शनिवार, 30 जुलाई 2011

एक गहरा वजूद - असीमा भट्ट



ब्लॉग की दुनिया बहुत बड़ी है ... हर बार घूमते हुए यह गीत होठों पर काँपता है , 'इतना बड़ा है ये दुनिया का मेला , कोई कहीं पे ज़रूर है तेरा ' शब्दों का रिश्ता बनाने के लिए मानस के रश्मि ज्वलित जल से
मैं शब्द शब्द में तैरती भावनाओं का अभिषेक करती हूँ , तन्मयता से मोती चुनती हूँ - हर किसी का अपना एक गहरा वजूद है , अपना अकेलापन और अकेलेपन में निखरी ज़िन्दगी है . उड़ान में कभी मैं दस्तक देती हूँ , कभी सामनेवाला - फिर कहते सुनते पढ़ते जीवन के पार छुपे वे तार दिखने लगते हैं , जिन पर उंगलिया रखो तो वे कभी एथेंस का सत्यार्थी के गीत गाती है, कभी बुद्ध, कभी यशोधरा , कभी कोलंबस, कभी आम्रपाली , कभी नीर भरी दुःख की बदली .... अनंत परिभाषाएं , अनंत अनुकरणीय कदम !
पौ फटते अपनी दिनचर्या के बीच मैं एक अनंत यात्रा करती हूँ , और किसी दहलीज पर रुक जाती हूँ . फिर उस दहलीज से सोंधे एहसास , सोंधे आंसू, सोंधे सोंधे सपनों की खुशबू और हौसले ले आती हूँ ताकि जब कभी साँसें लड़खड़ाने लगें तो किसी पन्ने को आप अपना आदर्श बना लें !
कुछ ऐसा ही एक आधार हैं असीमा भट्ट , जिनकी दहलीज से मैंने उनकी पहचान को उनके शब्दों में ढूंढा - " मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”

और स्वतः मेरी हथेलियाँ उनके मन के दरवाज़े पर दस्तकें देने को आतुर हो गईं और बड़ी मीठी सी मुस्कान लिए द्वार खुले , ----- जिनकी मासूमियत से हवाएं अपना रूख बदलती हैं , वे अनजाने उन्हें जिद्दी बना जाती हैं और यही जिद्द खुद के साथ होड़ लेती हवाओं को अपना हमसफ़र बना लेती हैं . नहीं इंतज़ार होता उन्हें किसी से सुनने का ' यू आर द बेस्ट ' , क्योंकि विपरीत परिस्थितियाँ उनका स्वर बन जाती हैं - ' आय एम द बेस्ट !'

अब आगे असीमा जी के साथ बढ़ते हैं . समय की अफरातफरी और खुली ज़िन्दगी के संजोये पलों में असीमा जी समझ नहीं पा रही थीं कि क्या लिखा जाए , फिर मैंने उनके पास अपने प्रश्न रख दिए जिनके जवाब उनका परिचय बन गए


सबसे पहले धन्यवाद मुझ नाचीज को इतनी इज्ज़त देने के लिए .तो सुनिए ........

मेरा बचपन फ़ुल ऑफ़ लाइफ था . नाना जी ज़मींदार थे , दादा जी बहुत ही प्रतिष्ठित डॉक्टर और सिनेमा हॉल के मालिक थे . और पिता जी BHU (बनारस हिन्दू युनिवेर्सिटी ) के स्टुडेंट थे जो बाद में स्टुडेंट मूवमेंट में शामिल हो गए . मैं तीन बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी थी . जब मैं छोटी थी पिता जी ने घर छोड़ दिया . कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाईमर हो गए . माँ को बहुत दुःख हुआ था . सदमे में वो मुझे मारती थीं क्योंकि मैं पिता की कट्टर पक्षधर (पिता जी को बहुत प्यार और रेस्पेक्ट देती थी ) . इसलिए माँ को बुरा लगता था और अपना गुस्सा मुझपर उतारती थीं . और शायद इसलिए भी कि शायद मैं बचपन में बहुत चंचल थी . बहुत शैतानियाँ करती थी . जो कि मेरा एक लड़की होने के नाते माँ को गवारा नहीं था . बस खूब पिटाई होती थी और मैं फिर भी शैतानियाँ करती थीं . शायद यही वो वजह है कि मैं जिद्दी हो गई .

अपने पिता के बारे में कहूँ तो हमेशा मुझे उनकी बात अच्छी ही लगी . तब भी अच्छा लगता था , कभी बुरा नहीं लगा . कभी उपेक्षित नहीं महसूस किया . हमेशा प्राउड फील होता था . मुझे बचपन का एक वाकया याद आता है . एक बार मुझे स्कूल में कल्चरल प्रोग्राम में फर्स्ट आने के लिए पुरस्कार मिला था . पुरस्कार वहाँ के D.M. दे रहे थे , उन्होंने पुरस्कार देते हुए मुझसे पूछा -"तुम्हारे पापा का नाम क्या है ? मैंने कहा - श्री सुरेश भट्ट , वो बोले - अच्छा , तो तुम 'भट्ट जी ' की बेटी हो , वाह "
मैंने यह बात घर आकर पिता जी को बताया कि - DM ने यह कहा कि आप 'भट्ट जी ' की बेटी हो - वाह !'
पापा बोले - मुझे उस दिन ख़ुशी होगी जब लोग कहेंगे कि मुझसे - ' क्रांति भट्ट (वो मुझे क्रांति ही बुलाते थे ) के पिता हो .वाह !'

मैंने अपनी जिंदगी को नहीं ढाला, बस खुद ब खुद ढलता चला गया . "अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं , रुख हवाओं का जिधर का है , उधर के हम हैं .

मुझे महात्मा बुद्ध की तरह दिखाई देते हैं अपने पापा (बुद्ध की तरह ही वे हमें बचपन में छोड़ कर समाज सेवा के लिए चले गए थे ) , बातें भी उन्हीं की तरह करते . मुझे याद है , जब मैं बच्ची थी मेरे पापा नक्सलाईट थे , वो कहा करते थे - "हम नक्सलाईट लोग हैं , गोली पहले चलाते हैं सोचते बाद में हैं ." आज वही इन्सान कहते हैं - "हिंसा से कुछ भी हासिल नहीं होगा . हिंसा किसी समस्या का हल नहीं ."

मैं फिल्म में कहाँ आना चाहती थी . बहुत ही ओर्थोडोक्स फैमिली में थी , वहाँ ऐसी बातें सोचना भी गुनाह था . मैं पता नहीं कैसे आ गई . आज भी यह एक पहेली सा लगता है कि मैं कैसे यहाँ तक आ गई ! Its all destiny

जिंदगी मेरे लिए एक इम्तहान है . मैं रोज़ एक प्रश्न -पत्र हल करती हूँ . रोज़ इम्तहान देती हूँ और हाँ रोज़ पास होती हूँ

लेखन से भी कैसे जुड़ी , यह भी ठीक से याद नहीं . शायद पापा की किताबें पढ़ने की आदत मेरे अन्दर आई . शायद इसीलिए थोड़ा बहुत लिख लेती थी . फिर जब मैं पटना आई तो सर्वाइवल के लिए मुझे न्यूज़ पेपर में काम करना पड़ा . और ऐसे लिखना पेशा बन गया ...

जिंदगी से मुझे कोई शिकायत - नहीं . कुछ भी नहीं . I love it. My life is beautifull.

बहुत कुछ खोया है .... बहुत कुछ पाया है . अब तो बात जिद्द पे आ गई है - अब तो जिंदगी से सूद समेत वापस लेना है और उसे भी देना पड़ेगा .
आखिर में इतना ही कहूँगी - मुश्किलें पड़ीं मुझ पे इतनी कि ज़िन्दगी आसान हो गई ....

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

अनकहा कहा - मीनाक्षी धन्वन्तरी

(नोट - अस्वस्थता की वजह से मेरी कलम रुक गई थी , अभी भी मध्यांतर का आलम होगा .... पर कलम चलेगी )


कितना कुछ अनकहा कहा होता है , जो कभी पत्तियों से ओस बन सरकता है , कभी चिड़ियों की उड़ान में गगन का विस्तार नापता है , कभी किसी की सिसकी में अपनी ज़िन्दगी के इक लम्हें को पाता है , कभी सन्नाटे में एक मुस्कान रख देता है , फिर अचानक बिल्कुल अचानक अपनी डायरी के पन्नों में उसे समेट बन्द कर देता है उस कमरे में - जहाँ हर ताखे पर यादों की एक सिहरती पोटली होती है ....... ऐसा ही लगा जब अपनी यात्रा के दौरान मैं मीनाक्षी जी के ब्लॉग http://meenakshi-meenu.blogspot.com/ पर रुकी ..... उनकी रचना ' मेरे पास एक लम्हा है ' एक लम्हें की मानिंद मेरी दोस्त बन गई ... हर एक कदम पर महसूस हुआ , यह पहचान आज की नहीं ... कुछ है जो दोनों के मध्य सरस्वती की तरह प्रवाहित है .

कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते हैं , दो आँखें होती हैं - जिनसे आंसू अनजाने छलक उठते हैं , दो पाँव होते हैं - जिनके छालों से रास्तों की पहचान मिलती है , और होती है एक सहज मुस्कान जिसकी व्याख्या नहीं होती ...

चलिए अनकहे कहे से कुछ सुनें -

कितने दिनों से टलता आ रहा सीधा सादा सा परिचय आज कुछ हिम्मत करके एक कदम आगे बढ़ा ....यह सोच कर कि रश्मिजी की क़लम राह चलते चलते अपने हुनर से उसे सँवार ही देगी....
“जब से होश सँभाला प्रेम को ही सत्य माना...इसलिए ब्लॉग का नाम भी रखा ‘प्रेम ही सत्य है’” बचपन से ही प्रकृति और मानव में एक दूसरे की छाया मन को आकर्षित करती...वही जाने अंजाने लेखन में झलक जाता..इसी से जुड़ी एक घटना का ज़िक्र ज़रूरी लगता है...सातवीं कक्षा में हिन्दी टीचर ने प्रात:काल पर एक लेख लिखने को कहा...चहचहाती चिड़ियाँ लगी थीं देश के भूखे बच्चे जो रोते हैं एक निवाले के लिए...या शायद बिन माँ के बच्चे माँ के आँचल के लिए... बस फिर क्या था फौरन मम्मी डैडी की पेशी हुई कि शायद घर में कुछ अनहोनी न हुई हो...उसके बाद से लेखन जारी रहा लेकिन डायरी के पन्नों में कैद रहा...मुक्त हुआ तो 2007 में..डायरी के पन्नों से उतरा ब्लॉग़ पर....
अपने जीवन के बारे में क्या कहूँ...आम जीवन है लेकिन खास भी है....जिससे हर पल कुछ न कुछ नया सीखा... जन्म लेते ही दादी के रोने का सबब बनी लेकिन डैडी ने गोद में लेते ही कहा कि यह तो मेरी मीठी मधु है...बहेगी हमारे घर में महकती हुई मधु की धार और फिर छोटी बहन बेला भी आ गई.....दोनो बहनें जहाँ मम्मी डैडी और ननिहाल की लाडली थीं वहीं ददिहाल में एक आँख न देखी जातीं...फिर भी हमें दादी बहुत प्यारी लगतीं... शायद मम्मी के संस्कार थे जिन्होंने दादी की झिड़की को भी प्यार समझने की नसीहत दी.
ग्यारह साल की हुई तो घर में नन्हा सा चाँद उतरा....सबकी आँखों का तारा खासकर मम्मी डैडी के लिए तो वह तोता था जिसमें उनकी जान बसती फिर भी हम दोनों को कभी न लगता कि तीनों में कोई भेदभाव किया जाता है... सब को बराबर का प्यार और दुलार मिलता....शायद उसी कारण तीनों भाई बहन आज तक एक दूसरे के लिए कुछ भी करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं...
लड़की लड़के कोई भेदभाव ही नहीं था...कोई रोक टोक नही थी... इसलिए शायद आज़ादी मिलने पर भी उसका कभी फायदा नहीं उठाया हाँ मस्ती ज़रूर की...गर्मी की जिन छुट्टियों में ननिहाल या कुल्लू मौसी के पास न जा पाते तब मुझे अकेले ही जहाँ मैं जाना चाहती भेज दिया जाता...आठवीं में पहली बार अम्बाला अकेली गई थी...आज भी याद है जब बस से उतर कर घर जाने के लिए रिक्शे वाले का चेहरा पढ़कर रिक्शे पर बैठी थी...फिर भी सतर्क थी कि अगर वह किसी गलत गली में मुड़ा तो उसके सिर पर ब्रीफकेस दे मारूँगी...दसवीं के बाद अकेले कश्मीर जाने का अनुभव तो और भी दिलचस्प था...
दिल्ली में जन्मी पली-बढ़ी...स्कूल और कॉलेज खत्म हुआ तो.....बस यहीं ज़िन्दगी कुछ अटक गई या बहक गई...चार साल तक आवारा मस्त हवा की तरह बिना किसी लक्ष्य के बहती रही..... अपने मौसेरे भाई के ऑफिस में एक साल रिसेप्शनिस्ट की नौकरी की जहाँ मौसी से बहुत कुछ सीखा...उनकी एक बात को आज तक गाँठ बाँध कर रखा है.....”अपेक्षाओं की अति हमेशा दुख देती हैं... चाहे वे अपने से हों या अपनों से” उसके बाद पत्राचार से हिन्दी में एम.ए. किया.... उस दौरान जाना कि भाषाएँ जीवन में कितना महत्व रखती हैं...भाषाएँ भावनाओं को पुष्ट करती हैं... एक अच्छा डॉक्टर या इंजिनियर बनने के लिए अगर उनसे जुड़े विषय पढ़ने जरूरी होते हैं तो भाषा एक अच्छा इंसान बनाने में मदद करती है...और फिर एक अच्छा इंसान ही जीवन में आगे बढ़ सकता है......
अपनी सुरक्षा के लिए जूडो कराटे सीखने के लिए भेजा गया...उस कला का सही वक्त पर इस्तेमाल हो इसके लिए योग करने मानतलाई गई....मम्मी को मेरी लक्ष्यहीन ज़िन्दगी पसन्द नहीं थी, वे चाहती थीं कि अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कुछ करूँ... इधर डैडी की शय पाकर मैं अपने में मस्त बेफिक्र जीती रही....समाज और परिवार की तरफ से इशारा मिलते ही उस मस्ती पर रोक लगानी पड़ी...कानून और राजनिति की पढ़ाई बीच में ही छूट गई और शादी हो गई.....
ज़िन्दगी का आधा शतक पार करने पर बैठी सोच रही हूँ कि जितना विश्वास और आज़ादी का वातावरण माता-पिता के घर था उससे कहीं ज़्यादा पति के घर में पाया.....शादी के बाद रियाद आकर ज़िन्दगी ने नई करवट ली....दोनों बेटों के साथ हमने भी स्कूल में दाख़िला ले लिया हिन्दी अध्यापिका के रूप में....उस वक्त का वह निर्णय मेरी ज़िन्दगी का बेहतरीन फैंसला था..... ज़िन्दगी मेरी गुरु थी उसी के अनुभवों को बाँटने लगी स्कूल के बच्चों में...
जहाँ तक लेखन की बात है वह तो बचपन से साथ था जो अब तक है...रियाद और दुबई में पढ़ाते हुए डायरी, लेख, कविता और कहानी ने एक नया रूप पाया छोटे छोटे एकांकी और नाटकों के रूप में...बच्चों के साथ लिखना पढ़ना और भी बढ़ गया...स्कूल मेग्ज़ीन में हिन्दी सम्पादन के दौरान बच्चों की हिन्दी में लिखी रचनाएँ मन खुश कर देतीं...स्कूल कॉलेज के कई बच्चे आज भी हिन्दी सीखना पढ़ना चाहते हैं,,,गीत गज़ल और नाटक का मंचन करना चाहते हैं लेकिन......... इस लेकिन का जवाब आपको ढूँढना है...!!

मेरा परिचय चाहा आपने इसका आभार

कोशिश करके देती हूँ इसे कुछ आकार...

न मैं रचनाकार नामी, न कोई साहित्यकार

हूँ बस एक आम साधारण सी चिट्ठाकार ...

जो भी है सब कुछ है अपना घर परिवार

होती हैं इनमें छोटी छोटी खुशियाँ साकार ....

चिट्ठा ‘प्रेम ही सत्य’ करता सबका सत्कार

स्वागत करता, नहीं किसी को देता दुत्कार

सरल सहज सा लिखती, हूँ ऐसी कर्मकार

है मेरा लेखन सादा, है सादा ही व्यवहार

यहाँ सभी हैं एक से बढ़कर एक कलाकार

उन सभी को मेरा प्यार भरा नमस्कार


बुधवार, 13 जुलाई 2011

जहाँ गई नज़रें , भाव उमड़े (निलेश माथुर)



निलेश माथुर , ब्लॉग - http://mathurnilesh.blogspot.com/ , मुझे इस ब्लॉग से मिलना बहुत अच्छा लगा . रोज़मर्रा की जुड़ी चीजें .... निलेश जी ने सबको शब्द दिए ... फूलदान, मेरी कमीज ,मेरी पतलून ,मेरा जूता, मेरा ट्रांजिस्टर, ..... आपने पढ़ा है ? इसे कहते हैं , जहाँ गई नज़रें , भाव उमड़े और शब्दों ने उनको जीवंत कर दिया . चलिए एक पढ़वा ही दूँ , जिसने नहीं पढ़ा हो , वे भी मेरी तरह मिलकर खुश हो जाएँ - http://mathurnilesh.blogspot.com/2010/04/blog-post_21.html .
मैं आज भी उनको नियम से पढ़ती हूँ , पर ब्लॉग पर जाने से पहले ये सारे प्रसंग मुझे याद आ जाते हैं और धीरे से मैं ढूंढती हूँ - कमरे का आईना , रेत के कण, बारिश की बूंदें , बेतरतीब ज़िन्दगी, सोचती ज़िन्दगी .......

परिचय लिखने से पूर्व मैंने हर शख्स का परिचय पढ़ा , निलेश जी ने जब दीदी संबोधन के साथ अपना परिचय मुझे दिया तो इस संबोधन ने तो मुझे अभिभूत किया ही , निलेश जी के सच ने मुझे सुकून दिया .... सच कहने का साहस तो दूर की बात है, मन से भी कोई स्वीकार कर ले तो बड़ी बात है . निलेश जी ने परिचय भेजते हुए लिखा - दीदी, मेरी बचपन से अब तक की यात्रा शायद आपको अच्छी नहीं लगेगी लेकिन संक्षेप में सब सच सच लिख रहा हूँ ! इस सच ने निलेश जी को मेरी नज़रों में और ऊँचा कर दिया
. मैंने अपनी ज़िन्दगी में सच का सम्मान किया है . इस सच के निकट अपनी माँ (श्रीमती सरस्वती प्रसाद ) की लिखित पंक्तियाँ याद आ गईं -

'दर्द मेरे गान बन जा
सुन जिसे धरती की छाती हिल पड़े
वज्र सा निर्मम जगत ये खिल पड़े
लाज रखकर ह्रदय की ऊँची इमारत का
मेरा सम्मान बन जा
दर्द मेरे गान बन जा ....'

आइये निलेश जी के सच से मिलिए -

पिता जी गांधीवादी अध्यापक थे और वो मुझे पढा लिखा कर डाक्टर इंजीनिअर कुछ बनाना चाहते थे, लेकिन मैं दोस्तों के साथ मिल कर शराब पीने और गुंडागर्दी करने में ही लगा रहता था, और बहुत पैसे कमाने का भूत भी सवार था, कभी कभी सोचता था कि मुंबई जा कर डी कंपनी में भर्ती हो जाऊ, पिता जी को सब जगह मेरी वजह से शर्मिंदा होना पड़ता था, कभी कभी गुस्से में वो मेरी पिटाई भी कर देते थे, एक बार मैंने एक दुकान में तोड़फोड़ कर दी, मुझे पता नहीं था कि दुकान का मालिक मेरे पिता जी का परिचित है, जब उसने मुझसे ये कहा तो मैं बहुत शर्मिंदा हुआ, इसी तरह दिन बीतते रहे, इस बीच मेरे कुछ दोस्त जेल की हवा खा रहे थे, मैं किस्मत से बचा हुआ था, पिता जी मुझसे परेशान मैं उनसे परेशान, इसी बीच मेरे मामा जी जो गुवाहाटी में रहते हैं वो मुझे बोले कि मेरे साथ गुवाहाटी चलो तब मैंने सोचा यहाँ रहकर मैं कुछ कर नहीं पाउँगा और मैं गुवाहाटी चला आया, जिस समय हम अपने नौकर को 1000 रूपया तनख्वाह देते थे मैंने यहाँ आ कर 800 रुपये महीने में सुरुआत की और 6 साल नौकरी की 6 साल बाद मेरी तनख्वाह थी 4000 रुपये, बांस के बने घर में बहुत दिन रहा सालों कुँए पर नहाया, जिद्दी तो शुरू से था 1997 में एक छोटी सी बात पर गुस्सा हो कर काम छोड़ कर चल दिया, एक पैसा जेब में नहीं था, अपने घर वालों को मैंने कभी अपनी ये स्थिति नहीं बताई, मैं नहीं चाहता था की मेरे लिए वो लोग चिंतित हों, दोस्तों से उधार ले कर किसी तरह 6-8 महीने बिताये और वो जीवन का बहुत ही बुरा वक़्त था, मेरे एक घनिष्ठ जो कि बहुत पैसे वाले थे उन्होंने उस समय मुझे 2000 रुपये उधार देने से मना कर दिया था, ये अलग बात है कि आज वो दस लाख भी देने को तैयार हैं, लेकिन फिर धीरे धीरे छोटा मोटा व्यवसाय करने लगा, जीवन में बहुत संघर्ष किया लेकिन आज इस लायक बन चुका हूँ कि अपना घर परिवार ठीक से चला रहा हूँ, और किसी भी ज़रूरतमंद के लिए सदा हाज़िर रहता हूँ, वो कहते हैं ना कि जिस पेड़ की जड़ें मजबूत होती है वो तूफ़ान में भी डटा रहता है, तो मेरी भी जड़ें शायद मजबूत हैं और संस्कारों ने मुझे कभी गिरने नहीं दिया, वक़्त के साथ साथ सोच बदलती गयी, अब सिर्फ एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश में हूँ, लिखने का शौक तो बचपन से ही था, थोड़े बहुत गुण पिता से भी तो आते हैं!


ख्वाब देखने में

और जीने की जद्दोजहद में
कब बीत गयी ज़िन्दगी
पता ही ना चला,

अब वक़्त बहुत कम है
और काम ज्यादा
काम मतलब किताबें
जो पढनी बाकी हैं,

और हंसना और हंसाना भी तो है

जो कि अब तक मैं नहीं कर पाया! .....

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

संतुलित व्यवहार के धनी (कैलाश सी शर्मा)



आज बैठे हैं मौन
कुछ चेहरे
अपनी झुर्रियों में
कितने दर्द की परतें चढाये,
ताकते उस सड़क को
जिससे अब कोई नहीं आता,
क्योंकि
युवा और बच्चे
खो गये हैं दूर
कंक्रीट के जंगल में
और भूल गये हैं रस्ता
बरगद तक वापिस आने का...

इस सोच , इस अनुभव ने कैलाश सी शर्मा जी के ब्लॉग से मेरी पहचान करवाई . संतुलित व्यवहार के धनी लगे मुझे कैलाश जी .... ब्लॉग http://sharmakailashc.blogspot.com/ के साथ इनका एक ब्लॉग बच्चों के लिए भी है - http://bachhonkakona.blogspot.com/ क्योंकि इनका मानना है कि , अगर चाहते हो तुम खुशियाँ, ढूँढो इसको बचपन में . अपनी उम्र के साथ जो बचपन की मासूमियत साथ लिए चलते हैं उनकी सोच, उनकी परख एक अलग विशेषता रखती है .... उनके कम शब्दों में भी जीवन के सार मिलते हैं , कुछ ऐसे ही सार जीवन के कैलाश जी के ब्लॉग से मिलते हैं .
अपनी कलम से कैलाश जी अपने लिए कहते हैं -

मेरा जन्म 20 दिसम्बर, 1949 को मथुरा (उ.प्र.) के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ. मेरा बचपन मेरी नानी, जो उसी शहर में रहतीं थी, के साथ गुजरा. यह मेरे जीवन का स्वर्णिम समय था और नानी से मुझे जो प्यार मिला वह मेरे लिये आज भी अविस्मरणीय है . मैं जब १५ साल का था, वे इस दुनियां को छोड़ कर चली गयीं, लेकिन मुझे आज भी महसूस होता है कि वे सदैव मेरे आसपास हैं और उनके आशीर्वाद का साया हमेशा मेरे सिर पर है. माता पिता के प्यार के साथ बचपन और कॉलेज जीवन बहुत खुशहाल रहा.

अंग्रेजी साहित्य और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर शिक्षा के उपरांत संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा केन्द्रीय सचिवालय सेवा में चयन के बाद, 1970 में संघ लोक सेवा आयोग, नयी दिल्ली में नियुक्ति होने पर विभिन्न राजपत्रित पदों पर कार्य किया. 1985 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के सतर्कता विभाग में विशेषज्ञ श्रेणी में ज्वाइन किया और पूर्व, उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत मुख्य रूप से मेरा कार्य क्षेत्र रहा. सम्प्रति मैं सेवानिवृत के पश्चात दिल्ली में रह रहा हूँ.

मेरा सम्पूर्ण कार्यकाल मुख्य रूप से सतर्कता (Vigilance), भ्रष्टाचार-निरोध (Anti-corruption) और फ्रॉड अन्वेषण (Fraud Investigation) के क्षेत्र में रहा. कार्य काल में देश के सुदूर जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण के दौरान असीम गरीबी, शोषण, भ्रष्टाचार और मानवीय संबंधों की विसंगतियों से निकट का सामना हुआ. जब बस्तर के घने जंगलों में औरतों को बिना चप्पल पहने जंगल से लकड़ी लाते या राजस्थान के रेगिस्तान में भीषण गरीबी को देखा तो मन बहुत उद्वेलित हो गया. जब समाज के निम्नतर वर्ग को भी भ्रष्टाचार का शिकार बनते देखता तो यह सहनशीलता की सीमा से परे हो जाता था. गरीबी का निम्नतम स्तर और दूसरी तरफ धन का फूहड़ प्रदर्शन बहुत नजदीकी से देखा, जिसने मेरे जीवन और लेखन पर अमिट छाप छोड़ी.

एक आम सरकारी कर्मचारी की तरह प्रारंभिक जीवन में कुछ कठिनाइयां भी आयीं, पर वह समय भी निकल गया. जीवन में सच्चाई और ईमानदारी के राह से भटकाने के लिये बहुत प्रलोभन भी आये, पर उनका सफलता से मुकाबला कर पाया और इसमें मेरी पत्नी का पूरा सहयोग रहा. जीवन में आवश्यकताओं को अपनी क्षमता के अंदर सीमित रखा और जो कुछ ईमानदारी से कमाया उसी में संतुष्ट रहा. आज बेटे और बेटी अपने अपने जीवन में अच्छी तरह सुव्यवस्थित हैं. आत्म संतुष्टी मेरे जीवन का मूल मन्त्र रहा जिसके कारण आज भी व्यक्तिगत जीवन शांतिपूर्ण बीत रहा है, जिसमें मुझे पत्नी का पूरा सहयोग मिला. रिश्तों की कडवाहट को आज के समय का रिवाज़ या अपनी नियति समझ कर भुलाने की कोशिश करता हूँ.

लिखने का शौक कॉलेज जीवन से ही था, लेकिन कार्य व्यस्तता की वज़ह से समय नहीं निकाल पाता था. फिर भी जब समय मिलता लिखता रहता था. मेरा सब से सुखद पल संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी दिवस के अवसर आयोजित प्रतियोगिता में मेरी कविता ताज महल और एक कब्र के लिये आदरणीय बालकवि बैरागी के कर कमलों से प्रथम पुरुष्कार पाना था. लेखन मेरे लिये केवल एक स्वान्तः सुखाय अभिव्यक्ति और आत्म-संतुष्टी का माध्यम है.

2010 में ब्लॉग जगत से परिचित हुआ और अपना पहला ब्लॉग ‘Kashish-My Poetry’ जुलाई 2010 में शुरू किया जिसे प्रबुद्ध पाठकों ने अपना स्नेह और प्रोत्साहन दिया. बच्चों से मुझे बहुत लगाव है क्यों कि उनका साथ जीवन को एक सात्विकता और निस्वार्थ प्रेम देता है. बच्चों के लिये लिख कर मन को बहुत सुकून मिलता है और एक अद्भुत शान्ति का अनुभव होता है, इसलिये 2011 में मैंने बच्चों के लिये ब्लॉग ‘बच्चों का कोना’ शुरू किया.

मेरे ब्लोग्स हैं Kashish-My Poetry और बच्चों का कोना

सोमवार, 11 जुलाई 2011

वो कहते हैं ' पिक्चर अभी बाकी है दोस्त' - रश्मि प्रभा की



क्या रह गया ? वह आवरण जो उस लड़की के चेहरे पर धूप छाँही का खेल खेलता है , या वह जो उसके पहनावे से बता देता है कि वह जो दिखा रही है , वैसी है नहीं या वह जो मेरे शब्दों में सर पटकता है !
तो .... बताओ बंधु , ख़ुशी और दर्द को पूरा शरीर मिलता कहाँ है ! जब तक ख़ुशी की आकृति बनाओ , दर्द आकर उसे अपाहिज बना देता है, जब तक दर्द को रेखांकित करो, ख़ुशी आकर उससे पंगे लेती है . बहुत मुश्किल है इन दोनों को हुबहू उतारना !
चलिए एक प्रयास और सही - छोटी सी वह मिन्नी १३ फरवरी १९५८ को डुमरा (सीतामढ़ी) में जन्मी . तब वहाँ बिजली नहीं थी, यानि बिजली का कनेक्शन नहीं - जन्म के साथ बिजली का आना - शायद तय था मेरे नाम का होना 'रश्मि'.
मुझसे बड़ी तीन बहनें , एक भईया यानि मैं चौथी बेटी थी .... पापा नहीं हुए थे मायूस ना अम्मा , पर लोगों ने धीरे से निराशा व्यक्त की थी - बेटी हुई फिर ! इससे जुडी एक कहानी सुनाती हूँ - एक दिन हम सब बैठे थे , मैं ६ ७ साल की थी , स्कूल में चपरासी थे - चुल्हाई भाई, हाँ हम उनको भाई कहते , शुरू से इसी तरह हम किसी काम करनेवाले को बुलाते थे . हाँ तो चुल्हाई भाई ने बताना शुरू किया - " जब मुन्नू बबुआ हुए तो साहेब के पास जैकारी बाबा आए , साहेब उनको पूरा सीतामढ़ी, डुमरा में मिठाई बांटने का पैसा दिए ..." मैं तन्मयता से सुन रही थी और अपनी बारी की प्रतीक्षा में थी .... बड़े उत्साह से मैंने पूछा - ' और चुल्हाई भाई , हम हुए तो ...' ओह , बहुत ही खराब ढंग से चुल्हाई भाई ने कहा , ' तुम्हारे आने की खबर सुनते सब दुःख से सो गए ' , मैं तो फफक के रो पड़ी ... शाम में जब पापा आए तो मैंने पूछा - ' पापा हम हुए तो सब सो गए थे दुःख से ?' पापा ने बड़े प्यार से कहा - ' ना बेटा , हम जाग रहे थे '.... मैं तो खुश हो गई, पर कुछ बाहरी बड़ों ने चिढाया - ' उनको चिंता से नींद कहाँ आनेवाली थी !' .... ये चिंतावाली बात उस उम्र में समझ में भी नहीं आई . हम ४ बहनें , एक भईया .... कभी कोई फर्क होते हमने नहीं देखा .
मैं तो यूँ भी पापा के शब्दों में रिकॉर्ड प्लेयर थी .... बोलती थी तो बस बोलती जाती थी, गाती थी तो बस.......कोई हमारे घर आता ,पापा अम्मा जब तक नहीं आते , मैं पूछती - 'गाना सुनेंगे ?' जवाब मिले बगैर चालू .... आधे अधूरे जितने गाने याद होते वो सुनाकर हहाहाहा उनका मन लगाते !

धीरे धीरे दीदी भईया लोगों की शादी हो गई .... १९७९ में भईया की शादी हुई . मेरे लिए पापा हमेशा कहते - 'इतनी धूमधाम से शादी होगी कि सब दाँतों तले ऊँगली दबायेंगे ' और मैं ! मुझे तो पलक झपकते पंख लगाकर उड़ने की आदत थी, तो कई उड़ानें भरती . पर पलक झपकते यथार्थ की धरती पर ...................पापा नहीं रहे ....(१९८०) आनन् फानन में बहुत सारे दृश्य बदल गए . जब दृश्य बदलते हैं तो बदलते ही चले जाते हैं , तो बदलते ही गए . .... शादी हुई, बच्चे मेरी ज़िन्दगी बने .......... और ज़िन्दगी को बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी तो फिर ज़िन्दगी ने भी मुझे कसकर गले लगाया और ... उसीका करिश्मा है कि आज मैं आपके सामने हूँ और मैं जो लिखूं , आप सबकी ऊँगली नहीं छोडती . मैं बनाना चाहती हूँ एक साहित्यिक संसार , जिसे लोग याद करें .... जैसे हम याद करते हैं - महादेवी, पन्त, बच्चन, निराला , टैगोर, प्रसाद, शरतचंद्र , अज्ञेय , दिनकर ............और इनके जैसे कई विलक्षण रचनाकारों को .

अब तो नहीं है न बाकी कुछ ?

रविवार, 10 जुलाई 2011

शांत, खामोश - पर बोलता अस्तित्व ! (अविनाश चन्द्र )



अविनाश .... उससे परिचय ऑरकुट पर हुआ , रचनाओं के माध्यम से - इससे अधिक महत्पूर्ण बात ये है कि मैं इस बच्चे से बहुत प्रभावित रही . 'माँ' के प्रति जो प्यार, श्रद्धा , निष्ठा शब्दों में लिपटे रहते थे , उसे मैं अपनी माँ , अपने बच्चों को पढकर सुनाती . कभी पापा , कभी भाई ...... कई बार शब्द धूमिल हो जाते , आँखों से आशीष बहता .
अविनाश से भी मैं मिली अनमोल संचयन के विमोचन में ... संस्कार तहजीब उसके पूरे वजूद से टपक रहा था . शांत, खामोश - पर बोलता अस्तित्व ! ... मेरी कलम अगर अविनाश को नहीं लिखती तो शख्सियत का यह ग्रन्थ अधूरा होता , क्योंकि इतनी कम उम्र में वह ख़ास ब्लॉगर्स के बीच अपनी पहचान रखता है . उसकी इन पंक्तियों की मासूमियत और अनुभव की प्रखरता पर गौर कीजिये ...

'अम्मी अम्मी
सुपर स्टार कैसा होता है
'जा देख ले अपने अब्बू को '
तब नहीं समझा
सच नहीं माना
अब दस गुनी तनख्वाह में
आधा घर नहीं चलता,
तब जाना.
तुम सच कहती हो अम्मी.'

कितने नम एहसास ... अविनाश के साथ मैं भी मुड़ मुड़के देखती हूँ , मुझे यकीन है आप भी देखेंगे -


बडबडाता हूँ जाने कैसे,
रोकने के लिए आँसू.
जो होते हैं आमादा,
अम्मा के पास रहने को.

नहीं रुकते पर माँ से,
वो गिरा देती है नमक.
चख लेता हूँ उन्ही को,
कुछ कहने को बचता नहीं.

हर कदम कदम पर,
देखता हूँ मुड़ के.
वो भरी भारी आँखें,
वो हिलता हाथ उनका.

उफ़ यह तल्ख़ एहसास,
मुश्किल से चलना मुड़ना.
उस वक़्त वो गली जाने,
कितनी लम्बी लगती है.

गली मुड़ते ही एहसास,
माँ से चिपक जाते हैं.
काश ये गली थोड़ी,
लम्बी हुई होती. .......... यदि मैं अविनाश के इन एहसासों को यहाँ नहीं लिखती तो निःसंदेह उसके साथ न्याय नहीं करती , क्योंकि यह उसके जीवन का आधार है, पहला सच है .


अब अविनाश की कलम से अविनाश -

सच कहूँ ...बीते एक घंटे से सोच रहा हूँ कि क्या लिखूँ?
कारण, किसी इंटरव्यू के अलावा "अपने बारे में" जैसे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। और वो कहानियाँ यहाँ नहीं सुना सकता।

सीधे शब्दों में ,
नाम: अविनाश चन्द्र
जन्म: 18 जून, 1986, वाराणसी
शिक्षा: अभियांत्रिकी स्नातक
अनुभव: एक निजी संस्थान में ३ वर्षों से कार्यरत
रुचियाँ: क्रिकेट खेलना, खाना पकाना, बागवानी और जो कुछ मिले सब सीखना
ब्लॉग:
1) मेरी कलम से http://penavinash.blogspot.com/ (यहाँ कवितायें लिखता हूँ, हिंदी में)
2) NEON SIGN http://talebyavi.blogspot.com/ (यहाँ कुछ भी लिखता हूँ, अंग्रेज़ी में)

प्रकाशित:
काव्य संग्रह: अबाबील की छिटकी बूँदें
काव्य संग्रह: अनमोल संचयन (प्रतिभागी कवि)

पूरी ईमानदारी से बात करूँ तो बताने लायक कुछ भी नहीं है मेरे पास, बनारस के एक साधारण से दम्पति कि साधारण सी संतान हूँ और उनका अज्रस प्रेम ही मेरी सबसे बड़ी थाती।
उस अतुल स्नेह और अदम्य ज्ञान में किलकता यही सीखा कि सब सीखना है इसी पार।
साहित्य पढ़ा हो या उसमे रूचि रही हो, ऐसा कहूँगा तो झूठ होगा स्वयं से ही। हाँ, ये कहूँगा कि पढ़ा है, और हमेशा पढ़ा है।
बचपन संभवतः गायत्री मन्त्र से शुरू हुआ होगा या सुन्दरकाण्ड से, ठीक से नहीं कह सकता लेकिन जो सामने आया सब पढ़ा है।
छोटा था तो पिता जी स्कूल खुलने के २-३ दिन पहले किताबें ले आते थे, जिल्द वगैरह बराबर करने के लिए और उन्हें पढने में तो १ दिन ही लगना था, अब आगे?
बड़ी कक्षा वालों की किताबें, यहाँ तक कि गणित की भी, माँग के पढ़ीं हैं।

देखना, सुनना और चुप रहना, बचपन से ऐसे ही व्यसन लगे हुए हैं इस कारण गति तो नहीं ही रहती थी, पर किसी न किसी विधि शिक्षकगण धक्का दे दे के कुछ न कुछ गतिविधि करवा लेते थे।
बचपन से ही हर हफ्ते 'भविष्य में क्या बनना है?' इसका उत्तर बदलता रहता था। आठवीं तक आते-आते चित्रकार, गायक, कवि, पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी यह सब बन के उतर चुका था मैं। इसके बाद क्रिकेट से लम्बा प्रेम रहा, लेकिन कभी न कभी उतरना था ही और फिर मैं एक इंजिनियर बन गया। आजकल ३ वर्षों से गुडगाँव में हूँ।

ज्ञान नहीं है पर आम रूचि की तरह भाषाओँ में भी रूचि है इसलिए जहाँ जाता हूँ वहाँ की भाषा और लिपि सीखने का यत्न करता हूँ, कितना सीख पाता हूँ इस पर बात करना अपनी पोल खोलने जैसा है।

लिखना कब शुरू किया ये याद नहीं, पर हाँ ऐसा दिन होगा जब चित्रकारी नहीं कर पा रहा होऊंगा और कोई एक तरफ से सादा कागज़ हाथ में होगा।हमारी हिंदी की शिक्षिका जो हमें आठवीं में पढ़ाने आयीं थी, उन्होंने संभवतः अधिक कविताई कराई मुझसे। अब जो मैं लिखता हूँ उसे कुछ तो कहना ही पड़ेगा, कविजनों से क्षमा-याचना सहित।
उन्होंने पूरे साल वार्षिक पत्रिका के नाम पर हमें कवितायें लिखने को कहा, और साल ख़त्म होते होते बस मैं था जिसने तीसेक कवितायें दी थीं। नतीजा, कोई पत्रिका नहीं निकली। :)
पर उनके आशीष के शब्द आज भी छाँव करते हैं।

रश्मि जी को तब से जानता हूँ जब मेरा या इनका ब्लॉग नहीं था, बहुत कुछ बदला है लेकिन अब तक एक चीज जो सबसे अच्छी थी, वो अब तक वैसी ही है। जब ये आशीष में कहती हैं, "खुश रहो बेटा!" मन सचमुच खुश हो उठता है। जब से इन्होने मुझसे कहा है परिचय देने को तब से सोच रहा हूँ, मेरा क्या परिचय दूँ?
और ऊपर की लीपा-पोती पढ़ कर कुछ-कुछ तो सब समझ गए होंगे कि बताने भर कुछ है नहीं मेरे पास। फिर भी...

मुठ्ठियाँ भींचें,
मुस्कान लपेट,
बातें करें अनेक।
इससे अच्छा है,
तुम खिसियाओ,
हम चुप रहें।
खोल दें मुठ्ठियाँ,
उड़ा दें जुगनू,
सन्नाटा रौशन हो,
आहिस्ता-आहिस्ता।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

शांत नदी सी - (शोभना चौरे)



वेदना तो हूँ पर संवेदना नहीं, सह तो हूँ पर अनुभूति नहीं, मौजूद तो हूँ पर एहसास नहीं, ज़िन्दगी तो हूँ पर जिंदादिल नहीं, मनुष्य तो हूँ पर मनुष्यता नहीं , विचार तो हूँ पर अभिव्यक्ति नहीं|... ये पंक्तियाँ हैं 'अभिव्यक्ति' की मालिकन शोभना चौरे जी की . मैंने शोभना जी को जब भी पढ़ा , वे मुझे एक शांत नदी सी लगी , जिसकी हर लहरों में जीवन के विविध संगीत होते हैं ! मेरे ब्लॉग के शुरूआती दौर में वे नियमित रूप से लिखती रहीं . मैंने जब 'अनमोल संचयन ' का संपादन किया तो शोभना जी भी उसका एक अंश बनीं , तात्पर्य कि उनकी रचना भी इस संग्रह में है . रचनाओं के मध्य मेरा उनका सम्मान का संबंध बना - वे मेरा सम्मान करती हैं, मैं उनका सम्मान करती हूँ .

अब पकड़ते हैं परिचयात्मक सूत्र शोभना जी के शब्दों में -

मेरा जन्म सन १९५४ में खंडवा (मध्य प्रदेश )में ऐसे परिवार में हुआ जहां पर लडकियो को कभी बोझ नही समझा |बहुत हि लाड प्यार से चार बहने होते हुये भी सम्पन्न सम्मिलित परिवार में लालन पालन हुआ |शिक्षा खंडवा में ही हुई |लाड प्यार से पालन जरूर हुआ कितु पिताजी बहुत सी बातो में सख्त | सरकारी पाठशालाओ में सम्पूर्ण शिक्षा | जिस महाविधालय मे पिताजी व्याख्याता थे सुविधाये मिलने के बावजूद भी कन्या महाविद्यालय में ही बड़ी मिन्नतो के बाद प्रवेश लेकर
बी.ए .तक शिक्षा |पढाई से ज्यादा कालेज की अन्य गतिविधियों में ज्यादा सक्रियता |और कालेज में आजीवन कुवारी रहने वाली प्रिंसिपल मेडम के सखत कानून जिन्होंने आत्मविश्वास प्रदान किया | औरे हर गलत बात का विरोध किया फलस्वरूप बहुत झिडकिया खाई है |
इन सब के बीच बड़ी मुश्किल से मिली एक डायरी में छोटी मोती कविताये या लेख लिखकर रख लेती एक बार पिताजी को हिम्मत कर डायरी बताई तो उन्होंने कहा "अब सब कवी ही हो गये क्या ?"तब से वो डायरी इतिहास बन गई |घर के कार्य करना और चोरी चोरी रेडियो सीलोन सुनना (क्योकि सिर्फ आकाशवाणी इंदौर और समाचार सुनना ही रेडियो का काम था )अच्छा लगता साहित्यिक किताबे जो तब समझ में नहीं आती थी उन्हें पढना |
कालेज खत्म होते ही शादी| शादी गाँव में हुई पर पति मुंबई में निजी कम्पनी में इंजिनियर तो एक महिना गाँव में बिताकर मुंबई की राह पर बहुत सारे सपने लेकर सपनो के शहर में |यहाँ भी काकी सास का सख्त कानून सारे सपने सपने ही रहे रहते अलग थे किन्तु मलाड और गोरेगांव के बीच की दूरी आतंक के लिए काफी थी |
आठ साल के देवर को पढ़ने की जिम्मेवारी थी मेरी परिवार में अघोषित नियम था जो पढ़ चुका है उसे आगे की पीढ़ी की जिमेवारी लेनी ही है |अपने भी दो बेटे हो गये |मुंबई के खर्चे बाहर जाकर काम भी नहीं किया जा सकता था \तब सिलाई का काम शुरू किया घर में ही|साथ ही महिला मंडल की सदस्य बनकर उन दिनों म्रणाल गोरे के साथ मिलकर बस्तियों में पढ़ाने का काम भी किया वही के बच्चो के कपड़े ,महिलाओ के कपड़े न्यूनतम शुल्क लेकर सिये |खूब संस्कृतिक गतिविधियों में भी भाग लिया और काकीजी को भी अपने अनुसार ढाल लिया तब काम आसान हो गया |मुंबई में १५ साल बिताने के बाद नोकरी के चलते विकरम सीमेंट( नीमच म प्र.)में आ गये |
यहाँ पर महिला मंडल के सोजन्य से गाँवो में काम करने का अवसर मिला जो मेरी दिली तमन्ना थी १० साल तक खूब काम किया |नेत्र शिविर ,परिवार नियोजन शिविर ,पोलियो शिविर ,महिलाओ को सिलाई सीखन,प्राथमिक स्कूल खोलना ,और सबसे बड़ा काम कारपेट बनाना बुनकर महिलाओ जिनका काम बंद हो चुका था उन्हें ट्रेनिग देकर काम सिखाना जो आज भी चल रहा है |वो मेरे जीवन का स्वर्णिम युग था |
इस बीच सन १९८९ में कविताओ की डायरी खुली |नै कविताये लिखी कुछ लेख धर्मयुग ,वामा सरिता में छपे भी दैनिक अख़बार में भी फिर इन सामाजिक कार्यो और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते फिर लिखना बंद हो गया २००८ में जब ब्लॉग के जरिये फिर लिखना शुरू किया सबका स्नेह पाकर भावनाएं चल पड़ी की बोर्ड के सहारे |
बहुत खूबसूरत जिन्दगी जी है सामाजिक व्यवस्थाओ से रिश्तो से शिकायत तो रहती ही है किन्तु कबीर की वाणी
बुरा जो देखन मै चला बुरा न मिलिया कोय
जो दिल देखा अपना मुझसे बुरा न कोय |
सारी कुंठाओ को मिटा देती है और एक नई उर्जा भर देती है जीवन में |
ब्लागिग ने भी बहुत कुछ दिया है पर पोते निमांश २ साल की बाल लीलाओ में अभी ब्लाग को कुछ नहीं दे पा रही हूँ |
प्रकाशित पुस्तक काव्य संग्रह -शब्द भाव , ... इसके साथ साथ मैं हूँ - 'अनमोल संचयन' एवं 'अनुगूँज' में ...

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

प्यार भरी जिद्दी सी लड़की


कैसे मिली .... कुछ याद नहीं , पर मुझे मिली और उसके मिलने में एक सच्चाई थी , है ....ब्लॉग तो उसके कई हैं , http://sadalikhna.blogspot.com/ सभी अपनी पहचान रखते हैं , पर मुझे जो ब्लॉग सबसे अच्छा लगा , वह है - http://ladli-sada.blogspot.com/ . इस ब्लॉग में सीमा सिंघल ने अपनी माँ की एक अद्वितीय गरिमायुक्त छवि को सुरक्षित किया है , उसकी ममता , बच्चे का भोलापन .... एक पवित्रता है यहाँ .
शांत, स्थिर , अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक ... यह सीमा की विशेषता है , इस विशेषता के साथ एक और विशेषता है उसकी - प्यार भरी जिद्दी सी लड़की की !
जहाँ तक मैं उसके करीब आती गई , बिना मिले उसे बहुत हद तक जाना ... जीवन उसका संघर्षमय रहा , पर अपनी सीमाओं के बीच उसने कभी हार नहीं मानी , न टूटी , ..... एक टूटना प्रत्यक्ष होता है, एक अप्रत्यक्ष - प्रत्यक्ष को हम मान के चलते हैं , अप्रत्यक्ष अपनी जगह होता है . तो - सीमा ने खुद को तो जतन से रखा ही , अपने पास के लोगों का भी भरपूर सम्मान और ख्याल किया .
बचपन में मैंने माँ के लिए पढ़ा था - 'दिन भर फिरकिनी सी खटती माँ बच्चों के सपनों के लिए सजग होती है , सिरहाने लोहे का टुकड़ा रखती है ताकि बुरे सपने ना आएँ '.... सीमा अपने से जुड़े लोगों के लिए ऐसी ही है... दिन भर फिरकिनी सी खटती , उनकी खुशियों , उनके सपनों का ख्याल रखती है !

सीमा की तरह उसका परिचय भी सीमित है - पर परिपक्व है

मैं सीमा सिंघल मेरे शब्‍दों में कहूं तो जब भी कभी मन के दरवाज़े पर भावनाओं ने दस्तक दी, उँगलियों ने उसे कलम के सहारे काग़ज़ पर उतार दिया ! आपने उसे कविता कहा...! ग़म, ख़ुशी, प्रेम, नाराज़गी, आग्रह, अवसाद या कुछ और...! सीधे सादे शब्‍दों में कहूं तो भावनाओं को व्‍यक्‍त करने का माध्‍यम कविता बखूबी करती है ! सिर्फ व्यक्त नहीं करती...बल्कि सिखाती भी है ! अनुराग...समर्पण ...जैसी सच्‍ची भावनाएं, ..जिसमें इंसानी जज्बे का अक्स हो ! मुझसे यह सब जुड़ता हैं.... ''खुद से'' आत्‍ममंथन के रूप में ! बस इसीलिए तो मन को भाता है कविता लिखना ! ...बचपन से ही पसन्‍द है लेखन का यह रूप ...!
कभी आकाशवाणी रीवा से प्रसारण द्वारा तो कभी पत्र-‍पत्रिकाओ में प्रकाशित होते हुए मेरी कवितायेँ आप तक पहुचती रहीं..! सन 2009 से ब्‍लॉग जगत में ‘सदा’ के नाम से जुड़ने के बाद सुखद परिणाम है कि मेरा प्रथम काव्‍य संग्रह ‘अर्पिता’ अब आप सबके बीच है ..! मेरी कुछ और कविताओं को आने वाले संकलन अनुगूंज में पढ़ा जा सकेगा.!
जन्‍म स्‍थान- रीवा (मध्‍यप्रदेश) शिक्षा एम.ए. (राजनीतिशास्‍त्र) से वर्तमान में एक नि‍जी संस्‍थान में निजसचिव के पद कार्यरत हूं रूचियों में लेखन के अलावा पुराने सिक्‍के संग्रहित करना, पुराने फिल्‍मी गीत सुनने के साथ अमृता प्रीतम जी को पढ़ना अच्‍छा लगता है..... मेरा ई-मेल- sssinghals@gmail.com एवं ब्‍लॉग - http://sadalikhna.blogspot.com/

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

बोलने में शालीनता ,बैठने में शालीनता , चलने में शालीनता (मुकेश कुमार सिन्हा)



जब मैंने इन्टरनेट का प्रयोग करना शुरू किया और ऑरकुट प्रोफाइल बन गया तो मेरे बच्चों के बाद मेरा पहला ऑरकुट दोस्त बना ' मुकेश ' . इन्टरनेट तो मुझे यूँ भी जादूनगरी लगी और नगरी में मुकेश ने बड़े प्यार से मुझे दीदी कहा . इतना मज़ा आया कि पूछिए मत .... उसकी कम्युनिटी थी ' JOKES, SHAYERIES & SONGS![JSS]' और मेरी 'मन का रथ' .... शुरुआत में वह मेरे हर लिखे पर कहता - ' कुछ नहीं समझे , कितनी बड़ी बड़ी बातें करती हो ...' पर एक बार उसने कहा -'दीदी मेरा मन कहता है तुम बहुत आगे जाओगी...' ..... जब भी मुझे कोई पड़ाव मिला मुकेश की यह बात मुझे याद आई . एक बार हमारी लड़ाई भी हुई , न उसने मनाया न मैंने - लेकिन रिश्ते की अहमियत थी , हम फिर बिना किसी मुद्दे को उठाये उतनी ही सरलता से बातें करने लगे !
फिर वह दिन आया जब मुकेश ने कुछ लिखा .... हर पहला कदम अपने आप में डगमगाता है , उसे भी खुद पर भरोसा नहीं था . पर मैंने कहा , लिखते तो जाओ ... और आज मुकेश की सोच ने शब्दों से मित्रता कर ली है और शब्दों ने उसे एक सफल ब्लॉगर बना दिया . अब ब्लॉग की दुनिया में उसकी अपनी एक पहचान है .
चुलबुला तो वह आज भी है , पर उस चुलबुलेपन के अन्दर एक शांत, गंभीर व्यक्ति है , जो हँसते हुए भी ज़िन्दगी को गंभीरता से समझता है .
कई बार हम ज़िन्दगी की ठोकरों से आहत कुछ लोगों से कतराते हैं, खुद पे झुंझलाते हैं - फिर अचानक हम बड़े हो जाते हैं और खुद से बातें करते हुए सुकून पाने लगते हैं कि यदि ज़िन्दगी यूँ तुड़ीमुड़ी न होती, अभाव के बादल घुमड़कर न बरसे होते तो जो खिली धूप आज है, वह ना होती !
मुकेश से मेरी मुलाकात 'अनमोल संचयन' के विमोचन में प्रगति मैदान में हुई , बोलने में शालीनता ,बैठने में शालीनता , चलने में शालीनता ...पूरे व्यक्तित्व में कुछ ख़ास था , जिसे शब्दों में नहीं बता सकती , ..... हाँ मुकेश का परिचय - संभव है , आपसे बहुत कुछ कह जाए -



४ सितम्बर १९७१, आनंद चतुर्दशी के दिन मेरा जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में बिहार के बेगुसराय जिला में हुआ था...! वैसे तो राष्ट्रकवि "दिनकर" का जन्म स्थान भी इसी जिले में है....:)...गरीब परिवार और छः भाई बहन में सबसे बड़ा होना...शायद मेरे जीवन में मेरे लिए एक अवरोधक की तरह था..उस पर ये भी पता नहीं था की पढाई क्यूं कर रहे हैं...! विज्ञान(गणित) में स्नातक(प्रतिष्ठा) प्रथम स्थान से उतीर्ण हुआ...क्योंकि घर वालो का मानना था की विज्ञान की पढाई ही सर्वश्रेष्ट है..!काश कुछ और विषय लिया होता..! बाद में ग्रामीण विकास में स्नातकोतर डिप्लोमा भी किया...! चूँकि नौकरी जरुरी थी...तो एक आम छात्र की तरह सामान्य ज्ञान को hobby की तरह अपना लिया..! इस कारण quiz में बहुत सारे पुरूस्कार मिले, all bihar quiz championship में एक बार runner - up भी रहा..! भाग्य का जायदा साथ न दे पाना और शुरू से आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के कोशिश के कारण भी जायदा कुछ अर्जित नहीं कर पाया...वो तो भगवन का शुक्र है की उम्र बीतने से पहले ही सरकारी नौकरी मिल गयी! सम्प्रति अभी कृषि राज्य मंत्री के साथ जुड़ा हुआ हूँ! मेरी जिंदगी मेरी पत्नी अंजू और दो बेटे यश और ऋषभ हैं...! रश्मि दी के द्वारा संकलित "अनमोल संचयन" में मेरी एक कविता प्रकाशित हो चुकी है....! बहुत बेहतर तो नहीं लिख पता हूँ..पर रश्मि दी के motivation से आज से तीन साल पहले ब्लॉग बनाया था.."जिंदगी की राहें" के नाम से...

मैं हूँ मुकेश कुमार सिन्हा ..
सरकारी नौकर ही नहीं ..कवि भी हूँ सरकार
विवाहित हूँ..और हूँ दो बच्चों का बाप..
खुशियाँ उनकी
बस इतनी सी है दरकार
सीधा सरल सहज..
साधारण सा हूँ इंसान..
सादगी है मेरी पहचान ....
नैतिक कर्त्तव्य ..
सामाजिक दायित्व..
इन सबका मुझे है भान
भावों की रंगोली सजाना
खुशियों के बीज बोना
.आनंद के वृक्ष उगाना
जीवन का है ये अरमान
बस इतना सा ही है मेरा काम.


मुकेश का ब्लॉग - http://jindagikeerahen.blogspot.com/

बुधवार, 6 जुलाई 2011

अजय कुमार झा ... यानि कुछ भी कभी भी



अंतरजाल की दुनिया में अजय कुमार झा ... यानि कुछ भी कभी भी ... इसका ज्वलंत उदाहरण है उनका ये परिचय , मैंने कहा - ' मेरी कलम के लिए आपकी कलम से मुख्य जानकारी चाहिए - बचपन से अब तक ' और उनका जवाब आया - 'बचपन से अब तक का ..हा हा हा ये तो बडा ही मजेदार परिचय मांग लिया आपने , लिख कर भेज सकता हूं , वो भी शायद देर रात तक क्योंकि शाम का वक्त कुछ ब्लॉगर मित्रों के नाम है , यदि इतना समय दे सकें तो मेहरबानी होगी ।' और मैंने कर दी मेहरबानी .... जो ख़ास शख्स होते हैं , उनकी मेहरबानी के लिए मेहरबानी ज़रूरी भी तो है !
इनको मैंने पढ़ा , पर पढ़ने में पहली खासियत थी 'पटना' लिखा होना . अपने क्षेत्र से कोई हो तो बड़ा अच्छा लगता है , मुझे भी लगा -
'झा जी कहिन ' में अजय जी ज्यादा लोगों के करीब रहे . और झा जी कहिन भी में यह पृष्ठ http://ajaykumarjha.com/blog/%E0%A4%A4%E0%A5%82-%E0%A4%B9%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0/ उनकी नींव की सशक्त दर्शाता है, देखकर आगत के स्वर सुनाई देते हैं . अजय जी की ख़ुशी वहाँ टिप्पणी में देखी जा सकती है . मैंने सोचा , आयुष ने उनके सिखाये को यूँ अंजाम न दिया होता तो झा जी ऐसा नहीं कर पाते , बस कहते ही रहते !

अब हम उस दिशा में कदम बढ़ाएं, जहाँ वह सब है जिसे उनको पढनेवाले जानना चाहेंगे औए खुद अजय जी बताना चाहेंगे , क्योंकि' कुछ भी कभी भी' के पीछे यही तो पृष्ठभूमि है -


सोच रहा हूं कि बचपन में मेरी क्या पहचान थी , एक बच्चा था , बस और क्या , पिता फ़ौजी और मां गृहणी , एक बडी बहन और एक छोटे भाई के बीच , यानि माता पिता की मंझली संतान । जाने अब मां और पिताजी को ये पहले ही आभास हो गया था कि शायद उन्होंने मेरी आदतों को देखकर मेरा घर का नाम रखा था "भोला "
,और मैं उन दिनों इतना ही भोला हुआ करता था कि दोस्त , पेड के नीचे ले जाकर , दूर शाख पर लटके मधुमक्खी के छत्ते में ढेला मार कर फ़ुर्र और मैं जब तक भागने की सोचता या मुझे खतरे का एहसास होता तब तक तो एक आध डंक खा चुका होता था फ़िर रोते धोते घर वापस । बचपन तो बचपन ही होता है , उस वक्त तो शायद शहरों का भी वो बचपन ही था , आज जब उन्हें जवां और मशरूफ़ होता देखता हूं तो अहसास होता है कि सडकों पर अपनी मस्ती में भागते तांगे , और पूरे रास्ते लगे हरे भरे पेड उनके बचपन की ही निशानी तो थे । हम भी उन दरख्तों के साथ ही बढते चले गए ।

आम बच्चों की तरह ,पतंग उडाने , कंचे खेलने , कॉमिक्स पढने , स्टार ट्रैक देखने , लट्टू नचाने और सायकल के टायर को डंडो से चलाने दौडाने तक के सारे खेल में खूब भागीदारी करते थे । ये तो याद नहीं कि किसी भी खेल के चैंपियन सरीखे पहचाने गए हों , लेकिन ये जरूर था कि हर खेल में इतनी महारत तो हो ही जाती थी कि दोस्तों की टीम चुनते समय अपना भी खास ख्याल रखा जाता था और इतना ही बहुत हुआ करता था उन दिनों । फ़ौजी कैंट की कॉलोनियों में बिजली जाने के बाद घंटे दो घंटे के अंधरे में छुपन छुपाई का वो दौर शायद ही उसके बाद चलन में रहा हो । पढाई लिखाई में यही हैसियत थी कि घर वाले निश्चिंत रहते थे , कभी अव्वल आना नहीं है और कभी फ़ेल होना नहीं है , सच कहें तो उस समय तो तैंतीस प्रतिशत पा लेने वाली ललक भी कभी नहीं जगी थी और मैट्रिक परीक्षा तक यही हाल रहा था ।


एक खास बाद बचपन से लेकर युवापन तक और उसके बाद से लेकर शायद अब तक ये महसूस की अपने साथ कि जाने अनजाने दोस्तों के केंद्र में जरूर आता रहा । यानि कुल मिलाकर मैं वो बिंदु था जहां आकर सारी मित्र रेखाएं मिल जाती थीं । मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण पढाई लिखाई खत्म होते होते ही कैरियर बनाने संवारने की एक स्वाभाविक सी जिम्मेदारी ओढ ही ली जाती है सो हमने भी ओढ ली । अपनी स्थितियां कुछ ज्यादा दुश्वार इसलिए हुईं क्योंकि बडी बहन , वो भी जिसे पिताजी अपना बडा बेटा समझते थे और मां की पक्की सहेली थी वो , के अचानक चले जाने के बाद पिता मानसिक संतुलन खो बैठे और मां शरीर को घुन लगा बैठीं और अंतत: उन्होंने भी साथ छोड दिया । लेकिन वे दिन जिंदगी के सबसे कठिन दिनों में से एक थे । मुझे याद है कि कैसे एक हादसे ने मुझसे मेरा बचपन छीन कर मुझे रातों रात अपने मां पिता का अभिभावक बना दिया था ।

संघर्ष के दिन वो रहे जब , इस महानगर में हम कुछ दोस्त अपनी अपनी जगह तलाश रहे थे । कई क्षेत्रों में रुचि और प्रयास करने के बावजूद सरकारी सेवा को सबसे सुरक्षित मानते हुए किस्मत ने उसीसे जोड दिया । खुशकिस्मती ये रही कि सरकारी सेवा में आने के बावजूद भी क्षेत्र रहा विधि और न्याय , जिसका एक लाभ ये रहा कि खुद के अलावा मित्रों दोस्तों के बहुत ही काम आने का मौका मिल गया जो अब भी जारी है । पढने लिखने का शौक यूं तो मुझे शायद पहली बार तब हुआ था जब मैं ग्यारहवी कक्षा में था , रही सही कसर पूरी कर दी संपादकों के नाम पत्रों और विभिन्न रेडियो स्टेशनों की हिंदी सेवा जैसे बीबीसी , वॉयस ऑफ़ अमेरिका , रेडियो डोईचेवैले , और रेडियो जापान आदि जैसी सेवाओं में एक श्रोता के रूप में लिखे सैकडों पत्रों ने । इनके सहारे मिली पहचान (एक पाठक और एक श्रोता के रूप में ) ने मुझे न सिर्फ़ प्रेरणा दी बल्कि बहुत सी बारीकियां और एक पत्रकारीय गुण भी । यहां ये बताना दिलचस्प होगा कि समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र और रेडियो श्रोता के रूप में उन दिनों एक अनिवार्य नाम सा बन चुका था मैं । और जो थोडी बहुत कमी रही वो पूरी कर दी अंग्रेजी साहित्य की प्रतिष्ठा की पढाई और रूममेट्स के हिंदी साहित्य के प्रेम ने ।


इसने एक ऐसे सफ़र की शुरूआत कर दी जिसने मुझे एक नई दुनिया ही दे दी । साहित्य की , भाषा की , शब्दों की दुनिया , और अपनी आदत के अनुरूप मैं उसमें ऐसा रम गया कि अब ये एक जुनून बन गया है । यहां शायद ये बताना ठीक होगा कि अपने कार्यालय के अलावा मैं अब भी पूरे चौबीस घंटों में कम से कम सात आठ घंटे तो लिख पढ ही लेता हूं , क्या , ये मैं खुद भी नहीं जानता , यानि तय नहीं होता है कुछ भी । कभी सत्रह अखबारों में से सारे के सारे , कभी फ़ेसबुक पर सारे मित्रों के स्टेटस तो कभी जाने कौन कौन से एग्रीगेटर्स से तलाश कर और एक पोस्ट से दूसरी पोस्टों तक भटकते हुए , जितना पढता जाता हूं , उतना ही लिखता भी जाता हूं , और अब तक ये सफ़र अनवरत जारी है ।


अजय कुमार झा
मेरा अंतर्जाल पता :-http://blog.ajaykumarjha.com/
11/248 3rd floor,
geeta colony,
delhi-110031
9871205767

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

कहो तो किस्मत बदल दूँ ( संगीता पुरी )



संगीता जी .... उनसे मेरी मुलाकात 'हिंदी भवन' में हुई , मुलाकात हमारी मुस्कुराहट की और जाना कि वे तो भविष्य देखती हैं . आधुनिकता की छुवन से दूर संगीता जी के चेहरे पर आत्मविश्वास का जो तेज था , वह किसी के कुछ मानने न मानने का मोहताज नहीं था . सधे क़दमों से मंच की तरफ बढ़ते उनके कदम उनकी प्रखरता को स्थापित कर रहे थे .
लौटकर मैं भी अपनी परेशानी का चिटठा लेकर मेल के माध्यम से उन तक पहुँच गई अपने बच्चों के बारे में जानने की उत्कंठा लिए और इतने स्नेहिल ढंग से उन्होंने जवाब दिया कि बता नहीं सकती.... बस इतना कह सकती हूँ कि आसमान यूँ हीं हर किसी के आगे नहीं झुकता !

होते हैं रूबरू संगीता जी से , मेरी कलम से आगे बढ़कर उनकी कलम तक ...

19 दिसंबर 1963 को बोकारो जिले के पेटरवार नामक एक गांव(तब गिरीडीह जिले
के अंतर्गत था) में सुशिक्षित और महत्‍वाकांक्षी माता पिता (श्री विद्या
सागर महथा और श्रीमती वीणा देवी) की पहली संतान के रूप में मेरा जन्‍म
हुआ , इस कारण बचपन के पालन पोषण में मेरे शारीरिक और मानसिक विकास में
उनका पूरा ध्‍यान होना स्‍वाभाविक था। खासकर इस कारण भी कि उनका कैरियर
माता पिता की अस्‍वीकृति की भेट चढ चुका था और वे दादाजी के व्‍यवसाय को
संभालने के लिए खुद परिवार सहित गांव में निवास करना आरंभ कर चुके थे।
उन्‍हें भय था कि गांव के बच्‍चों के साथ खेल कूद में ही मैं अपना जीवन
बर्वाद न कर दूं , इसलिए वे मेरे क्रियाकलापों पर खास ध्‍यान देते।
हालांकि बचपन में मैं शैतानी करने में गांव के सारे बच्‍चों से कम न थी ,
पर शुक्र था कि पढाई में भी कभी पीछे न रही। पापाजी की महत्‍वाकांक्षा ने
मात्र छह वर्ष की उम्र में मुझे चौथी कक्षा में प्रवेश करा दिया , पर मैं
हर कक्षा की पुस्‍तकों को सही ढंग से समझती , हर विषय की विषयवस्‍तु को
संभालती आगे बढती चली गयी और बहुत जल्‍द 1978 में प्रथम श्रेणी से
मैट्रिक की परीक्षा पास की।

आगे की पढाई के लिए दादाजी मुझे होस्‍टल भेजने को तैयार न थे , गांव में
कॉलेज की सुविधा न थी , मेरा अध्‍ययन बाधित ही हो गया होता , पर अचानक
गांववालों ने एक प्राइवेट कॉलेज खोलने का निश्‍चय किया। पापाजी के पास
उसके प्रिंसिपल बनने का प्रस्‍ताव आया , मेरे लिए पापाजी ने कॉलेज को
सेवा देने का निश्‍चय किया और इस तरह इंटर की मेरी पढाई पूरी हुई। इंटर
पास करने के बाद ग्रेज्‍युएशन में पुन: समस्‍या आयी। प्राइवेट कॉलेजों से
पढाई करने पर ‘ऑनर्स’ नहीं मिलता , इसलिए कहीं एडमिशन लेना आवश्‍यक था ,
पर दादाजी बिल्‍कुल भी तैयार न थे। मेरी पढाई को लेकर मम्‍मी और पापाजी
तनाव में थे ही कि अचानक मामाजी का पत्र आया। वे सी सी एल में सर्विस
करते थे और हजारीबाग के एक छोटी सी सी सी एल की कॉलोनी में रहते थे ,
जहां बच्‍चों की पढाई की सुविधा नहीं थी। बच्‍चों की पढाई के लिए
उन्‍होने हजारीबाग में इसी महीने किराए पर एक घर लिया था और मामी सहित
बच्‍चों को शिफ्ट करा दिया था। उन्‍होने पत्र में मेरा नामांकण भी के बी
महिला कॉलेज , हजारीबाग में कराने का प्रस्‍ताव रखा था । गणित में रूचि
होने के कारण मैने अर्थशास्‍त्र में ऑनर्स करने का निश्‍चय किया , ताकि
इसके माध्‍यम से सांख्यिकी और इकोनोमैट्रिक्‍स को पढते हुए मुझे कुछ
संतोष हो सके। इस तरह मेरी पढाई की निरंतरता बनती गयी।

पढने पढाने में मेरी शुरू से ही रूचि रही है , छोटे तीन भाइयों और दो
बहनों में से किसी की भी कोई परीक्षा होती , मैं उन्‍हें पढाने में
व्‍यस्‍त हो जाया करती थी। महिलाओं के लिए कैरियर के रूप में शिक्षा का
क्षेत्र मेरे लिए शुरू से ही पसंदीदा भी रहा है। कॉलेज करते वक्‍त महिला
लेक्‍चररों के जीवन से मैं खासी प्रभावित हुई। इसलिए एम ए करने का
निश्‍चय किया। पर एम ए करने से ही क्‍या हो , तब लेक्‍चररों की स्‍थायी
नियुक्ति नहीं हो रही थी। शहरी क्षेत्र के युवा अस्‍थायी तौर पर क्‍लासेज
ले लिया करते थे , धीरे धीरे उनकी स्‍थायी नौकरी भी हो गयी। गांव में
निवास करनेवाली मेरे लिए यह संभव नहीं था , 1988 में विवाह के बाद भी एक
छोटी कॉलोनी में ही मेरा रहना हुआ। यहां भी कैरियर का कोई विकल्‍प न था ,
मन मसोसकर ससुराल में अपने पारिवारिक दायित्‍वों को निभाती चली गयी।

विद्यार्थी जीवन से ही मेरी रूचि ज्‍योतिष की ओर गयी , जिसमें पापाजी को
दिन रात उलझे हुए देखा था। पापाजी बहुत सी ऐसी बातें पहले बताते , जो बाद
में घटित होती थी। विभिन्‍न ज्‍योतिषीय पत्र पत्रिकाओं में पापाजी के लेख
प्रकाशित होते और उन्‍हें तरह तरह की उपाधियां मिलती , जिसे देखकर मैं
प्रभावित हुआ करती थी। ज्‍योतिष के अध्‍ययन के क्रम में उन्‍होने इसकी कई
कमजोरियां महसूस की थी और उसे दूर करते हुए ज्‍योतिष की एक शाखा के रूप
में ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ का विकास 1975 से 1987 के दौरान कर लिया था।
विवाह के बाद अपनी पहचान को खोते देख मैने भी ज्‍योतिष का अध्‍ययन आरंभ
किया। पति के भरपूर सहयोग के कारण दोनो बेटों के पालन पोषण की
जिम्‍मेदारियों के बावजूद भी 1991 से ही विभिन्‍न ज्‍योतिषीय पत्र
पत्रिकाओं में मेरे आलेख प्रकाशित होने शुरू हो गए और दिसंबर 1996 मे ही
मेरी पुस्‍तक ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष: ग्रहों का प्रभाव’ प्रकाशित होकर आ
गयी। इसे पाठकों का इतना समर्थन प्राप्‍त हुआ कि प्रकाशक को शीघ्र ही
1999 में इसका दूसरा संस्‍करण प्रकाशित करना पडा।

वर्ष 2002 में पापाजी के सिद्धांतों को कंप्‍यूटराइज्‍ड करने की इच्‍छा
ने मुझे कंप्‍यूटर क्‍लासेज जाने को प्रेरित किया। एम एस ऑफिस सीखकर ही
मैने ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ के सिद्धांत की कुछ प्रोग्रामिंग कर ली थी।
एक्‍सेल की शीट पर सारी गणनाएं और एम एस वर्ड के मेल मर्ज का सहारा लेकर
हर ग्रह स्थिति की भविष्‍यवाणी के लिए प्रोग्रामिंग कर लिया था , पर उससे
मुझे संतोष नहीं हो सका और पुन: वी बी सीखने का मन बनाया। वी बी सीखने के
बाद ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ के सिद्धांतों पर आधारित एक सॉफ्टवेयर
‘प्रीडेस्‍टीनेशन’ तैयार कर चुकी हूं , जो अभी मेरे पीसी में ही इंस्‍टॉल
है। इस सॉफ्टवेयर में जन्‍मतिथि , जन्‍मसमय और जन्‍मस्‍थान भरने पर
जन्‍मकालीन ग्रहों के आधार पर यह व्‍यक्ति के पूरे जीवन के उतार चढाव ,
महत्‍वाकांक्षा और सफलता का जीवनग्राफ निकालने के साथ साथ व्‍यक्ति के
चरित्र तथा छह छह वर्षों की परिस्थितियों के बारे में जानकारी देता है।
इस सॉफ्टवेयर में हिंदी में काम करने में कई बाधाएं आयी थी।

अब ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ के प्रचार प्रसार के कार्यक्रम को अंजाम देने
की बारी थी , पर मेरे घर से बाहर कदम रखने से बच्‍चों के पढाई लिखाई में
व्‍यवधान आता , इसलिए मैने घर में रहकर ही 2003 में ‘गत्‍यात्‍मक
ज्‍योतिष’ को इंटरनेट के माध्‍यम से प्रचारित प्रसारित करने का कार्यक्रम
बनाया। बी एस एन एल ने अपने ग्राहकों को कुछ वेब पर कुछ पन्‍ने दिए थे ,
मैने उसमें ही इससे संबंधित जानकारी डाली। उस समय वेब पर हिंदी लिखने के
बारे में मुझे जानकारी नहीं थी , इसलिए अंग्रेजी में ही सारे लेख डालें।
2004 में पहली बार ब्‍लॉग बनाकर उसमें हिंदी के कृतिदेव फॉण्‍ट में अपना
एक प्रकाशित करने की कोशिश की , पर हिंदी प्रकाशित नहीं हो सकी। 2007 में
रजनीश मंगला जी के कृतिदेव से यूनिकोड में परिवर्तित करने के टूल की
जानकारी होते ही मैने सफलतापूर्वक अपने आलेखों को ब्‍लॉग में प्रकाशित
किया। उस समय मैं वर्डप्रेस में लिखा करती थी , एक वर्ष बाद 2008 में
ब्‍लॉगस्‍पॉट पर लिखना आरंभ किया। शीघ्र ही कई ब्‍लॉग बना लिए और उसमें
लगातार लिखती रही। ज्‍योतिष से जुडे लेखों के अलावे मैने कुछ कहानियां भी
लिखी हैं।

इतने वर्षों से ज्‍योतिष के अध्‍ययन मनन के बाद अपने विचारों को
अभिव्‍यक्‍त करने के लिए ब्‍लॉगिंग का एक आधार पाकर बहुत खुशी मिली ,
अपने ब्‍लॉग में जहां एक ओर पाठकों को ज्‍योतिष की इस नई शाखा से परिचय
करवाया गया है , वहीं दूसरी ओर समय समय पर कुछ सटीक भविष्‍यवाणियां क‍र
लोगों को ज्‍योतिष के प्रत विश्‍वास को बढाया गया है। जनसामान्‍य में
ज्‍योतिष और धर्म से जुडी भ्रांतियों को दूर करना ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’
का मुख्‍य लक्ष्‍य है और इसमें मुझे सफलता मिलती दिखाई दे रही है। बहुत
सारे पाठकों से विचारों का आदान प्रदान , तर्क वितर्क करना अच्‍छा लगता
है। ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ के दोनो ब्‍लोगों ने एक एक लाख की विजिटर्स
संख्‍या को पार कर लिया है , पाठकों के इस प्रकार सहयोग मिलने से मैं
बहुत खुश हूं। इसी दौरान दोनो बेटे अपनी इंजीनियरिंग की पढाई में
व्‍यस्‍त हो चुके हैं , इसलिए आनेवाले दिनों में मैं ब्‍लॉगिंग को अधिक
समय दे सकूंगी , उम्‍मीद करती हूं कि पाठकों का पूर्ण सहयोग मुझे
प्राप्‍त होगा और समाज से ज्‍योतिषीय भ्रांतियों को दूर करने के प्रयास
में मुझे सफलता मिलेगी।


सोमवार, 4 जुलाई 2011

भीड़ में भी अलग- (एस.एम् हबीब)



एस.एम् हबीब से मेरी मुख्य पहचान हुई द्रौपदी के माध्यम से ... जी हाँ द्रौपदी - जिसे संगीता स्वरुप जी ने प्रासंगिक तौर पर उठाया , मैंने द्रौपदी को आधार बनाया एस.एम्.हबीब ने द्रौपदी के प्रश्नों का उत्तर दिया - http://urvija.parikalpnaa.com/2011/05/blog-post_6242.html
और इसके बाद गहराई से मैंने इनको पढ़ना शुरू किया और जाना उनको उनके ही शब्दों में - ज़मीरे खुद में देखा, फ़क़त तारीको खलाश है. खुद को न पा सका, मुझे अपनी ही तलाश है.
मैं और प्रभावित हुई जब मैंने पढ़ा -
एक बुनियादी फर्क होता है
इंसान और पत्थर में,
चेतनता और जड़ता का...
किन्तु दोनों में
एक विचित्र संयोग भी देखा मैंने-
"लहू बहाते वक़्त अक्सर पत्थर हो जता है इंसान!!!" सूक्ष्म विचारों के बीच से जो गुजरता है , वह भीड़ में भी अलग होता है !

भीड़ में होकर भी भीड़ से अलग एस.एम्.हबीब को जानें उनके द्वारा -

नाम - एस. एम्. हबीब (संजय मिश्रा 'हबीब')
जन्म - १४ जुलाई १९६५
जन्मस्थान - रायपुर छत्तीसगढ़
पिताजी - स्व. गोपाल चन्द्र मिश्रा
शिक्षा - स्नातक
कार्यक्षेत्र - (शासकीय) नेत्र सहायक अधिकारी रायपुर छत्तीसगढ़
प्रकाशन - कलरव (संयुक्त काव्य संग्रह)
- स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में कवितायें, कहानी, व्यंग्य प्रकाशित.
- (कुछ किताबों में आवरण निर्माण और रेखाचित्र)
सम्पादन - 'ब्रह्मास्त्र - १०' (सामाजिक पत्रिका)
पुरस्कार - "साहित्य प्रहरी पुरस्कार - 2010" (चेतना साहित्य एवं कला परिषद् छ. ग.)
रूचि - पठन, लेखन, चित्रकारी.
पता - ३०/५१८, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्रतिमा के पीछे, आजाद चौक रायपुर छत्तीसगढ़.
४९२००१. फोन - ०७७१-४०१०८०८ | ९३२९५८०८०३ | ९४०६३८०८०३

घर में सभी को पुस्तकों से बड़ा लगाव रहा. बचपन से ही दादा जी को पढ़ते देखा. उनके पास संस्कृत, हिंदी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, उडिया आदि भिन्न भिन्न भाषाओं की जाने कितनी किताबें थीं. उनका इन सभी भाषाओं पर कमाल की पकड़ थी. उनसे ही मुझे उर्दू का कायदा, और बांग्ला भाषा का प्रारंभिक ज्ञान मिला और एनी भाषाओं के प्रति जिज्ञासा भी जागी. मैनें एक बार उनसे उत्सुकतावश पूछता "बाबा, आपने कोई किबाब नहीं लिखी?" वे हंस कर एकदम सादगी से बोले "नहीं रे... दुनिया में इतनी सारी किताबें हैं पढने के लिए, इतनी चीज़ें हैं सीखने के लिए कि वक़्त ही नहीं बचता कुछ लिखूं..." और उन्होंने मुझे एक किताब दी. अनिल बर्वे की "थेंक यु मि. ग्लाड" देशभक्ति और मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण इस प्रहसन ने जैसे विशाल साहित्य जगत का द्वार मेरे लिए खोल दिया... दादा जी की प्रेरणा से जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेनू, आचार्य चतुरसेन शाष्त्री, कालिदास, महादेवी वर्मा, निराला, पन्त, बच्चन, धर्मवीर भारती, अमृता प्रीतम, सहित टालस्टाय, गोर्की, मोपांसा, एंटन चेखव इत्यादि कालजयी रचनाकारों की किताबों से गहरी मित्रता हो गयी... आज भी ये मेरे अभिन्न मित्र हैं और मेरा संबल भी.... इनकी उंगली थामे चलते हुए ग्रेजुएसन के बाद कुछ वक़्त हाई स्कूल में अध्यापन कार्य किया साथ ही कुछ समाचार पत्रों में कार्य करते हुए नेत्र विज्ञान में डिप्लोमा की और वर्तमान में शासकीय चिकित्सालय में कार्यरत हूँ. बहुत ज्यादा लेखन नहीं किया है. कभी अंतर में भावों का दरिया फूट पड़ता है तो रचनाओं के रूप में संकलित कर लेता हूँ. चेतना साहित्य एवं कला परिषद् द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह 'कलरव' में छत्तीसगढ़ प्रदेश के छः प्रतिष्टित कवियों की रचनाओं के साथ मेरी १० कवितायें संकलित हैं का विमोचन अभी हाल में संपन्न हुआ है. आतंकवाद पर लिखी अपनी एक कहानी "अतीत" का नन्हा पात्र 'हबीब' अनायास मेरे नाम के साथ चलने लगा.... इस कथा के एक संवाद " कि हबीब, तू अपने नाम की तरह सारी खिलकत का दोस्त बनना" के सादे व सहज अर्थ को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता हूँ....

मुझसे मिलें - http://smhabib1408.blogspot.com/

रविवार, 3 जुलाई 2011

वाकई हम कायल हैं - (रेखा श्रीवास्तव )

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कोई हंसेगा नहीं .... आपस की बात है, जब मेरे पास पहली बार रेखा श्रीवास्तव जी के ब्लॉग का लिंक आया और मैं वहाँ गई तो सच कहती हूँ - मेरे तो हाथ पाँव फूल गए ... हर आर्टिकल किसी शोध से कम नहीं लगता था और अज्ञानी की तरह टुकुर टुकुर देखती, पढ़ती ... समस्या तो तब आती जब अंत में टिप्पणी देने की बारी आती ! ' संसद के कारनामे', 'मी लॉर्ड हम भूखे मर जायेंगे' ... ऐसे आलेख इनके समक्ष मुझे नतमस्तक कर देता और नतमस्तक मैं बाँए-दांये देखती अपने घर लौट आती - कई बार बिना टिप्पणी दिए और बाई गौड मुझे लगता रेखा जी ने मुझे पकड़ लिया है . ये समस्या थी , मेरा सरोकार , मेरी सोच ... में , hindigen में मुझे अपनी खुराक मिली , मन ही मन धन्यवाद दिया - चलो कुछ तो मेरे लिए परोसा .
परिकल्पना ब्लोगोत्सव के आयोजन में अचानक रेखा जी मुझे मिलीं ... फिर अन्दर में नन्हा मन डरा पर ऊपर से बोला - नमस्ते नमस्ते ... बोलिए , यदि मैं अपनी इस स्थिति का खुलासा ना करती तो क्या आप समझ पाते !
अभी हाल में बचपन के संस्मरण की मांग ने , और उस संस्मरण पर उनकी टिप्पणी ने कहा - 'घबराने जैसी कोई बात नहीं , ये तो बहुत अच्छी हैं ' . पर विद्वता ... वाकई हम कायल हैं .
अब आगे की यात्रा उनके शब्दों में -


अपने बारे में कुछ विशेष कहने को नहीं है फिर भी बहुत कुछ है कि शब्दों की सीमा में बांधना मुश्किल हो रहा है. मैंने एक छोटे से कस्बे बुंदेलखंड के उरई नामक जगह पर जन्म लिया. मध्यम वर्गीय कृषि और गाँव से जुड़ा मेरा परिवार. लेकिन पापा मेरे शहर में ही पढ़े रहे सो हम भी वही के हो लिए. मेरे पापा वाकई विद्वान् थे उस समय उन्हें पांच भाषाओं पर पूरा अधिकार था. वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और फारसी भाषा जानते थे. पढ़ने के बेहद शौक़ीन और यही रोग हम भाई बहनों में भी लग गया. मूल्यों औ सिद्धांतों का पालन भी हमें विरासत में मिला और उसे समय के साथ भी मैं छोड़ नहीं पाई वैसे बहुत कष्ट पाया और वो हासिल न कर सकी जिसकी मैं हक़दार थी लेकिन समझौता मुझे कभी मंजूर नहीं था. मेरे आदर्श और मूल्य ही मेरी सबसे बड़ी दौलत हैं.
मेरे पापा भी कविता लिखते थे, (लेकिन ये बात मुझे पता नहीं थी) मैंने बचपन से लिखना शुरू कर दिया था पहली कहानी १० वर्ष कि आयु में "दैनिक जागरण " के बाल जगत में प्रकाशित हुई थी. चार बहनों में सबसे बड़ी थी और भाई साहब मुझसे बड़े. मैं सबसे अलग थी सिर्फ घर में नहीं बाहर भी लोगों कि प्रिय थी. शादी से पहले डबल एम ए कर चुकी . सामाजिक समस्याओं से मेरा सरोकार हमेशा से ही रहा और लेखनी उस पर ही चलती रही. अधिकतर यथार्थ पर चली और वही आज भी मेरा ब्लॉग यथार्थ उसका साक्षी है. १९७२ में लेखन ने अपने पर व्योम में फैलाने शुरू किये और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशन शुरू हो गया. १९७५ में मेरी पहली कविता कादम्बिनी में पहली बार प्रकाशित हुई. फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. लेख अधिक लिखे साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, मनोरमा, सारिका, सरिता और नवनीत सभी में प्रकाशन हुआ. अपने कस्बे में ही नहीं बल्कि बाहर भी पहचान बन चुकी थी.
१९८० में शादी के बाद कानपुर आह गयी लेकिन मेरे लेखन के कद्रदान सिर्फ मेरे पतिदेव ही थे. छोटी बहू के दायित्वों तले मेरा लेखन दम तोड़ने लगा . ३१ साल पहले आम घरों की तरह मेरा भी घर था. काम और काम के ही सब चाहने वाले थे. हर घर की तरह भी मुझे भी अपने को सिद्ध करना पड़ा. बी एड और एम एड शादी के बाद किया. जो एक अग्नि परीक्षा थी. लेकिन हारी नहीं क्योंकि साथ देने वाले का पूर्ण सहयोग रहा. मेरे नोट्स तक बनवाये. आम घरों की तरह से कटाक्ष, असहयोग और छोटे होने की पीड़ा मैंने भी झेली और उसको डायरियो में कैद करती गयी तभी इतना सब झेल सकी. लिखने पर विराम सा लग गया . मेरी दो बेटियाँ हैं और दोनों ही मेडिकल क्षेत्र से जुड़ी हैं.
१९८६ में आई आई टी में नौकरी लगी एक साल बाद मशीन अनुवाद से जुड़ी. कंप्यूटर तब इतने कॉमन नहीं थे. धीरे धीरे मिले और उसकी ए बी सी डी वहीँ गुरुजनों से सीखी. और फिर 'करत करत अभ्यास ते....' पारंगत हो गयी. शौकिया तौर पर कानपुर विश्वविद्यालय से डिप्लोमा कोर्स किया जिसका सर्टिफिकेट आज भी वहीँ पड़ा है.
जब नेट का प्रयोग करने को मिला तो ब्लॉग के बारे में जाना और बना ही डाला फिर खो गया और मैं भी भूल गयी. फिर कभी यूँ ही चलते चलते फिर मुलाकात हो गयी तो फिर मैं ऑफिस में एक डायरी रखती थी जिसमें कविता, कहानी, लेख लिखती रहती थी. बीच के वर्षों में लेखनी सोयी नहीं - संयुक्त परिवार और नौकरी के बीच जूझती रही लेकिन संवेदनशील मन तूफान रहित तो नहीं था - आक्रोश, विवशता और अन्याय के खिलाफ जुबां नहीं खुल पाई तो क्या कलम पर पहरे कोई नहीं लगा पाया और जो लिखा जाता रहा संगृहीत होता रहा.
ब्लॉग बना कर सब कुछ उस पर डाल दिया. अब तो निर्बाध कलम चलती है क्योंकि बेबाक बोलने, लिखने और कहने से डरती नहीं हूँ. मेरी पहचान बचपन से लेकर आज तक जहाँ भी रहीं अलग बनी रही. आज भी है. मेरे लेखन ने मुझे एक नई पहचान स्कूल के समय में जब देश में खाद्य समस्या में चुनौती बनी थी तब इंटर कॉलेज में आठवें कक्षा की लड़की ने कलम चला कर अपना नाम सब स्कूलों के बीच दर्ज करवा कर पहला पुरस्कार जीता था. आई आई टी में भी सिर्फ दो बार हिंदी पखवारे में कविता पथ करके प्रथम पुरस्कार प्राप्त किये. ब्लॉग बनाने अपने ब्लोगर मित्रों से बहुत दिशा निर्देश मिला तो कुछ कर पा रही हूँ. मेरे ब्लॉग लेखन को जनसत्ता, हिंदुस्तान, उदंती पत्रिका, और भी कई पत्रों में स्थान दिया गया लेकिन सच कहूं - मुझे खुद पता नहीं चल पता है कि क्या कहाँ ले लिया गया है ? . ये सब मुझे मेरे ब्लोगर बंधुओं से ही खबर मिल पाती है क्योंकि मैं ब्लॉग जगत में घूमने का समय काम निकाल पाती हूँ . ब्लॉग जगत में परिकल्पना, वटवृक्ष पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहती हूँ. अभी हाल में ही प्रकाशित " हिंदी ब्लोगिंग - अभिव्यक्ति की नई क्रांति" जो अविनाश वाचस्पत और रवींद्र प्रभात द्वारा सम्पादित पुस्तक में भी एक पृष्ठ मेरे नाम भी है. बस इतनी सी कहानी है.
जीवन के प्रति मेरा यही दृष्टिकोण रहा है, अपने लिए तो सब जीते हैं अगर अपने जीवन में कुछ पल की खुशियाँ उनको भी दे सकूं जो उदास मन लिए दो पल ख़ुशी को तरसते हैं. कुछ कर पाई औरों के लिए यही मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी है और उससे भी बड़ी ख़ुशी कि मेरे स्वभाव के अनुरुप मेरे पति और मेरी दोनों बेटियाँ हैं. यही ईश्वर का प्रतिफल मुझे आत्मिक ख़ुशी देता है. इसके साथ ही काउंसिलिंग मेरा शौक है. कोशिश करती हूँ कि इससे कुछ भटके हुए लोगों को सही दिशा दिखा सकूं. कई दरकते हुए दाम्पत्य जीवन जोड़ने में सफल रही, कुछ भटकते युवाओं को उस रास्ते से हटा कर सही ही दिशा दी. ये मेरे लिए सबसे बड़े इनाम हैं
--
रेखा श्रीवास्तव
09307043451

शनिवार, 2 जुलाई 2011

सपनों वाली वो लड़की यानि मैं रश्मि प्रभा



मेरी कलम ने परिचय का आदान -प्रदान किया तो भीड़ से एक आवाज़ आई जानी पहचानी - 'मुझे आपके बारे में भी जानना है ....' मेरे बारे में ? फिर कैनवस पर औरों को उकेरते हुए मैंने बार बार पलट कर खुद को देखा , कोई खासियत मिले तो कोई रंग दूँ .... जब भी देखा , उसकी आँखों में मुझे उड़ते बादल नज़र आए . कल रात मैंने कुछ बादल चुरा लिए , शायद उसके भीतर से परिचय का कोई सूत्र मिल जाए !
प्रसाद कुटी की सबसे छोटी बेटी ! हाँ अब तो वही है सबसे छोटी जबसे वह नहीं रहा - उसका छोटा भाई संजू . ६ भाई बहनों की दुनिया थी , संस्कारों की , उचित व्यवहार की सुबह होती थी . सुबह होते पापा के कमरे में सब इकट्ठे होते , कभी भजन , कभी कोई खेल , तथाकथित अच्छी सीख - 'कुछ भी करो तो सोचो , ऐसा सामनेवाला करेगा तो कैसा लगेगा !' सामनेवाले का ख्याल करते करते बीच से संजू चला गया , अच्छाई की बलिवेदी पर वह गुम हो गया . ओह ,मैं नाम तो बता दूँ खुद का - आपके बीच रश्मि प्रभा के नाम से जानी जानेवाली इस लड़की की शुद्ध पहचान इसके घर के नाम से है - 'मिन्नी' , वो भी 'काबुलीवाले की मिन्नी ' .रश्मि नाम कवि पन्त ने दिया और इस रश्मि नाम से इसने पढ़ाई की और अब लिखने लगी है . सच तो ये है कि जब रश्मि नाम से पुकारा जाता है तो वह भी इधर उधर देखती है , फिर याद करती है कि ये तो मैं हूँ ! है न अजीब सी बात ? जी हाँ अजीब बातों वाली यह लड़की अजीब सी ही है बचपन से .
छोटा सा घर पर्ण कुटी सा फूलों से भरा रहा . छोटा सा दायरा - बस पापा , अम्मा, तीन बड़ी बहनें , खुद से बड़े भईया और वह , संजू तो बचपन में ही चला गया . पढ़ाई , साहित्य और स्नेह का वातावरण रहा घर में , पराये की कोई परिभाषा ही नहीं दी गई . पडोसी सगा , दोस्त सगा .... मामा, चाचा,मौसी, भईया, दीदी संबोधन के साथ सब अपने थे . सीख तो निःसंदेह बड़ी अच्छी थी, सुनने , सुनाने में बहुत अच्छा लगता है - पर यह ख्याल तिल तिलकर मरने के लिए काफी था . पापा ने हमें 'अपनों' की विस्तृत परिभाषा दी , और उन सारे अपनों का अपना अपने संबंधों से रहा . पापा से प्रश्न उठाऊं , तर्क करूँ - उस वक़्त न इतनी हिम्मत थी , न सुलझे ढंग से बात रखना आता था . बहुत छोटी उम्र से यह मंथन चलता रहा और इसी मंथन ने मुझे खुद से बाहर निकलकर खुद को देखना सिखाया . ना सीखती तो सर सहलाकर खुद को राहत कैसे देती !
जन्म सीतामढ़ी (डुमरा ) . प्रारंभिक शिक्षा सीतामढ़ी(डुमरा) में हुई . पापा प्राचार्य थे , अम्मा के साथ कहानी, कविताओं से पहचान हुई .... 1970 में हम तेनुघाट आ गए , स्कूल की शिक्षा वहीँ पूरी हुई , फिर रांची महिला महाविद्यालय से स्नातक , हिस्ट्री ऑनर्स के साथ .
जीवन के उतार-चढ़ाव की बात करूँ तो बेतरतीब लकीरें खींचती चली जाएँगी .... बस इतना बताऊँ कि हर आड़ी तिरछी लकीरों के मध्य से निकल मैंने सोचा -
'मरण देख तुझको स्वयं आज भागे
उड़ा पाल माझी बढा नाव आगे ...'
और मेरी पतवार को सार्थक बनाया मेरे तीन बच्चों ने - (मृगांक, खुशबू, अपराजिता ). इतनी मजबूती से पतवार को थामा कि बिना पाल खोले भी हम आगे बढ़ गए . 2007 में खुशबू ने मेरे लिए ब्लॉग बनाया , जिसमें मदद मिली हिंदी ब्लौगिंग के जानेमाने चिट्ठाकार संजीव तिवारी से (http://aarambha.blogspot.com/) . हिंदी में कैसे शुरुआत हो, कैसे औरों से संपर्क हो यह उन्होंने ही बताया .
मैं तो कंप्यूटर देखते डर जाती थी, पर खुशबू ने मुझे सब सिखाया और धीरे धीरे मैंने पंख फैलाये . आकाश में कई सशक्त पंछी पहले से थे , अपनी उड़ान के साथ उन सारे पंछियों ने आनेवाले हर पंछियों का स्वागत किया . मैं सबकी शुक्रगुजार हूँ .
'कादम्बिनी' में तो बहुत पहले प्रकाशित हुई थी मेरी रचना - 'अकेलापन' ,(वर्ष तक याद नहीं ) उस समय उसके संपादक थे - श्री राजेंद्र अवस्थी जी .
'सिंह कभी समूह में नहीं चला
हँस पातों में उड़े
इन पंक्तियों का स्मृति बाहुल्य था
बहुत से ह्रदय मेरे संग नहीं जुड़े ...
जग को अपने से परे माना
मेरे जीवन की सम्पूर्णता आकाश में समा गई
जब इसे अपनी उपलब्धि मान
मैंने अपनाना चाहा
मेरे अकेलेपन को नींद आ गई '...........................
कलम मेरी शक्ति रही, भावनाएं मेरा आधार ... पर इससे परे भी मैंने बहुत कुछ किया . छोटे से स्कूल में पढ़ाया , टयूशन पढ़ाने गई, प्राइवेट बैंक में काम किया , हर्बल उबटन बनाया ..... लेकिन मेरा सुकून मेरा ब्लॉग बना .अपने होने का एहसास होता है , कोई मुझे पढ़ता है - इसकी ख़ुशी होती है . फिर मैं हिन्दयुग्म से जुडी ... 'ऑनलाइन कवि सम्मलेन ' 'गीतों भरी कहानी ' ने मुझे एक अलग पहचान दी . हिन्दयुग्म से ही मेरा काव्य-संग्रह 'शब्दों का रिश्ता' प्रकाशित हुआ और जनवरी 2010 के बुक फेयर में इमरोज़ के द्वारा उसका विमोचन हुआ और लोगों के बीच मेरी पहचान बढ़ने लगी. फिर रवीन्द्र प्रभात जी की परिकल्पना से मैं जुडी (2010 में ), वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री के सम्मान के साथ मैंने ऑनलाइन वटवृक्ष का संपादन शुरू किया रवीन्द्र प्रभात जी के साथ .फिर 30 अप्रैल 2011 को त्रैमासिक पत्रिका के रूप में इसे हमने लोगों के मध्य रखा . मेरे संपादन में 'अनमोल संचयन ' , ' परिक्रमा ' का प्रकाशन हुआ , ' अनुगूँज ' प्रकाशनाधीन है.
ये सारे कार्यकलाप खुद में रहने का उपक्रम है, अन्यथा -' दुनिया चिड़िया का बसेरा है , ना तेरा है ना मेरा है ....'