शनिवार, 17 सितंबर 2011

बौद्धिक सूर्य रथ की विनम्र सारथी - डॉ सुधा ओम ढींगरा



उपाधियाँ , सम्मान तो समय के साथ व्यक्ति को हासिल होते हैं , पर विनम्रता , शालीनता व्यक्ति को अजेय बनाती है ...बौद्धिक सूर्य रथ की विनम्र सारथी सुधा धींगरा जी का नाम तो सुना था , पर मीलों की दूरी को मिटाकर कोई बात नहीं हुई थी . मीलों की कौन कहे - यहाँ तो देश- विदेश की दूरी थी , पर अचानक एक दिन बिना टिकट , बिना किसी आकस्मिक खर्चे के , बिना किसी औपचारिकता के हम एक साहित्यिक मोड़ पर मिले ...
एक मेल मिला ,
नए कलेवर, नए रंग- रूप और नई साज- सज्जा के साथ
उत्तरी अमेरिका की लोकप्रिय त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी चेतना' का
जुलाई -सितम्बर 2011अंक प्रकाशित हो गया है |

देखकर इस सज्जा को मैंने पूछा -
'मैं अपनी रचना भेज सकती हूँ इसके लिए ? '
और विनम्रता ने सुधा जी के लिबास में कहा -
'आदृत्या रश्मि जी,
यह पत्रिका आपकी है |'

और मैंने पत्रिका को अपना मान लिया .... सुधा जी को अपना मान लिया .... और अपनी कलम को सुधा जी के नाम की स्याही से भरा , जिन बातों से मैं अनभिज्ञ थी , उन बातों का आधार , उनकी कलम से उनका परिचय माँगा ... परिचय की माँग ने मोबाइल से हमारी आवाज़ की मुलाकात करवाई - फिर क्षणों में अपरिचय की रही सही दीवार भी गिर गई और अपनी कलम के माध्यम से सुधा जी सिर्फ मुझ तक नहीं आईं , बल्कि हम सब के पास आईं ..... तो मैं झीने परदे का आवरण हटती हूँ और मिलवाती हूँ हिंदी चेतना हिंदी प्रचारिणी सभा, कैनेडा की त्रैमासिक पत्रिका की संपादक: डॉ सुधा ओम ढींगरा जी से -

सुधा जी की कलम से
एक मुस्कराती आवाज़ कानों को तरंगित कर गई | आप सोच रहे होंगे कि फ़ोन पर मुस्कराती आवाज़ का कैसे पता चला | जी...फ़ोन पर आवाज़, आप के चेहरे के हाव -भाव, मूड सब बता देती है | बस संवेदनाओं के मंथन की आवश्कता है, अभ्यास सब सिखा देता है | आवाज़ रश्मि जी की थी और उन्होंने कहा कि अपना परिचय लिखूँ....सोच में पढ़ गई कि अभी तक तो मैं ही अपने बारे में कुछ नहीं जानती तो लिखूँ क्या ...पर रश्मि जी का मीठा, प्यारा अनुरोध है इसलिए स्वयं को ढूँढ़ना तो पड़ेगा | चलिए अतीत की तरफ लौटती हूँ जिसके पलों को यादों की अंगूठियों में हीरे, पन्ने, नीलम, मूंगे और पुखराज सा जड़ कर मैंने अपने हृदय की संदूकची में सुरक्षित रखा हुआ है | जब भी अतीत के गलियारे में झाँकने को मन करता है तो उन अंगूठियों को पहन लेती हूँ और सुखद अनुभूतियों से सराबोर हो जाती हूँ | लिखने के लिए उन अंगूठियों को पहन लिया है और ऐसा महसूस हो रहा है कि जिस धन को मैं वर्षों से अपना, सिर्फ अपना समझती थी, उसे आज आपके साथ ख़ुशी से साझा कर रही हूँ..
जालन्धर के एक साहित्यिक परिवार में जन्म हुआ | मम्मी -पापा और भाई तीनों डाक्टर थे | पोलिओ सर्वाइवल हूँ | अपंग होने से तो बच गई पर दाईं टाँग कमज़ोर रह गई इसलिए मेरा बचपन आम बच्चों की तरह नहीं बीता | तरह -तरह के तेलों की मसाज शरीर पर होती और काफ़ी व्ययाम करवाया जाता | बहुत दर्द होता और पलायन में परिकल्पना की दुनिया सजा लेती और कब कागज़ों पर कलम से शब्दों के चित्र उकेरने लगी याद नहीं | हाँ, काग़ज़, कलम और पुस्तकों से दोस्ती हो गई | यही दोस्त मुझे पीड़ादायक वर्षों से निकाल लाए | १२ वर्ष की माँ -पापा की मेहनत रंग लाई और मैं स्वस्थ्य किशोरी बनी | कत्थक, आकाशवाणी, रंगमंच और बाद में दूरदर्शन की कलाकार बनी | इस सब का श्रेय मैं अपने माँ -पा और अपने से दस साल बड़े भाई को देती हूँ जिन्होंने घर का वातावरण बहुत सकरात्मक रखा और मुझ में किसी तरह की कुण्ठा नहीं आने दी | माँ ने हमेशा एक बात सिखाई कि अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसे अपनी ताकत और ढाल बनाओ | पापा ने हमेशा कुछ अलग हट कर करने के लिए प्रोत्साहित किया | कविता, कहानी, उपन्यास, इंटरव्यू, लेख एवं रिपोतार्ज सब लिखती रही और जीवन में जो कमी थी उसका एहसास नहीं हुआ | चाल से कभी कोई ढूँढ नहीं पाया कि मेरी टांगों में कोई अन्तर है | क़दमों को साधने का वर्षों से अभ्यास है और स्वयं कभी किसी को बताया नहीं | मुझे सहानुभूति नहीं चाहिए थी और 'बेचारी' शब्द नहीं सुनना था | पिछले कुछ वर्षों से पत्र -पत्रिकाओं के लिए इंटरव्यू देते समय तरह -तरह के प्रश्नों के उत्तर में बचपन का ज़िक्र स्वाभाविक रूप से आ जाता है अन्यथा उम्र भर किसी को पता न चलता | स्वाभिमानी हूँ, हर काम अपने दम पर करती हूँ | किस साहित्यिक परिवार से हूँ, उसका ज़िक्र भी कभी नहीं किया | कई पुस्तकें लिखने, 'हिन्दी चेतना' पत्रिका का संपादन करने और भारत की स्तरीय पत्र -पत्रिकाओं में छपने के उपरांत आज भी लगता है कि अभी तो कलम को माँज रही हूँ | साहित्य का समुद्र बहुत गहरा है, अभी तक घोघे- सिप्पियाँ ही हाथ लगे हैं, न जाने कितनी डुबकियाँ और लगानी पड़ेंगी हीरे जवाहरात ढूँढने के लिए और इस जन्म में ढूँढ भी पाऊँगी या नहीं, समय बताएगा |
लेखन के साथ -साथ एक सामाजिक एक्टिविस्ट भी हूँ | इसके बीज परिवार से मिले और मेरी मूल भूत प्रवृति ने इसे खाद -पानी दिया | माँ-बाप आज़ादी की लड़ाई में वर्षों जेलों में रहे | पापा वामपंथी विचारधारा के थे और माँ कट्टर कांग्रेसी | राजनीतिक विचारों में भिन्नता होते हुए भी समाज सेवा में वे दोनों एक थे | समाज की विद्रूपताओं और कुरीतियों के लिए जीवन की अंतिम साँस तक लड़ते रहे | विवाहोपरांत अमेरिका मेरी कर्म भूमि बना और भाषा, संस्कृति तथा महिलाओं के लिए अपने वैज्ञानिक पति डॉ. ओम ढींगरा के सहयोग से मैंने बहुत काम किया |
चिठ्ठा -लेखन को कम समय दे पाती हूँ | 'हिन्दी चेतना' के संपादन, नियमित स्तम्भ लेखन, कविता, कहानियाँ और लेख लिखने के उपरांत जो समय मिलता है, उसमें पढ़ती बहुत हूँ |
अब कुछ अंगूठियाँ अपनी संदूकची में वापिस रख रही हूँ | न जाने कब, कहाँ, किस मोड़ पर आपसे मुलाकात हो जाए तो ख़ाली हाथ न हूँ......

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