvklp39q2QTjnhmAWt91dU7NT_ZOkFldsc8IKf34zDITn/s1600/172711_1622400721619_1284492712_31323454_8197344_o.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_FzyPPih__z1eY3T-YzelPq_HLW20k_C1vOd5_k_jkDuI1TIyK4NGifKYDs-jLP64mbOLqeDQW9RanLCRXn3iJTQ9C7WmOTiuvklp39q2QTjnhmAWt91dU7NT_ZOkFldsc8IKf34zDITn/s320/172711_1622400721619_1284492712_31323454_8197344_o.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5626557829007821170" style="display: block; margin-top: 0px; margin-right: auto; margin-bottom: 10px; margin-left: auto; text-align: center; cursor: pointer; width: 240px; height: 320px; " /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">जब मैंने इन्टरनेट का प्रयोग करना शुरू किया और ऑरकुट प्रोफाइल बन गया तो मेरे बच्चों के बाद मेरा पहला ऑरकुट दोस्त बना ' मुकेश ' . इन्टरनेट तो मुझे यूँ भी जादूनगरी लगी और नगरी में मुकेश ने बड़े प्यार से मुझे दीदी कहा . इतना मज़ा आया कि पूछिए मत .... उसकी कम्युनिटी थी ' JOKES, SHAYERIES & SONGS![JSS]' और मेरी 'मन का रथ' .... शुरुआत में वह मेरे हर लिखे पर कहता - ' कुछ नहीं समझे , कितनी बड़ी बड़ी बातें करती हो ...' पर एक बार उसने कहा -'दीदी मेरा मन कहता है तुम बहुत आगे जाओगी...' ..... जब भी मुझे कोई पड़ाव मिला मुकेश की यह बात मुझे याद आई . एक बार हमारी लड़ाई भी हुई , न उसने मनाया न मैंने - लेकिन रिश्ते की अहमियत थी , हम फिर बिना किसी मुद्दे को उठाये उतनी ही सरलता से बातें करने लगे !<div>फिर वह दिन आया जब मुकेश ने कुछ लिखा .... हर पहला कदम अपने आप में डगमगाता है , उसे भी खुद पर भरोसा नहीं था . पर मैंने कहा , लिखते तो जाओ ... और आज मुकेश की सोच ने शब्दों से मित्रता कर ली है और शब्दों ने उसे एक सफल ब्लॉगर बना दिया . अब ब्लॉग की दुनिया में उसकी अपनी एक पहचान है .</div><div>चुलबुला तो वह आज भी है , पर उस चुलबुलेपन के अन्दर एक शांत, गंभीर व्यक्ति है , जो हँसते हुए भी ज़िन्दगी को गंभीरता से समझता है .</div><div>कई बार हम ज़िन्दगी की ठोकरों से आहत कुछ लोगों से कतराते हैं, खुद पे झुंझलाते हैं - फिर अचानक हम बड़े हो जाते हैं और खुद से बातें करते हुए सुकून पाने लगते हैं कि यदि ज़िन्दगी यूँ तुड़ीमुड़ी न होती, अभाव के बादल घुमड़कर न बरसे होते तो जो खिली धूप आज है, वह ना होती !</div><div>मुकेश से मेरी मुलाकात 'अनमोल संचयन' के विमोचन में प्रगति मैदान में हुई , बोलने में शालीनता ,बैठने में शालीनता , चलने में शालीनता ...पूरे व्यक्तित्व में कुछ ख़ास था , जिसे शब्दों में नहीं बता सकती , ..... हाँ मुकेश का परिचय - संभव है , आपसे बहुत कुछ कह जाए -</div><div><br /></div><div><br /></div></span></div></span><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; line-height: normal; "><br /></span></span><div><span class="Apple-style-span"><div><span style="font-family: arial; font-size: small; line-height: normal; "><div><div>४ सितम्बर १९७१, आनंद चतुर्दशी के दिन मेरा जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में बिहार के बेगुसराय जिला में हुआ था...! वैसे तो राष्ट्रकवि "दिनकर" का जन्म स्थान भी इसी जिले में है....:)...गरीब परिवार और छः भाई बहन में सबसे बड़ा होना...शायद मेरे जीवन में मेरे लिए एक अवरोधक की तरह था..उस पर ये भी पता नहीं था की पढाई क्यूं कर रहे हैं...! विज्ञान(गणित) में स्नातक(प्रतिष्ठा) प्रथम स्थान से उतीर्ण हुआ...क्योंकि घर वालो का मानना था की विज्ञान की पढाई ही सर्वश्रेष्ट है..!काश कुछ और विषय लिया होता..! बाद में ग्रामीण विकास में स्नातकोतर डिप्लोमा भी किया...! चूँकि नौकरी जरुरी थी...तो एक आम छात्र की तरह सामान्य ज्ञान को hobby की तरह अपना लिया..! इस कारण quiz में बहुत सारे पुरूस्कार मिले, all bihar quiz championship में एक बार runner - up भी रहा..! भाग्य का जायदा साथ न दे पाना और शुरू से आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के कोशिश के कारण भी जायदा कुछ अर्जित नहीं कर पाया...वो तो भगवन का शुक्र है की उम्र बीतने से पहले ही सरकारी नौकरी मिल गयी! सम्प्रति अभी कृषि राज्य मंत्री के साथ जुड़ा हुआ हूँ! मेरी जिंदगी मेरी पत्नी अंजू और दो बेटे यश और ऋषभ हैं...! रश्मि दी के द्वारा संकलित "अनमोल संचयन" में मेरी एक कविता प्रकाशित हो चुकी है....! बहुत बेहतर तो नहीं लिख पता हूँ..पर रश्मि दी के motivation से आज से तीन साल पहले ब्लॉग बनाया था.."जिंदगी की राहें" के नाम से...</div><div><br /></div><div>मैं हूँ मुकेश कुमार सिन्हा ..</div><div>सरकारी नौकर ही नहीं ..कवि भी हूँ सरकार</div><div>विवाहित हूँ..और हूँ दो बच्चों का बाप..</div><div>खुशियाँ उनकी</div><div>बस इतनी सी है दरकार</div><div>सीधा सरल सहज..</div><div>साधारण सा हूँ इंसान..</div><div>सादगी है मेरी पहचान ....</div><div>नैतिक कर्त्तव्य ..</div><div>सामाजिक दायित्व..</div><div>इन सबका मुझे है भान</div><div>भावों की रंगोली सजाना</div><div>खुशियों के बीज बोना</div><div>.आनंद के वृक्ष उगाना</div><div>जीवन का है ये अरमान</div><div>बस इतना सा ही है मेरा काम.</div></div><div><br /></div></span></div></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; "><div><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; "><br /></span></div></span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; ">मुकेश का ब्लॉग - </span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; ">http://jindagikeerahen.blogspot.com/</span><span class="Apple-style-span"></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; "><br /></span></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com50tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-60963825673150845562011-07-06T17:11:00.001+05:302011-07-06T17:12:52.865+05:30अजय कुमार झा ... यानि कुछ भी कभी भी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFBt9iz-_qekpfssE8Hm-TDbEh4S7VhD7KdcSAvokcLefHNWOPSchuq7Q7XqBfg_MZrnNb_jldq1k1A6CkJglCeZMFi8U7sSVbBLgO16MqJANAaPkbi8ou39MIzAaJjpq9CD18cC-nJthJ/s1600/my+latest+photo.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 155px; height: 188px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFBt9iz-_qekpfssE8Hm-TDbEh4S7VhD7KdcSAvokcLefHNWOPSchuq7Q7XqBfg_MZrnNb_jldq1k1A6CkJglCeZMFi8U7sSVbBLgO16MqJANAaPkbi8ou39MIzAaJjpq9CD18cC-nJthJ/s320/my+latest+photo.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5626203384450471890" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">अंतरजाल की दुनिया में अजय कुमार झा ... यानि <b>कुछ भी कभी भी</b> ... इसका <b>ज्वलंत उदाहरण है उनका ये परिचय</b> , मैंने कहा - ' मेरी कलम के लिए आपकी कलम से मुख्य जानकारी चाहिए - बचपन से अब तक ' और उनका जवाब आया - 'बचपन से अब तक का ..हा हा हा ये तो बडा ही मजेदार परिचय मांग लिया आपने , लिख कर भेज सकता हूं , वो भी शायद देर रात तक क्योंकि शाम का वक्त कुछ ब्लॉगर मित्रों के नाम है , यदि इतना समय दे सकें तो मेहरबानी होगी ।' और मैंने कर दी मेहरबानी .... जो ख़ास शख्स होते हैं , उनकी मेहरबानी के लिए मेहरबानी ज़रूरी भी तो है ! <div>इनको मैंने पढ़ा , पर पढ़ने में पहली खासियत थी 'पटना' लिखा होना . अपने क्षेत्र से कोई हो तो बड़ा अच्छा लगता है , मुझे भी लगा - </div><div>'झा जी कहिन ' में अजय जी ज्यादा लोगों के करीब रहे . और झा जी कहिन भी में यह पृष्ठ <a href="http://ajaykumarjha.com/blog/%E0%A4%A4%E0%A5%82-%E0%A4%B9%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0/" target="_blank">http://ajaykumarjha.com/<wbr>blog/%E0%A4%A4%E0%A5%82-%E0%<wbr>A4%B9%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%<wbr>A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%<wbr>A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%<wbr>8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%<wbr>E0%A4%B0/</a> उनकी नींव की सशक्त दर्शाता है, देखकर आगत के स्वर सुनाई देते हैं . अजय जी की ख़ुशी वहाँ टिप्पणी में देखी जा सकती है . मैंने सोचा , आयुष ने उनके सिखाये को यूँ अंजाम न दिया होता तो झा जी ऐसा नहीं कर पाते , बस कहते ही रहते ! </div><div><br /></div><div>अब हम उस दिशा में कदम बढ़ाएं, जहाँ वह सब है जिसे उनको पढनेवाले जानना चाहेंगे औए खुद अजय जी बताना चाहेंगे , क्योंकि' कुछ भी कभी भी' के पीछे यही तो पृष्ठभूमि है -</div><div><br /></div><div><div><br /></div><div>सोच रहा हूं कि बचपन में मेरी क्या पहचान थी , एक बच्चा था , बस और क्या , पिता फ़ौजी और मां गृहणी , एक बडी बहन और एक छोटे भाई के बीच , यानि माता पिता की मंझली संतान । जाने अब मां और पिताजी को ये पहले ही आभास हो गया था कि शायद उन्होंने मेरी आदतों को देखकर मेरा घर का नाम रखा था "भोला "</div><div>,और मैं उन दिनों इतना ही भोला हुआ करता था कि दोस्त , पेड के नीचे ले जाकर , दूर शाख पर लटके मधुमक्खी के छत्ते में ढेला मार कर फ़ुर्र और मैं जब तक भागने की सोचता या मुझे खतरे का एहसास होता तब तक तो एक आध डंक खा चुका होता था फ़िर रोते धोते घर वापस । बचपन तो बचपन ही होता है , उस वक्त तो शायद शहरों का भी वो बचपन ही था , आज जब उन्हें जवां और मशरूफ़ होता देखता हूं तो अहसास होता है कि सडकों पर अपनी मस्ती में भागते तांगे , और पूरे रास्ते लगे हरे भरे पेड उनके बचपन की ही निशानी तो थे । हम भी उन दरख्तों के साथ ही बढते चले गए । </div><div><br /></div><div>आम बच्चों की तरह ,पतंग उडाने , कंचे खेलने , कॉमिक्स पढने , स्टार ट्रैक देखने , लट्टू नचाने और सायकल के टायर को डंडो से चलाने दौडाने तक के सारे खेल में खूब भागीदारी करते थे । ये तो याद नहीं कि किसी भी खेल के चैंपियन सरीखे पहचाने गए हों , लेकिन ये जरूर था कि हर खेल में इतनी महारत तो हो ही जाती थी कि दोस्तों की टीम चुनते समय अपना भी खास ख्याल रखा जाता था और इतना ही बहुत हुआ करता था उन दिनों । फ़ौजी कैंट की कॉलोनियों में बिजली जाने के बाद घंटे दो घंटे के अंधरे में छुपन छुपाई का वो दौर शायद ही उसके बाद चलन में रहा हो । पढाई लिखाई में यही हैसियत थी कि घर वाले निश्चिंत रहते थे , कभी अव्वल आना नहीं है और कभी फ़ेल होना नहीं है , सच कहें तो उस समय तो तैंतीस प्रतिशत पा लेने वाली ललक भी कभी नहीं जगी थी और मैट्रिक परीक्षा तक यही हाल रहा था । </div><div><br /></div><div><br /></div><div>एक खास बाद बचपन से लेकर युवापन तक और उसके बाद से लेकर शायद अब तक ये महसूस की अपने साथ कि जाने अनजाने दोस्तों के केंद्र में जरूर आता रहा । यानि कुल मिलाकर मैं वो बिंदु था जहां आकर सारी मित्र रेखाएं मिल जाती थीं । मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण पढाई लिखाई खत्म होते होते ही कैरियर बनाने संवारने की एक स्वाभाविक सी जिम्मेदारी ओढ ही ली जाती है सो हमने भी ओढ ली । अपनी स्थितियां कुछ ज्यादा दुश्वार इसलिए हुईं क्योंकि बडी बहन , वो भी जिसे पिताजी अपना बडा बेटा समझते थे और मां की पक्की सहेली थी वो , के अचानक चले जाने के बाद पिता मानसिक संतुलन खो बैठे और मां शरीर को घुन लगा बैठीं और अंतत: उन्होंने भी साथ छोड दिया । लेकिन वे दिन जिंदगी के सबसे कठिन दिनों में से एक थे । मुझे याद है कि कैसे एक हादसे ने मुझसे मेरा बचपन छीन कर मुझे रातों रात अपने मां पिता का अभिभावक बना दिया था । </div><div><br /></div><div>संघर्ष के दिन वो रहे जब , इस महानगर में हम कुछ दोस्त अपनी अपनी जगह तलाश रहे थे । कई क्षेत्रों में रुचि और प्रयास करने के बावजूद सरकारी सेवा को सबसे सुरक्षित मानते हुए किस्मत ने उसीसे जोड दिया । खुशकिस्मती ये रही कि सरकारी सेवा में आने के बावजूद भी क्षेत्र रहा विधि और न्याय , जिसका एक लाभ ये रहा कि खुद के अलावा मित्रों दोस्तों के बहुत ही काम आने का मौका मिल गया जो अब भी जारी है । पढने लिखने का शौक यूं तो मुझे शायद पहली बार तब हुआ था जब मैं ग्यारहवी कक्षा में था , रही सही कसर पूरी कर दी संपादकों के नाम पत्रों और विभिन्न रेडियो स्टेशनों की हिंदी सेवा जैसे बीबीसी , वॉयस ऑफ़ अमेरिका , रेडियो डोईचेवैले , और रेडियो जापान आदि जैसी सेवाओं में एक श्रोता के रूप में लिखे सैकडों पत्रों ने । इनके सहारे मिली पहचान (एक पाठक और एक श्रोता के रूप में ) ने मुझे न सिर्फ़ प्रेरणा दी बल्कि बहुत सी बारीकियां और एक पत्रकारीय गुण भी । यहां ये बताना दिलचस्प होगा कि समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र और रेडियो श्रोता के रूप में उन दिनों एक अनिवार्य नाम सा बन चुका था मैं । और जो थोडी बहुत कमी रही वो पूरी कर दी अंग्रेजी साहित्य की प्रतिष्ठा की पढाई और रूममेट्स के हिंदी साहित्य के प्रेम ने । </div><div><br /></div><div><br /></div><div>इसने एक ऐसे सफ़र की शुरूआत कर दी जिसने मुझे एक नई दुनिया ही दे दी । साहित्य की , भाषा की , शब्दों की दुनिया , और अपनी आदत के अनुरूप मैं उसमें ऐसा रम गया कि अब ये एक जुनून बन गया है । यहां शायद ये बताना ठीक होगा कि अपने कार्यालय के अलावा मैं अब भी पूरे चौबीस घंटों में कम से कम सात आठ घंटे तो लिख पढ ही लेता हूं , क्या , ये मैं खुद भी नहीं जानता , यानि तय नहीं होता है कुछ भी । कभी सत्रह अखबारों में से सारे के सारे , कभी फ़ेसबुक पर सारे मित्रों के स्टेटस तो कभी जाने कौन कौन से एग्रीगेटर्स से तलाश कर और एक पोस्ट से दूसरी पोस्टों तक भटकते हुए , जितना पढता जाता हूं , उतना ही लिखता भी जाता हूं , और अब तक ये सफ़र अनवरत जारी है । </div><div><br /></div><div><br /></div><div>अजय कुमार झा </div><div>मेरा अंतर्जाल पता :-<a href="http://blog.ajaykumarjha.com/" target="_blank">http://blog.ajaykumarjha.<wbr>com/</a></div><div>11/248 3rd floor,</div><div>geeta colony,</div><div>delhi-110031</div><div>9871205767</div><div><br /></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-84298689933186542032011-07-05T15:47:00.002+05:302011-07-05T15:49:11.512+05:30कहो तो किस्मत बदल दूँ ( संगीता पुरी )<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhz2c-2vitiX6iwR8OE2p1t5l9LJDB6QgmB1HhRGBvZHg0lLsFLghWZMumrjOJ-QNZXYrpQx4_iCbsVjFRGTEc_LOtUFU7SxIokhtTSLUto20NiwyIVnTVHTQwVlwYustM_3IXRWBz9mSHI/s1600/IMG_1216.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 220px; height: 151px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhz2c-2vitiX6iwR8OE2p1t5l9LJDB6QgmB1HhRGBvZHg0lLsFLghWZMumrjOJ-QNZXYrpQx4_iCbsVjFRGTEc_LOtUFU7SxIokhtTSLUto20NiwyIVnTVHTQwVlwYustM_3IXRWBz9mSHI/s320/IMG_1216.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5625810766557363650" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div>संगीता जी .... उनसे मेरी मुलाकात 'हिंदी भवन' में हुई , मुलाकात हमारी मुस्कुराहट की और जाना कि वे तो भविष्य देखती हैं . आधुनिकता की छुवन से दूर संगीता जी के चेहरे पर आत्मविश्वास का जो तेज था , वह किसी के कुछ मानने न मानने का मोहताज नहीं था . सधे क़दमों से मंच की तरफ बढ़ते उनके कदम उनकी प्रखरता को स्थापित कर रहे थे . </div><div>लौटकर मैं भी अपनी परेशानी का चिटठा लेकर मेल के माध्यम से उन तक पहुँच गई अपने बच्चों के बारे में जानने की उत्कंठा लिए और इतने स्नेहिल ढंग से उन्होंने जवाब दिया कि बता नहीं सकती.... बस इतना कह सकती हूँ कि आसमान यूँ हीं हर किसी के आगे नहीं झुकता !</div><div><br /></div><div><b>होते हैं रूबरू संगीता जी से , मेरी कलम से आगे बढ़कर उनकी कलम तक ...</b></div><div><br /></div><div><div>19 दिसंबर 1963 को बोकारो जिले के पेटरवार नामक एक गांव(तब गिरीडीह जिले</div><div>के अंतर्गत था) में सुशिक्षित और महत्वाकांक्षी माता पिता (श्री विद्या</div><div>सागर महथा और श्रीमती वीणा देवी) की पहली संतान के रूप में मेरा जन्म</div><div>हुआ , इस कारण बचपन के पालन पोषण में मेरे शारीरिक और मानसिक विकास में</div><div>उनका पूरा ध्यान होना स्वाभाविक था। खासकर इस कारण भी कि उनका कैरियर</div><div>माता पिता की अस्वीकृति की भेट चढ चुका था और वे दादाजी के व्यवसाय को</div><div>संभालने के लिए खुद परिवार सहित गांव में निवास करना आरंभ कर चुके थे।</div><div>उन्हें भय था कि गांव के बच्चों के साथ खेल कूद में ही मैं अपना जीवन</div><div>बर्वाद न कर दूं , इसलिए वे मेरे क्रियाकलापों पर खास ध्यान देते।</div><div>हालांकि बचपन में मैं शैतानी करने में गांव के सारे बच्चों से कम न थी ,</div><div>पर शुक्र था कि पढाई में भी कभी पीछे न रही। पापाजी की महत्वाकांक्षा ने</div><div>मात्र छह वर्ष की उम्र में मुझे चौथी कक्षा में प्रवेश करा दिया , पर मैं</div><div>हर कक्षा की पुस्तकों को सही ढंग से समझती , हर विषय की विषयवस्तु को</div><div>संभालती आगे बढती चली गयी और बहुत जल्द 1978 में प्रथम श्रेणी से</div><div>मैट्रिक की परीक्षा पास की।</div><div><br /></div><div>आगे की पढाई के लिए दादाजी मुझे होस्टल भेजने को तैयार न थे , गांव में</div><div>कॉलेज की सुविधा न थी , मेरा अध्ययन बाधित ही हो गया होता , पर अचानक</div><div>गांववालों ने एक प्राइवेट कॉलेज खोलने का निश्चय किया। पापाजी के पास</div><div>उसके प्रिंसिपल बनने का प्रस्ताव आया , मेरे लिए पापाजी ने कॉलेज को</div><div>सेवा देने का निश्चय किया और इस तरह इंटर की मेरी पढाई पूरी हुई। इंटर</div><div>पास करने के बाद ग्रेज्युएशन में पुन: समस्या आयी। प्राइवेट कॉलेजों से</div><div>पढाई करने पर ‘ऑनर्स’ नहीं मिलता , इसलिए कहीं एडमिशन लेना आवश्यक था ,</div><div>पर दादाजी बिल्कुल भी तैयार न थे। मेरी पढाई को लेकर मम्मी और पापाजी</div><div>तनाव में थे ही कि अचानक मामाजी का पत्र आया। वे सी सी एल में सर्विस</div><div>करते थे और हजारीबाग के एक छोटी सी सी सी एल की कॉलोनी में रहते थे ,</div><div>जहां बच्चों की पढाई की सुविधा नहीं थी। बच्चों की पढाई के लिए</div><div>उन्होने हजारीबाग में इसी महीने किराए पर एक घर लिया था और मामी सहित</div><div>बच्चों को शिफ्ट करा दिया था। उन्होने पत्र में मेरा नामांकण भी के बी</div><div>महिला कॉलेज , हजारीबाग में कराने का प्रस्ताव रखा था । गणित में रूचि</div><div>होने के कारण मैने अर्थशास्त्र में ऑनर्स करने का निश्चय किया , ताकि</div><div>इसके माध्यम से सांख्यिकी और इकोनोमैट्रिक्स को पढते हुए मुझे कुछ</div><div>संतोष हो सके। इस तरह मेरी पढाई की निरंतरता बनती गयी।</div><div><br /></div><div>पढने पढाने में मेरी शुरू से ही रूचि रही है , छोटे तीन भाइयों और दो</div><div>बहनों में से किसी की भी कोई परीक्षा होती , मैं उन्हें पढाने में</div><div>व्यस्त हो जाया करती थी। महिलाओं के लिए कैरियर के रूप में शिक्षा का</div><div>क्षेत्र मेरे लिए शुरू से ही पसंदीदा भी रहा है। कॉलेज करते वक्त महिला</div><div>लेक्चररों के जीवन से मैं खासी प्रभावित हुई। इसलिए एम ए करने का</div><div>निश्चय किया। पर एम ए करने से ही क्या हो , तब लेक्चररों की स्थायी</div><div>नियुक्ति नहीं हो रही थी। शहरी क्षेत्र के युवा अस्थायी तौर पर क्लासेज</div><div>ले लिया करते थे , धीरे धीरे उनकी स्थायी नौकरी भी हो गयी। गांव में</div><div>निवास करनेवाली मेरे लिए यह संभव नहीं था , 1988 में विवाह के बाद भी एक</div><div>छोटी कॉलोनी में ही मेरा रहना हुआ। यहां भी कैरियर का कोई विकल्प न था ,</div><div>मन मसोसकर ससुराल में अपने पारिवारिक दायित्वों को निभाती चली गयी।</div><div><br /></div><div>विद्यार्थी जीवन से ही मेरी रूचि ज्योतिष की ओर गयी , जिसमें पापाजी को</div><div>दिन रात उलझे हुए देखा था। पापाजी बहुत सी ऐसी बातें पहले बताते , जो बाद</div><div>में घटित होती थी। विभिन्न ज्योतिषीय पत्र पत्रिकाओं में पापाजी के लेख</div><div>प्रकाशित होते और उन्हें तरह तरह की उपाधियां मिलती , जिसे देखकर मैं</div><div>प्रभावित हुआ करती थी। ज्योतिष के अध्ययन के क्रम में उन्होने इसकी कई</div><div>कमजोरियां महसूस की थी और उसे दूर करते हुए ज्योतिष की एक शाखा के रूप</div><div>में ‘गत्यात्मक ज्योतिष’ का विकास 1975 से 1987 के दौरान कर लिया था।</div><div>विवाह के बाद अपनी पहचान को खोते देख मैने भी ज्योतिष का अध्ययन आरंभ</div><div>किया। पति के भरपूर सहयोग के कारण दोनो बेटों के पालन पोषण की</div><div>जिम्मेदारियों के बावजूद भी 1991 से ही विभिन्न ज्योतिषीय पत्र</div><div>पत्रिकाओं में मेरे आलेख प्रकाशित होने शुरू हो गए और दिसंबर 1996 मे ही</div><div>मेरी पुस्तक ‘गत्यात्मक ज्योतिष: ग्रहों का प्रभाव’ प्रकाशित होकर आ</div><div>गयी। इसे पाठकों का इतना समर्थन प्राप्त हुआ कि प्रकाशक को शीघ्र ही</div><div>1999 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पडा।</div><div><br /></div><div>वर्ष 2002 में पापाजी के सिद्धांतों को कंप्यूटराइज्ड करने की इच्छा</div><div>ने मुझे कंप्यूटर क्लासेज जाने को प्रेरित किया। एम एस ऑफिस सीखकर ही</div><div>मैने ‘गत्यात्मक ज्योतिष’ के सिद्धांत की कुछ प्रोग्रामिंग कर ली थी।</div><div>एक्सेल की शीट पर सारी गणनाएं और एम एस वर्ड के मेल मर्ज का सहारा लेकर</div><div>हर ग्रह स्थिति की भविष्यवाणी के लिए प्रोग्रामिंग कर लिया था , पर उससे</div><div>मुझे संतोष नहीं हो सका और पुन: वी बी सीखने का मन बनाया। वी बी सीखने के</div><div>बाद ‘गत्यात्मक ज्योतिष’ के सिद्धांतों पर आधारित एक सॉफ्टवेयर</div><div>‘प्रीडेस्टीनेशन’ तैयार कर चुकी हूं , जो अभी मेरे पीसी में ही इंस्टॉल</div><div>है। इस सॉफ्टवेयर में जन्मतिथि , जन्मसमय और जन्मस्थान भरने पर</div><div>जन्मकालीन ग्रहों के आधार पर यह व्यक्ति के पूरे जीवन के उतार चढाव ,</div><div>महत्वाकांक्षा और सफलता का जीवनग्राफ निकालने के साथ साथ व्यक्ति के</div><div>चरित्र तथा छह छह वर्षों की परिस्थितियों के बारे में जानकारी देता है।</div><div>इस सॉफ्टवेयर में हिंदी में काम करने में कई बाधाएं आयी थी।</div><div><br /></div><div>अब ‘गत्यात्मक ज्योतिष’ के प्रचार प्रसार के कार्यक्रम को अंजाम देने</div><div>की बारी थी , पर मेरे घर से बाहर कदम रखने से बच्चों के पढाई लिखाई में</div><div>व्यवधान आता , इसलिए मैने घर में रहकर ही 2003 में ‘गत्यात्मक</div><div>ज्योतिष’ को इंटरनेट के माध्यम से प्रचारित प्रसारित करने का कार्यक्रम</div><div>बनाया। बी एस एन एल ने अपने ग्राहकों को कुछ वेब पर कुछ पन्ने दिए थे ,</div><div>मैने उसमें ही इससे संबंधित जानकारी डाली। उस समय वेब पर हिंदी लिखने के</div><div>बारे में मुझे जानकारी नहीं थी , इसलिए अंग्रेजी में ही सारे लेख डालें।</div><div>2004 में पहली बार ब्लॉग बनाकर उसमें हिंदी के कृतिदेव फॉण्ट में अपना</div><div>एक प्रकाशित करने की कोशिश की , पर हिंदी प्रकाशित नहीं हो सकी। 2007 में</div><div>रजनीश मंगला जी के कृतिदेव से यूनिकोड में परिवर्तित करने के टूल की</div><div>जानकारी होते ही मैने सफलतापूर्वक अपने आलेखों को ब्लॉग में प्रकाशित</div><div>किया। उस समय मैं वर्डप्रेस में लिखा करती थी , एक वर्ष बाद 2008 में</div><div>ब्लॉगस्पॉट पर लिखना आरंभ किया। शीघ्र ही कई ब्लॉग बना लिए और उसमें</div><div>लगातार लिखती रही। ज्योतिष से जुडे लेखों के अलावे मैने कुछ कहानियां भी</div><div>लिखी हैं।</div><div><br /></div><div>इतने वर्षों से ज्योतिष के अध्ययन मनन के बाद अपने विचारों को</div><div>अभिव्यक्त करने के लिए ब्लॉगिंग का एक आधार पाकर बहुत खुशी मिली ,</div><div>अपने ब्लॉग में जहां एक ओर पाठकों को ज्योतिष की इस नई शाखा से परिचय</div><div>करवाया गया है , वहीं दूसरी ओर समय समय पर कुछ सटीक भविष्यवाणियां कर</div><div>लोगों को ज्योतिष के प्रत विश्वास को बढाया गया है। जनसामान्य में</div><div>ज्योतिष और धर्म से जुडी भ्रांतियों को दूर करना ‘गत्यात्मक ज्योतिष’</div><div>का मुख्य लक्ष्य है और इसमें मुझे सफलता मिलती दिखाई दे रही है। बहुत</div><div>सारे पाठकों से विचारों का आदान प्रदान , तर्क वितर्क करना अच्छा लगता</div><div>है। ‘गत्यात्मक ज्योतिष’ के दोनो ब्लोगों ने एक एक लाख की विजिटर्स</div><div>संख्या को पार कर लिया है , पाठकों के इस प्रकार सहयोग मिलने से मैं</div><div>बहुत खुश हूं। इसी दौरान दोनो बेटे अपनी इंजीनियरिंग की पढाई में</div><div>व्यस्त हो चुके हैं , इसलिए आनेवाले दिनों में मैं ब्लॉगिंग को अधिक</div><div>समय दे सकूंगी , उम्मीद करती हूं कि पाठकों का पूर्ण सहयोग मुझे</div><div>प्राप्त होगा और समाज से ज्योतिषीय भ्रांतियों को दूर करने के प्रयास</div><div>में मुझे सफलता मिलेगी।</div><div><br /></div><div><br /></div><div><a href="http://www.gatyatmakjyotish.com/" target="_blank">www.gatyatmakjyotish.com</a></div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-34703512434508152532011-07-04T17:03:00.001+05:302011-07-04T17:07:00.428+05:30भीड़ में भी अलग- (एस.एम् हबीब)<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjeoeWDT87IS8-OEojvxqdqshcXx50J964enEXBCiEbH2TRL3_wCimOA4ZHBxOIPmTP7rTcUbCxQEU299N_-aWvyIs7lALyE_xz-VcEyxZgCbJI0Vnv_fiAVZSWAlpPxIQO_HPazYbe0Za2/s1600/45.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 165px; height: 220px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjeoeWDT87IS8-OEojvxqdqshcXx50J964enEXBCiEbH2TRL3_wCimOA4ZHBxOIPmTP7rTcUbCxQEU299N_-aWvyIs7lALyE_xz-VcEyxZgCbJI0Vnv_fiAVZSWAlpPxIQO_HPazYbe0Za2/s320/45.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5625459731746918594" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div>एस.एम् हबीब से मेरी मुख्य पहचान हुई द्रौपदी के माध्यम से ... जी हाँ द्रौपदी - जिसे संगीता स्वरुप जी ने प्रासंगिक तौर पर उठाया , मैंने द्रौपदी को आधार बनाया एस.एम्.हबीब ने द्रौपदी के प्रश्नों का उत्तर दिया - <a href="http://urvija.parikalpnaa.com/2011/05/blog-post_6242.html" target="_blank">http://urvija.parikalpnaa.com/<wbr>2011/05/blog-post_6242.html</a></div><div>और इसके बाद गहराई से मैंने इनको पढ़ना शुरू किया और जाना उनको उनके ही शब्दों में - <b>ज़मीरे खुद में देखा, फ़क़त तारीको खलाश है. खुद को न पा सका, मुझे अपनी ही तलाश है.</b></div><div>मैं और प्रभावित हुई जब मैंने पढ़ा - </div><div><b>एक बुनियादी फर्क होता है</b></div><div><b>इंसान और पत्थर में,</b></div><div><b>चेतनता और जड़ता का...</b></div><div><b>किन्तु दोनों में</b></div><div><b>एक विचित्र संयोग भी देखा मैंने-</b></div><div><b>"लहू बहाते वक़्त अक्सर पत्थर हो जता है इंसान!!!"</b> सूक्ष्म विचारों के बीच से जो गुजरता है , वह भीड़ में भी अलग होता है !</div><div><br /></div><div>भीड़ में होकर भी भीड़ से अलग एस.एम्.हबीब को जानें उनके द्वारा -</div><div><b><br /></b></div><div>नाम - एस. एम्. हबीब (संजय मिश्रा 'हबीब')</div><div>जन्म - १४ जुलाई १९६५</div><div>जन्मस्थान - रायपुर छत्तीसगढ़ </div><div>पिताजी - स्व. गोपाल चन्द्र मिश्रा </div><div>शिक्षा - स्नातक </div><div>कार्यक्षेत्र - (शासकीय) नेत्र सहायक अधिकारी रायपुर छत्तीसगढ़ </div><div>प्रकाशन - कलरव (संयुक्त काव्य संग्रह)</div><div> - स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में कवितायें, कहानी, व्यंग्य प्रकाशित.</div><div> - (कुछ किताबों में आवरण निर्माण और रेखाचित्र) </div><div>सम्पादन - 'ब्रह्मास्त्र - १०' (सामाजिक पत्रिका)</div><div>पुरस्कार - "साहित्य प्रहरी पुरस्कार - 2010" (चेतना साहित्य एवं कला परिषद् छ. ग.)</div><div>रूचि - पठन, लेखन, चित्रकारी. </div><div>पता - ३०/५१८, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्रतिमा के पीछे, आजाद चौक रायपुर छत्तीसगढ़.</div><div> ४९२००१. फोन - ०७७१-४०१०८०८ | ९३२९५८०८०३ | ९४०६३८०८०३ </div><div><br /></div><div>घर में सभी को पुस्तकों से बड़ा लगाव रहा. बचपन से ही दादा जी को पढ़ते देखा. उनके पास संस्कृत, हिंदी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, उडिया आदि भिन्न भिन्न भाषाओं की जाने कितनी किताबें थीं. उनका इन सभी भाषाओं पर कमाल की पकड़ थी. उनसे ही मुझे उर्दू का कायदा, और बांग्ला भाषा का प्रारंभिक ज्ञान मिला और एनी भाषाओं के प्रति जिज्ञासा भी जागी. मैनें एक बार उनसे उत्सुकतावश पूछता "बाबा, आपने कोई किबाब नहीं लिखी?" वे हंस कर एकदम सादगी से बोले "नहीं रे... दुनिया में इतनी सारी किताबें हैं पढने के लिए, इतनी चीज़ें हैं सीखने के लिए कि वक़्त ही नहीं बचता कुछ लिखूं..." और उन्होंने मुझे एक किताब दी. अनिल बर्वे की "थेंक यु मि. ग्लाड" देशभक्ति और मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण इस प्रहसन ने जैसे विशाल साहित्य जगत का द्वार मेरे लिए खोल दिया... दादा जी की प्रेरणा से जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेनू, आचार्य चतुरसेन शाष्त्री, कालिदास, महादेवी वर्मा, निराला, पन्त, बच्चन, धर्मवीर भारती, अमृता प्रीतम, सहित टालस्टाय, गोर्की, मोपांसा, एंटन चेखव इत्यादि कालजयी रचनाकारों की किताबों से गहरी मित्रता हो गयी... आज भी ये मेरे अभिन्न मित्र हैं और मेरा संबल भी.... इनकी उंगली थामे चलते हुए ग्रेजुएसन के बाद कुछ वक़्त हाई स्कूल में अध्यापन कार्य किया साथ ही कुछ समाचार पत्रों में कार्य करते हुए नेत्र विज्ञान में डिप्लोमा की और वर्तमान में शासकीय चिकित्सालय में कार्यरत हूँ. बहुत ज्यादा लेखन नहीं किया है. कभी अंतर में भावों का दरिया फूट पड़ता है तो रचनाओं के रूप में संकलित कर लेता हूँ. चेतना साहित्य एवं कला परिषद् द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह 'कलरव' में छत्तीसगढ़ प्रदेश के छः प्रतिष्टित कवियों की रचनाओं के साथ मेरी १० कवितायें संकलित हैं का विमोचन अभी हाल में संपन्न हुआ है. आतंकवाद पर लिखी अपनी एक कहानी "अतीत" का नन्हा पात्र 'हबीब' अनायास मेरे नाम के साथ चलने लगा.... इस कथा के एक संवाद " कि हबीब, तू अपने नाम की तरह सारी खिलकत का दोस्त बनना" के सादे व सहज अर्थ को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता हूँ.... </div><div><br /></div><div>मुझसे मिलें - <a href="http://smhabib1408.blogspot.com/" target="_blank">http://smhabib1408.blogspot.<wbr>com/</a></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-65975532858182926182011-07-03T18:34:00.001+05:302011-07-03T18:34:33.194+05:30वाकई हम कायल हैं - (रेखा श्रीवास्तव )<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: normal; "><table cellpadding="0" class="cf hr" style="border-collapse: collapse; margin-top: 8px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 5px; "><tbody><tr><td class="hw" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; font-family: arial, sans-serif; vertical-align: middle; padding-right: 7px; "><span id=":10f"><a target="_blank" download_url="image/jpeg:166357_1814037754047_1333142229_1982429_5407126_n.jpg:https://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=8ad059de94&view=att&th=130f00bd8b6b6c1c&attid=0.1&disp=safe&realattid=f_gpnzzntl0&zw" title="Click to view OR drag to your desktop to save" href="https://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=8ad059de94&view=att&th=130f00bd8b6b6c1c&attid=0.1&disp=inline&realattid=f_gpnzzntl0&zw" style="color: rgb(0, 0, 204); "><img class="hv" src="https://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=8ad059de94&view=att&th=130f00bd8b6b6c1c&attid=0.1&disp=thd&realattid=f_gpnzzntl0&zw" alt="166357_1814037754047_1333142229_1982429_5407126_n.jpg" style="float: left; border-top-width: 2px; border-right-width: 2px; border-bottom-width: 2px; border-left-width: 2px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(195, 217, 255); border-right-color: rgb(195, 217, 255); border-bottom-color: rgb(195, 217, 255); border-left-color: rgb(195, 217, 255); padding-top: 5px; padding-right: 5px; padding-bottom: 5px; padding-left: 5px; " /></a></span></td><td style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; font-family: arial, sans-serif; "><b><br /></b></td></tr></tbody></table><br /></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-size: small; line-height: normal; ">कोई हंसेगा नहीं .... आपस की बात है, जब मेरे पास पहली बार रेखा श्रीवास्तव जी के ब्लॉग का लिंक आया और मैं वहाँ गई तो सच कहती हूँ - मेरे तो हाथ पाँव फूल गए ... हर आर्टिकल किसी शोध से कम नहीं लगता था और अज्ञानी की तरह टुकुर टुकुर देखती, पढ़ती ... समस्या तो तब आती जब अंत में टिप्पणी देने की बारी आती ! ' <b>संसद के कारनामे</b>', '<b>मी लॉर्ड हम भूखे मर जायेंगे</b>' ... ऐसे आलेख इनके समक्ष मुझे नतमस्तक कर देता और नतमस्तक मैं बाँए-दांये देखती अपने घर लौट आती - <b>कई बार बिना टिप्पणी दिए </b>और बाई गौड मुझे लगता रेखा जी ने मुझे पकड़ लिया है . ये समस्या थी ,<b> मेरा सरोकार , मेरी सोच ... </b>में ,<b> hindigen </b>में मुझे अपनी खुराक मिली , मन ही मन धन्यवाद दिया - चलो कुछ तो मेरे लिए परोसा . <div>परिकल्पना ब्लोगोत्सव के आयोजन में अचानक रेखा जी मुझे मिलीं ... फिर अन्दर में नन्हा मन डरा पर ऊपर से बोला - नमस्ते नमस्ते ... बोलिए , यदि मैं अपनी इस स्थिति का खुलासा ना करती तो क्या आप समझ पाते ! <span style="color: rgb(102, 78, 56); font-family: 'trebuchet ms', verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 19px; "><a href="http://hindigen.blogspot.com/" rel="contributor-to nofollow" target="_blank" style="font-weight: bold; "></a></span></div><div>अभी हाल में बचपन के संस्मरण की मांग ने , और उस संस्मरण पर उनकी टिप्पणी ने कहा - '<b>घबराने जैसी कोई बात नहीं , ये तो बहुत अच्छी हैं '</b> . पर विद्वता ... वाकई हम कायल हैं . </div><div> </div><div> अब आगे की यात्रा उनके शब्दों में - </div><div><br /></div><div><div><br /></div><div> अपने बारे में कुछ विशेष कहने को नहीं है फिर भी बहुत कुछ है कि शब्दों की सीमा में बांधना मुश्किल हो रहा है. मैंने एक छोटे से कस्बे बुंदेलखंड के उरई नामक जगह पर जन्म लिया. मध्यम वर्गीय कृषि और गाँव से जुड़ा मेरा परिवार. लेकिन पापा मेरे शहर में ही पढ़े रहे सो हम भी वही के हो लिए. मेरे पापा वाकई विद्वान् थे उस समय उन्हें पांच भाषाओं पर पूरा अधिकार था. वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और फारसी भाषा जानते थे. पढ़ने के बेहद शौक़ीन और यही रोग हम भाई बहनों में भी लग गया. मूल्यों औ सिद्धांतों का पालन भी हमें विरासत में मिला और उसे समय के साथ भी मैं छोड़ नहीं पाई वैसे बहुत कष्ट पाया और वो हासिल न कर सकी जिसकी मैं हक़दार थी लेकिन समझौता मुझे कभी मंजूर नहीं था. मेरे आदर्श और मूल्य ही मेरी सबसे बड़ी दौलत हैं. </div><div> मेरे पापा भी कविता लिखते थे, (लेकिन ये बात मुझे पता नहीं थी) मैंने बचपन से लिखना शुरू कर दिया था पहली कहानी १० वर्ष कि आयु में "दैनिक जागरण " के बाल जगत में प्रकाशित हुई थी. चार बहनों में सबसे बड़ी थी और भाई साहब मुझसे बड़े. मैं सबसे अलग थी सिर्फ घर में नहीं बाहर भी लोगों कि प्रिय थी. शादी से पहले डबल एम ए कर चुकी . सामाजिक समस्याओं से मेरा सरोकार हमेशा से ही रहा और लेखनी उस पर ही चलती रही. अधिकतर यथार्थ पर चली और वही आज भी मेरा ब्लॉग यथार्थ उसका साक्षी है. १९७२ में लेखन ने अपने पर व्योम में फैलाने शुरू किये और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशन शुरू हो गया. १९७५ में मेरी पहली कविता कादम्बिनी में पहली बार प्रकाशित हुई. फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. लेख अधिक लिखे साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, मनोरमा, सारिका, सरिता और नवनीत सभी में प्रकाशन हुआ. अपने कस्बे में ही नहीं बल्कि बाहर भी पहचान बन चुकी थी. </div><div> १९८० में शादी के बाद कानपुर आह गयी लेकिन मेरे लेखन के कद्रदान सिर्फ मेरे पतिदेव ही थे. छोटी बहू के दायित्वों तले मेरा लेखन दम तोड़ने लगा . ३१ साल पहले आम घरों की तरह मेरा भी घर था. काम और काम के ही सब चाहने वाले थे. हर घर की तरह भी मुझे भी अपने को सिद्ध करना पड़ा. बी एड और एम एड शादी के बाद किया. जो एक अग्नि परीक्षा थी. लेकिन हारी नहीं क्योंकि साथ देने वाले का पूर्ण सहयोग रहा. मेरे नोट्स तक बनवाये. आम घरों की तरह से कटाक्ष, असहयोग और छोटे होने की पीड़ा मैंने भी झेली और उसको डायरियो में कैद करती गयी तभी इतना सब झेल सकी. लिखने पर विराम सा लग गया . मेरी दो बेटियाँ हैं और दोनों ही मेडिकल क्षेत्र से जुड़ी हैं. </div><div> १९८६ में आई आई टी में नौकरी लगी एक साल बाद मशीन अनुवाद से जुड़ी. कंप्यूटर तब इतने कॉमन नहीं थे. धीरे धीरे मिले और उसकी ए बी सी डी वहीँ गुरुजनों से सीखी. और फिर 'करत करत अभ्यास ते....' पारंगत हो गयी. शौकिया तौर पर कानपुर विश्वविद्यालय से डिप्लोमा कोर्स किया जिसका सर्टिफिकेट आज भी वहीँ पड़ा है. </div><div>जब नेट का प्रयोग करने को मिला तो ब्लॉग के बारे में जाना और बना ही डाला फिर खो गया और मैं भी भूल गयी. फिर कभी यूँ ही चलते चलते फिर मुलाकात हो गयी तो फिर मैं ऑफिस में एक डायरी रखती थी जिसमें कविता, कहानी, लेख लिखती रहती थी. बीच के वर्षों में लेखनी सोयी नहीं - संयुक्त परिवार और नौकरी के बीच जूझती रही लेकिन संवेदनशील मन तूफान रहित तो नहीं था - आक्रोश, विवशता और अन्याय के खिलाफ जुबां नहीं खुल पाई तो क्या कलम पर पहरे कोई नहीं लगा पाया और जो लिखा जाता रहा संगृहीत होता रहा. </div><div> ब्लॉग बना कर सब कुछ उस पर डाल दिया. अब तो निर्बाध कलम चलती है क्योंकि बेबाक बोलने, लिखने और कहने से डरती नहीं हूँ. मेरी पहचान बचपन से लेकर आज तक जहाँ भी रहीं अलग बनी रही. आज भी है. मेरे लेखन ने मुझे एक नई पहचान स्कूल के समय में जब देश में खाद्य समस्या में चुनौती बनी थी तब इंटर कॉलेज में आठवें कक्षा की लड़की ने कलम चला कर अपना नाम सब स्कूलों के बीच दर्ज करवा कर पहला पुरस्कार जीता था. आई आई टी में भी सिर्फ दो बार हिंदी पखवारे में कविता पथ करके प्रथम पुरस्कार प्राप्त किये. ब्लॉग बनाने अपने ब्लोगर मित्रों से बहुत दिशा निर्देश मिला तो कुछ कर पा रही हूँ. मेरे ब्लॉग लेखन को जनसत्ता, हिंदुस्तान, उदंती पत्रिका, और भी कई पत्रों में स्थान दिया गया लेकिन सच कहूं - मुझे खुद पता नहीं चल पता है कि क्या कहाँ ले लिया गया है ? . ये सब मुझे मेरे ब्लोगर बंधुओं से ही खबर मिल पाती है क्योंकि मैं ब्लॉग जगत में घूमने का समय काम निकाल पाती हूँ . ब्लॉग जगत में परिकल्पना, वटवृक्ष पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहती हूँ. अभी हाल में ही प्रकाशित " हिंदी ब्लोगिंग - अभिव्यक्ति की नई क्रांति" जो अविनाश वाचस्पत और रवींद्र प्रभात द्वारा सम्पादित पुस्तक में भी एक पृष्ठ मेरे नाम भी है. बस इतनी सी कहानी है.</div><div> जीवन के प्रति मेरा यही दृष्टिकोण रहा है, अपने लिए तो सब जीते हैं अगर अपने जीवन में कुछ पल की खुशियाँ उनको भी दे सकूं जो उदास मन लिए दो पल ख़ुशी को तरसते हैं. कुछ कर पाई औरों के लिए यही मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी है और उससे भी बड़ी ख़ुशी कि मेरे स्वभाव के अनुरुप मेरे पति और मेरी दोनों बेटियाँ हैं. यही ईश्वर का प्रतिफल मुझे आत्मिक ख़ुशी देता है. इसके साथ ही काउंसिलिंग मेरा शौक है. कोशिश करती हूँ कि इससे कुछ भटके हुए लोगों को सही दिशा दिखा सकूं. कई दरकते हुए दाम्पत्य जीवन जोड़ने में सफल रही, कुछ भटकते युवाओं को उस रास्ते से हटा कर सही ही दिशा दी. ये मेरे लिए सबसे बड़े इनाम हैं </div><div>-- </div><div>रेखा श्रीवास्तव</div><div>09307043451</div><div><br /></div><div><a href="http://kriwija.blogspot.com/" target="_blank">http://kriwija.blogspot.com/</a></div><div><a href="http://hindigen.blogspot.com/" target="_blank">http://hindigen.blogspot.com</a></div><div><a href="http://rekha-srivastava.blogspot.com/" target="_blank">http://rekha-srivastava.<wbr>blogspot.com</a></div><div><a href="http://merasarokar.blogspot.com/" target="_blank">http://merasarokar.blogspot.<wbr>com</a></div><div><a href="http://katha-saagar.blogspot.com/" target="_blank">http://katha-saagar.blogspot.<wbr>com</a></div></div></span></div></span>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-11963589772895826482011-07-02T19:27:00.006+05:302011-07-02T20:00:53.949+05:30सपनों वाली वो लड़की यानि मैं रश्मि प्रभा<div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW9xb2mAvZk6Lep1ed7kcB3AnUSZgya05yeIy1w-8GQLdNarYSfWdpTqfkcBFrAdqx0qQFNw2_uh5g0BIghnvetcA0jfWAjgASrGVLyoNMmvFqoYcygGyjxnvrNA2ctB_MDjeD7ywOskma/s1600/Rashmi+%25287%2529.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW9xb2mAvZk6Lep1ed7kcB3AnUSZgya05yeIy1w-8GQLdNarYSfWdpTqfkcBFrAdqx0qQFNw2_uh5g0BIghnvetcA0jfWAjgASrGVLyoNMmvFqoYcygGyjxnvrNA2ctB_MDjeD7ywOskma/s320/Rashmi+%25287%2529.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5624755712646027762" style="display: block; margin-top: 0px; margin-right: auto; margin-bottom: 10px; margin-left: auto; text-align: center; cursor: pointer; width: 214px; height: 320px; " /></a><br /><div style="text-align: center; "><span class="Apple-style-span"><u><br /></u></span></div><div style="text-align: center; "><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; ">मेरी कलम ने परिचय का आदान -प्रदान किया तो भीड़ से एक आवाज़ आई जानी पहचानी - 'मुझे आपके बारे में भी जानना है ....' मेरे बारे में ? फिर कैनवस पर औरों को उकेरते हुए मैंने बार बार पलट कर खुद को देखा , कोई खासियत मिले तो कोई रंग दूँ .... जब भी देखा , उसकी आँखों में मुझे उड़ते बादल नज़र आए . कल रात मैंने कुछ बादल चुरा लिए , शायद उसके भीतर से <b>परिचय का कोई सूत्र</b> मिल जाए !</span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><div><b>प्रसाद कुटी की सबसे छोटी बेटी</b> ! हाँ अब तो वही है सबसे छोटी जबसे वह नहीं रहा - उसका छोटा भाई संजू . ६ भाई बहनों की दुनिया थी , संस्कारों की , उचित व्यवहार की सुबह होती थी . सुबह होते पापा के कमरे में सब इकट्ठे होते , कभी भजन , कभी कोई खेल , तथाकथित अच्छी सीख - 'कुछ भी करो तो सोचो , ऐसा सामनेवाला करेगा तो कैसा लगेगा !' सामनेवाले का ख्याल करते करते बीच से संजू चला गया , <b>अच्छाई की बलिवेदी </b>पर वह गुम हो गया . ओह ,मैं नाम तो बता दूँ खुद का - आपके बीच<b> रश्मि प्रभा</b> के नाम से जानी जानेवाली इस लड़की की शुद्ध पहचान इसके घर के नाम से है - <b>'मिन्नी' </b>, वो भी '<b>काबुलीवाले की मिन्नी ' .रश्मि </b>नाम कवि पन्त ने दिया और इस <b> </b>रश्मि नाम से इसने पढ़ाई की और अब लिखने लगी है . सच तो ये है कि जब रश्मि नाम से पुकारा जाता है तो वह भी इधर उधर देखती है , फिर याद करती है कि ये तो मैं हूँ ! है न अजीब सी बात ? जी हाँ अजीब बातों वाली यह लड़की अजीब सी ही है बचपन से .</div><div>छोटा सा घर पर्ण कुटी सा फूलों से भरा रहा . छोटा सा दायरा - बस पापा , अम्मा, तीन बड़ी बहनें , खुद से बड़े भईया और वह , संजू तो बचपन में ही चला गया . पढ़ाई , साहित्य और स्नेह का वातावरण रहा घर में , <b>पराये</b> की कोई परिभाषा ही नहीं दी गई . पडोसी सगा , दोस्त सगा .... मामा, चाचा,मौसी, भईया, दीदी संबोधन के साथ सब अपने थे . सीख तो निःसंदेह बड़ी अच्छी थी, सुनने , सुनाने में बहुत अच्छा लगता है - पर यह ख्याल तिल तिलकर मरने के लिए काफी था . पापा ने हमें 'अपनों' की विस्तृत परिभाषा दी , और उन सारे अपनों का<b> अपना</b> अपने संबंधों से रहा . पापा से प्रश्न उठाऊं , तर्क करूँ - उस वक़्त न इतनी हिम्मत थी , न सुलझे ढंग से बात रखना आता था . बहुत छोटी उम्र से यह मंथन चलता रहा और इसी मंथन ने मुझे खुद से बाहर निकलकर खुद को देखना सिखाया . ना सीखती तो सर सहलाकर खुद को राहत कैसे देती !</div><div>जन्म सीतामढ़ी (डुमरा ) . प्रारंभिक शिक्षा सीतामढ़ी(डुमरा) में हुई . पापा प्राचार्य थे , अम्मा के साथ कहानी, कविताओं से पहचान हुई .... 1970 में हम तेनुघाट आ गए , स्कूल की शिक्षा वहीँ पूरी हुई , फिर रांची महिला महाविद्यालय से स्नातक , हिस्ट्री ऑनर्स के साथ .</div><div>जीवन के उतार-चढ़ाव की बात करूँ तो बेतरतीब लकीरें खींचती चली जाएँगी .... बस इतना बताऊँ कि हर आड़ी तिरछी लकीरों के मध्य से निकल मैंने सोचा -</div><div>'मरण देख तुझको स्वयं आज भागे</div><div>उड़ा पाल माझी बढा नाव आगे ...'</div><div>और मेरी पतवार को सार्थक बनाया मेरे तीन बच्चों ने - (<b>मृगांक, खुशबू, अपराजिता</b> ). इतनी मजबूती से पतवार को थामा कि बिना पाल खोले भी हम आगे बढ़ गए . 2007 में खुशबू ने मेरे लिए ब्लॉग बनाया , जिसमें मदद मिली हिंदी ब्लौगिंग के जानेमाने चिट्ठाकार संजीव तिवारी से (<a href="http://aarambha.blogspot.com/" target="_blank">http://aarambha.blogspot.com/</a><wbr>) . हिंदी में कैसे शुरुआत हो, कैसे औरों से संपर्क हो यह उन्होंने ही बताया .</div><div>मैं तो कंप्यूटर देखते डर जाती थी, पर खुशबू ने मुझे सब सिखाया और धीरे धीरे मैंने पंख फैलाये . आकाश में कई सशक्त पंछी पहले से थे , अपनी उड़ान के साथ उन सारे पंछियों ने आनेवाले हर पंछियों का स्वागत किया . मैं सबकी शुक्रगुजार हूँ .</div><div>'कादम्बिनी' में तो बहुत पहले प्रकाशित हुई थी मेरी रचना - <b>'अकेलापन' </b>,(वर्ष तक याद नहीं ) उस समय उसके संपादक थे - श्री राजेंद्र अवस्थी जी .</div><div><b>'सिंह कभी समूह में नहीं चला</b></div><div><b>हँस पातों में उड़े</b></div><div><b>इन पंक्तियों का स्मृति बाहुल्य था</b></div><div><b>बहुत से ह्रदय मेरे संग नहीं जुड़े ...</b></div><div><b>जग को अपने से परे माना</b></div><div><b>मेरे जीवन की सम्पूर्णता आकाश में समा गई</b></div><div><b>जब इसे अपनी उपलब्धि मान</b></div><div><b>मैंने अपनाना चाहा</b></div><div><b>मेरे अकेलेपन को नींद आ गई '......</b>.....................</div><div>कलम मेरी शक्ति रही, भावनाएं मेरा आधार ... पर इससे परे भी मैंने बहुत कुछ किया . छोटे से स्कूल में पढ़ाया , टयूशन पढ़ाने गई, प्राइवेट बैंक में काम किया , हर्बल उबटन बनाया ..... लेकिन मेरा सुकून मेरा ब्लॉग बना .अपने होने का एहसास होता है , कोई मुझे पढ़ता है - इसकी ख़ुशी होती है . फिर मैं हिन्दयुग्म से जुडी ... 'ऑनलाइन कवि सम्मलेन ' 'गीतों भरी कहानी ' ने मुझे एक अलग पहचान दी . हिन्दयुग्म से ही मेरा काव्य-संग्रह 'शब्दों का रिश्ता' प्रकाशित हुआ और जनवरी 2010 के बुक फेयर में इमरोज़ के द्वारा उसका विमोचन हुआ और लोगों के बीच मेरी पहचान बढ़ने लगी. फिर रवीन्द्र प्रभात जी की परिकल्पना से मैं जुडी (2010 में ), <b>वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री </b>के सम्मान के साथ मैंने ऑनलाइन <b>वटवृक्ष का संपादन शुरू किया रवीन्द्र प्रभात जी के साथ .</b>फिर 30 अप्रैल 2011 को त्रैमासिक पत्रिका के रूप में इसे हमने लोगों के मध्य रखा . मेरे संपादन में 'अनमोल संचयन ' , ' परिक्रमा ' का प्रकाशन हुआ , ' अनुगूँज ' प्रकाशनाधीन है.</div><div>ये सारे कार्यकलाप खुद में रहने का उपक्रम है, अन्यथा -' <b>दुनिया चिड़िया का बसेरा है , ना तेरा है ना मेरा है ....'</b></div><div><b><br /></b></div></span></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com40tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-65723212491355474242011-06-30T15:26:00.002+05:302011-07-01T08:02:47.634+05:30बरगद सी विशालता (अशोक आंद्रे )<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2CFbApu-U2xpNYbuBgkX7zmcvwzq72PLf3W2kLT71WKU77vsjpErfRzMyd3isHrFgYecWwbzSifmfHxwiP4k623C0kZImtTyA0ZustrObBBr5cQHCleBT38yMcnZ5pyMxjgKZCKcP5zij/s1600/scan0004.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 201px; height: 220px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2CFbApu-U2xpNYbuBgkX7zmcvwzq72PLf3W2kLT71WKU77vsjpErfRzMyd3isHrFgYecWwbzSifmfHxwiP4k623C0kZImtTyA0ZustrObBBr5cQHCleBT38yMcnZ5pyMxjgKZCKcP5zij/s320/scan0004.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5623949989824126514" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">अशोक आंद्रे ... कथासृजन ब्लॉग <a href="http://wwwkathasrijan.blogspot.com/" target="_blank">http://wwwkathasrijan.<wbr>blogspot.com/</a> पर जिस दिन मैं गई , मैंने पढ़ा - <div><b>आँख बन्द होते ही</b><div><b>एहसासों की पगडण्डी पर</b></div><div><b>शब्दों का हुजूम</b></div><div><b>थाह लेता हुआ बन्द कोठरी के</b></div><div><b>सीलन भरे वातावरण में</b></div><div><b>अर्थ को छूने के प्रयास में</b></div><div><b>विश्वास की परतों को</b></div><div><b>तह - दर -तह लगाता है</b></div><div><b>जहाँ उन परतों को छूने में , हर बार</b></div><div><b>पोर - पोर दुखने लगता है । </b></div><div>और लगा किसी ने अपने पोर पोर में उठे दर्द में जाने कितनी पगडंडियाँ समेट लीं . एक आशीर्वचन सा लगा उनका व्यक्तित्व और मैंने उनको फ़ोन किया , उम्र के अनुभव सबकी आवाज़ में नहीं होते . मुझे उनकी आवाज़ में बरगद सी विशालता मिली . <b>कम शब्दों में कोई बहुत कुछ कह जाए , समझिये - उसने ज़िन्दगी को बहुत करीब से जाना है , और वो भी दूसरों की शर्तों पर !</b></div></div><div>मुझे उनकी हर रचनाएँ बोलती मिलीं .... तो मेरा फ़र्ज़ बनता है न कि मैं आपको भी वहाँ ले चलूँ और अशोक जी से उनका परिचय पाऊं .</div><div><br /></div><div><div>बचपन में माँ का चले जाना उस जगह जहां से कभी कोई लौट के नहीं आ सका. उम्मीदों</div><div>के सारे रास्ते बंद हो चुके थे . घर में सबसे बड़ा था इसलिए सबकुछ महसूस कर रहा था और </div><div>अन्दर तक दहल गया था.किसको अपनी व्यथा बताता ,कुछ समझ नहीं आता था .</div><div>उसी दौरान हमारे घर के पास लायब्रेरी का उद्घाटन हुआ था . उस तरफ आकर्षित होकर किताबों की दुनिया में खो गया था. लगा शब्दों में बहुत ताकत है जो हमें व्यवस्थित करने में तथा अपने उदगारों को लोगों तक पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है.</div><div>उसी दौरान वार एंड पीस , टेल आफ टू सीटीज तथा GreatExpectation जैसे उपन्यासों से गुजरना </div><div>हुआ.जिसने मेरी जिन्दगी के मूल्यों को बदल डाला.</div><div>पहली बार एक कविता "द फ्लावर " लिखी थी जिसे मेरे इंग्लिश के टीचर ने बिना बताए उसे एक </div><div>मैगजीन में छपने के लिए भेज दी और वह छप भीगयी. मैं उसकी महत्ता से अनजान संभाल </div><div>कर रख न पाया .</div><div>धीरे-धीरे मैं लेखन से जुड़ता चला गया. शुरुआत आकाशवाणी से हुई थी .स्वर्गीय श्री राम नरेश</div><div>पाण्डेय जी, स्वर्गीय श्री सत्येश पाठक जी तथा श्री सोम ठाकुर जी जैसे विद्वानों के आशीर्वाद </div><div>सेहो अपनी साहित्यिक यात्रा को नये आयाम देता चला गया.</div><div>लेकिन पहली बार स्वर्गीय श्री दुर्गा प्रसाद नौटियाल जी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में मेरी बाल </div><div>कविता छापकर मेरा हौसला बढ़ायाऔर श्री विजय किशोर मानव जी ने भी दैनिक हिन्दुस्तान में मेरी कई रचनाओं को विशेष स्थान देकर प्रोत्साहित किया.</div><div>उसी दौरान कई कहानियाँ भी लिखीं जिनसे अपने समय को तथा जीवन की तरल सच्चाइयों </div><div>को करीब से जानने का मौका मिला .</div><div>आज लगता है कि मैं अगर साहित्य की दुनियां में नहीं आता तो शायद मौत से असली </div><div>साक्षात्कार हो गया होता तथा किसी गुमनाम बस्ती में रहकर जीवन की माला के अंतिम मानकों </div><div>पर चलता हुआ आखिरी यात्रा की तरफ चला गया होता.</div><div> </div><div> (अशोक आंद्रे ) </div><div> </div><div>जीवन परिचय -</div><div>जन्म -०३मार्च १९५१,कानपुर (उ प)</div><div>प्रकाशित कृतियाँ -फुनगियों पर लटका एहसास </div><div> खिलाफ अँधेरे के</div><div> नटखट दीपू </div><div> चूहे का संकट </div><div> कथा दर्पण (संपादित )</div><div> सतरंगे गीत ( ") </div><div> </div><div>सम्मान - राष्ट्रीय हिंदी सहस्त्राब्दी सेवी सम्मान 2001</div><div> हिंदी सेवी सम्मान 2005 ( जैमिनी अकादमी (हरियाणा ) </div><div> </div><div> आचार्य प्रफुल चन्द्र राय स्मारक सम्मान २०१० (कोलकता)</div><div> ट्वंटी टेन राष्ट्रिय अकेडमी एवार्ड (हिंदी साहित्य ) २०१० (कोलकत्ता ) </div><div> </div><div><a href="http://wwwrimjhim.blogspot.com/" target="_blank">http://wwwrimjhim.blogspot.<wbr>com/</a></div><div><br /></div><div><a href="http://wwwkathasrijan.blogspot.com/" target="_blank">http://wwwkathasrijan.<wbr>blogspot.com/</a> </div></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-5522353535272588642.post-50604342693257509142011-06-29T17:27:00.011+05:302011-07-01T08:02:14.124+05:30सत्य, शालीनता , विस्तृत दृष्टिकोण (राजेश उत्साही )<div style="text-align: -webkit-auto;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; "><div><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><table cellpadding="0" class="cf hr" style="border-collapse: collapse; margin-top: 8px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 5px; "><tbody><tr><td class="hw" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; font-family: arial, sans-serif; vertical-align: middle; padding-right: 7px; "><span id=":11g"><a target="_blank" download_url="image/jpeg:DSC03856.JPG:https://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=8ad059de94&view=att&th=130d79c5a8ee7d84&attid=0.2&disp=safe&realattid=f_gph7very1&zw" title="Click to view OR drag to your desktop to save" href="https://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=8ad059de94&view=att&th=130d79c5a8ee7d84&attid=0.2&disp=inline&realattid=f_gph7very1&zw" style="color: rgb(0, 0, 204); "><img class="hv" src="https://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=8ad059de94&view=att&th=130d79c5a8ee7d84&attid=0.2&disp=thd&realattid=f_gph7very1&zw" alt="DSC03856.JPG" style="float: left; border-top-width: 2px; border-right-width: 2px; border-bottom-width: 2px; border-left-width: 2px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(195, 217, 255); border-right-color: rgb(195, 217, 255); border-bottom-color: rgb(195, 217, 255); border-left-color: rgb(195, 217, 255); padding-top: 5px; padding-right: 5px; padding-bottom: 5px; padding-left: 5px; " /></a></span></td><td style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; font-family: arial, sans-serif; "><b><br /></b></td></tr></tbody></table><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: small; ">राजेश उत्साही , एक सहज व्यक्तित्व के मालिक . सत्य, शालीनता , विस्तृत दृष्टिकोण - इनकी रचनाओं, इनकी बातों में स्वतः दिख जाती है. इनकी 'गुल्लक' जिसे वाकई इन्होंने बहुत कुछ गंवाकर हासिल किया , उसमें यादों वादों और संवादों को इन्होंने संग्रहित किया है.<div>मैंने इन्हें जाना जब ये मेरे ब्लॉग पर आए और बड़ी सहजता, शालीनता से इन्होंने मेरी मात्र अशुद्धि को इन्गित किया .... सच मानिये , मुझे बड़ी ख़ुशी हुई . लिखने में, जल्दबाजी में, और कई बार अज्ञानता में गलतियां होती हैं . इसे इन्गित करना सबके लिए आसान नहीं होता, वही करता है , जो आपके प्राप्य से उस कमी को दूर करना चाहता है , वही सही वक्ता , श्रोता और पाठक होता है . वरना पीठ पीछे निंदा .... व्यक्ति के बीमार मन का द्योतक है.</div><div>राजेश जी के साथ बातें करते हुए घरेलु से भाव पनपे ... जो आजकल सर्वथा दुर्लभ है , क्योंकि घर सा कोई दिखना नहीं चाहता ! हो या न हो - हर कोई पेज-3 के गेटअप में खड़ा रहता है. सहजता को तो आदमी खुद ही दीमक बन चट कर गया है . और मैंने राजेश जी को बहुत सहज पाया .... इन्होंने अपनी लेखनी में जिस तरह अपनी पत्नी '<b>नीमा'</b> को उतारा है, <a href="http://gullakapni.blogspot.com/2010/07/blog-post.html" target="_blank">http://gullakapni.<wbr>blogspot.com/2010/07/blog-<wbr>post.html</a> वह राजेश जी के सूक्ष्म दृष्टिकोण की गहनता का कैनवस है , जिस पर उभरे हर रंग नीमा जी के हैं !</div><div>अपनी माँ श्रीमती सरस्वती प्रसाद जी की पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगी राजेश जी की छवि को उभारने के लिए - '<b>जीवन की राह को सहयात्री बन काट लेंगे, दर्द को हम बाँट लेंगे ....' </b>जी हाँ , जीवन के उतार-चढ़ाव में सहयात्री का ज़िक्र करना लोग भूल जाते हैं या भूल जाने में शान समझते हैं , पर राजेश जी ने पलों को नीमामय कर दिया है . मैंने जब उनके बेटे को अपना आशीर्वाद दिया तो राजेश जी ने उसके हाथों मुझे मेल करवाया , संस्कारयुक्त सहजता उनमें ही नहीं , उनके बेटे में भी मुझे मिली .</div><div><br /></div><div>अब हम राजेश जी के शब्दों से राजेश जी को जानेंगे , तो ये हैं राजेश उत्साही =</div><div><br /></div><div><div>1958 के 13 नवम्बर की एक सर्द रात में भोपाल के पास मिसरोद रेल्वे- स्टेशन के घुड़सालनुमा रेल्वे क्वार्टर में एक बच्चे का जन्म हुआ। नाम दिया गया मुन्ना। पिता रेल्वे में स्टेशन मास्टर थे। पिता का स्वभाव कुछ ऐसा था कि वे अन्याय और गलत बात बिलकुल सहन नहीं करते थे यानी उनकी अपने अफसरों से नहीं बनती थी। नतीजा यह कि हर दूसरे साल उनका तबादला हो जाता।</div><div>मुन्ना चार साल का था पिता का तबादला बीना हो गया। रेल्वे स्टाफ का एक छोटा सा विद्यालय था। मुन्ना को उसमें भेजा गया। पहले ही दिन कुछ ऐसा हुआ कि मुन्ना के पिता और शिक्षक में झड़प हो गई। नतीजा मुन्ना घर वापस। हां मुन्ना को इस घटना से इतनी उपलब्धि तो हो ही गई कि उसका नामकरण हो गया-राजेश यानी राजेश पटेल।</div><div>*</div><div>राजेश छह साल का हुआ तो इटारसी के पास पवारखेड़ा में था। स्कल जाने की बारी आई तो</div><div>जैसे तैसे धक्का देकर राजेश को गांव की पाठशाला में ले जाया गया। मास्साब ने पूछा,’ तुम्हारे पिताजी पढ़ लिखकर स्टेशन मास्टर बन गए,तुम क्या भैंस चराओगे।‘ राजेश ने सोचा,शायद हां कहने से स्कूल से छुटकारा मिल जाएगा। तो बोल दिया, ‘हां।‘ पर ऐसा कभी हुआ है क्या जो उस दिन होता। फिर होशंगाबाद, इकडोरी, सबलगढ़ और इटारसी के विभिन्न विद्यालयों में पढ़ते हुए जैसे तैसे 1975 में ग्यारहवीं पास किया थर्ड डिवीजन में।</div><div>*</div><div>इस बीच राजेश के अंदर कहीं एक भावना जन्म लेने लगी थी। शायद यह चंबल के पानी का असर था। राजेश ने तय किया कि या तो कुख्यात होना या फिर प्रख्यात । सबसे पहले एक नया नाम सोचा वह था उत्सा ही । इस तरह अब नाम हो गया राजेश कुमार पटेल उत्साही। (बाद में इसमें से कुमार और पटेल को विदा कर दिया।) फिर धीरे धीरे कुछ लिखना पढ़ना शुरू किया। आठवीं तक आते आते सौ-डेढ़ सौ उपन्यास पढ़ डाले थे। पत्रिकाएं,अखबार पढ़ना भी शगल था।</div><div>*</div><div>ग्यारहवीं पास करके खंडवा के नीलकंठेश्वर महाविद्यालय में बीएससी में प्रवेश लिया। और प्रथमवर्ष ही कुछ इतना पसंद आया कि उसी में दो साल गुजारे। लेकिन महाविद्यालय को राजेश जी पसंद नहीं आए सो उसने उनसे क्षमा मांग ली। बीएससी का दूसरा साल होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय के प्रांगण में गुजरा। लेकिन फिर तीसरा साल कुछ ऐसा भाया कि उसी में दो साल गुजर गए। नर्मदा महाविद्यालय ने इसे अपना अपमान समझा और बिना पास किए ही राजेश जी को महाविद्यालय से बाहर कर दिया।</div><div><br /></div><div>इस बीच राजेश जी पत्र संपादक से लेकर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में बकायदा लिक्खाड़ के रूप में स्थापित हो चुके थे। होशंगाबाद में उन्हें लोग इसी तरह जानते थे। दस बाइ दस के कमरे में रात के दो दो बजे तक चलने वाली काव्य गोष्ठियों में वे सादर आमंत्रित किए जाते थे। जहां लोग बस एक दूसरे की रचनाओं को वाह वाह कहकर सराहने के अलावा कुछ और कहना ही नहीं चाहते थे।</div><div>*</div><div>लेकिन राजेश को स्नातक की डिग्री का इस तरह ठुकराया जाना कुछ जमा नहीं। पहले तो उसने सोचा कि इहलीला समाप्त ही कर ली जाए। तरीके भी थे। घर के सामने पल पल गुजरती रेल। या फिर नर्मदा की अतल गहराई। लेकिन इसके लिए भी हिम्मत चाहिए। वह नहीं जुटा पाया। लेकिन हिम्मत तो जिंदा रहने के लिए भी चाहिए।</div><div>*</div><div>खंडवा कॉलेज के एक परिचित शिक्षक श्याम बोहरे होशंगाबाद में नेहरू युवक केन्द्र के समन्वयक बनकर आए थे। राजेश उन्हें श्याम भाई कहता था। वह उनसे मिला। राजेश का आत्मवविश्वास टूट चुका था। उसे वह अपने अंदर पैदा करना था। राजेश ने उनसे कहा उसे काम चाहिए। पैसा मिले या न मिले। लेकिन वह कुछ कर सकता है, यह आत्म विश्वास अपने में पैदा करना चाहता है। नेहरू युवक केन्द्र में एक ही पद खाली था चौकीदार कम फर्रास(सफाईवाला) का। राजेश ने वह पद स्वीकार कर लिया। इस पद की जो जिम्मेफदारियां थीं, वे उसने पूरी कीं। लेकिन श्याम भाई उससे कुछ और भी करवाना चाहते थे। पहले ही दिन से उसे दिशा नामक एक सायक्लोशस्टामयल पत्रिका की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी। यह पत्रिका ग्रामीण युवाओं के लिए थी। राजेश को जैसे अपने मन माफिक काम मिल गया। राजेश ने तीन साल नेहरू युवक केन्द्रर में काम किया। इस बीच उसने टायपिस्ट, लिपिक और लेखापाल का न केवल काम सीखा बल्कि इन पदों पर वहां काम भी किया। साथ ही साथ स्वासध्याहयी छात्र के रूप में बीए की परीक्षा भी पास की। बाद में समाजशास्त्र में एमए भी किया। आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जैसे लौट आया था।</div><div>*</div><div>उन दिनों मप्र के होशंगाबाद जिले में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण प्रयोग हो रहा था। इसे आज होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के नाम से याद किया जाता है। इसे किशोरभारती नामक संस्था ने शुरू किया था, जिसके प्रमुख कर्ताधर्ता थे डा.अनिल सद्गोपाल । नेहरू युवक केन्द्रा में ही इस कार्यक्रम को आगे ले जाने के लिए रणनीति बन रही थी। वहीं योजना बनी एकलव्यल संस्था के गठन की। श्याम भाई ने बहुत सहज तरीके से पूछा एक संस्था बन रही है, काम करोगे। हां कहने में राजेश ने एक पल की भी देर नहीं की। इधर 1982 की 30 जून को नेहरू युवक केन्द्र छोड़ा और 1 जुलाई को एकलव्य में प्रवेश किया। फिर 1985 में भोपाल से चकमक बालविज्ञान पत्रिका के प्रकाशन की योजना बनी तो राजेश जो अब तक राजेश उत्सांही के रूप में स्थापित हो चुके थे चकमक की टीम में थे। और फिर वे 1985 से 2002 तक लगातार सत्रह साल तक चकमक की टीम में रहे सह-संपादक से लेकर कार्यकारी संपादक की भूमिका में। इस बीच एकलव्यी में विभिन्न जिम्मेदारियां उठाते रहे। 27 साल तक एकलव्य में काम करने के बाद 2009 में बंगलौर चले गए और वहां अजीम प्रेमजी फाउंडेशन द्वारा संचालित टीचर्स आफ इंडिया पोर्टल में हिन्दी संपादक की हैसियत से कार्यरत हैं।</div><div>उन्होने इस बीच जो उपलब्धियां हासिल कीं उनके बारे में इस लिंक पर विस्तार से देखा जा सकता है <a href="http://utsahi.blogspot.com/p/blog-page_12.html" target="_blank">http://utsahi.blogspot.com/p/<wbr>blog-page_12.html</a></div><div><br /></div><div>* कविता,कहानी,लघुकथा व्यंग्य आदि में कलम चलाई। बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य में गहरी रूचि रही है। किसी भी रचना को आलोचक की निगाह से देखना खासा भाता है। उस पर अपनी राय देने से नहीं चूकने की आदत है। पिछले लगभग दो साल से ब्लागिंग की दुनिया में हैं और तीन ब्लागों के मार्फत सबसे मुखातिब हैं। उनके ब्लाग की लिंक ये रहीं- गुल्लक<a href="http://utsahi.blogspot.com/" target="_blank">http://utsahi.blogspot.com/</a></div><div>यायावरी <a href="http://apnigullak.blogspot.com/" target="_blank">http://apnigullak.blogspot.<wbr>com/</a></div><div>गुलमोहर <a href="http://gullakapni.blogspot.com/" target="_blank">http://gullakapni.blogspot.<wbr>com/</a></div></div><div><br /></div></span></div></span></div>रश्मि प्रभा...http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813noreply@blogger.com14