रविवार, 3 जुलाई 2011

वाकई हम कायल हैं - (रेखा श्रीवास्तव )

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कोई हंसेगा नहीं .... आपस की बात है, जब मेरे पास पहली बार रेखा श्रीवास्तव जी के ब्लॉग का लिंक आया और मैं वहाँ गई तो सच कहती हूँ - मेरे तो हाथ पाँव फूल गए ... हर आर्टिकल किसी शोध से कम नहीं लगता था और अज्ञानी की तरह टुकुर टुकुर देखती, पढ़ती ... समस्या तो तब आती जब अंत में टिप्पणी देने की बारी आती ! ' संसद के कारनामे', 'मी लॉर्ड हम भूखे मर जायेंगे' ... ऐसे आलेख इनके समक्ष मुझे नतमस्तक कर देता और नतमस्तक मैं बाँए-दांये देखती अपने घर लौट आती - कई बार बिना टिप्पणी दिए और बाई गौड मुझे लगता रेखा जी ने मुझे पकड़ लिया है . ये समस्या थी , मेरा सरोकार , मेरी सोच ... में , hindigen में मुझे अपनी खुराक मिली , मन ही मन धन्यवाद दिया - चलो कुछ तो मेरे लिए परोसा .
परिकल्पना ब्लोगोत्सव के आयोजन में अचानक रेखा जी मुझे मिलीं ... फिर अन्दर में नन्हा मन डरा पर ऊपर से बोला - नमस्ते नमस्ते ... बोलिए , यदि मैं अपनी इस स्थिति का खुलासा ना करती तो क्या आप समझ पाते !
अभी हाल में बचपन के संस्मरण की मांग ने , और उस संस्मरण पर उनकी टिप्पणी ने कहा - 'घबराने जैसी कोई बात नहीं , ये तो बहुत अच्छी हैं ' . पर विद्वता ... वाकई हम कायल हैं .
अब आगे की यात्रा उनके शब्दों में -


अपने बारे में कुछ विशेष कहने को नहीं है फिर भी बहुत कुछ है कि शब्दों की सीमा में बांधना मुश्किल हो रहा है. मैंने एक छोटे से कस्बे बुंदेलखंड के उरई नामक जगह पर जन्म लिया. मध्यम वर्गीय कृषि और गाँव से जुड़ा मेरा परिवार. लेकिन पापा मेरे शहर में ही पढ़े रहे सो हम भी वही के हो लिए. मेरे पापा वाकई विद्वान् थे उस समय उन्हें पांच भाषाओं पर पूरा अधिकार था. वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और फारसी भाषा जानते थे. पढ़ने के बेहद शौक़ीन और यही रोग हम भाई बहनों में भी लग गया. मूल्यों औ सिद्धांतों का पालन भी हमें विरासत में मिला और उसे समय के साथ भी मैं छोड़ नहीं पाई वैसे बहुत कष्ट पाया और वो हासिल न कर सकी जिसकी मैं हक़दार थी लेकिन समझौता मुझे कभी मंजूर नहीं था. मेरे आदर्श और मूल्य ही मेरी सबसे बड़ी दौलत हैं.
मेरे पापा भी कविता लिखते थे, (लेकिन ये बात मुझे पता नहीं थी) मैंने बचपन से लिखना शुरू कर दिया था पहली कहानी १० वर्ष कि आयु में "दैनिक जागरण " के बाल जगत में प्रकाशित हुई थी. चार बहनों में सबसे बड़ी थी और भाई साहब मुझसे बड़े. मैं सबसे अलग थी सिर्फ घर में नहीं बाहर भी लोगों कि प्रिय थी. शादी से पहले डबल एम ए कर चुकी . सामाजिक समस्याओं से मेरा सरोकार हमेशा से ही रहा और लेखनी उस पर ही चलती रही. अधिकतर यथार्थ पर चली और वही आज भी मेरा ब्लॉग यथार्थ उसका साक्षी है. १९७२ में लेखन ने अपने पर व्योम में फैलाने शुरू किये और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशन शुरू हो गया. १९७५ में मेरी पहली कविता कादम्बिनी में पहली बार प्रकाशित हुई. फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. लेख अधिक लिखे साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, मनोरमा, सारिका, सरिता और नवनीत सभी में प्रकाशन हुआ. अपने कस्बे में ही नहीं बल्कि बाहर भी पहचान बन चुकी थी.
१९८० में शादी के बाद कानपुर आह गयी लेकिन मेरे लेखन के कद्रदान सिर्फ मेरे पतिदेव ही थे. छोटी बहू के दायित्वों तले मेरा लेखन दम तोड़ने लगा . ३१ साल पहले आम घरों की तरह मेरा भी घर था. काम और काम के ही सब चाहने वाले थे. हर घर की तरह भी मुझे भी अपने को सिद्ध करना पड़ा. बी एड और एम एड शादी के बाद किया. जो एक अग्नि परीक्षा थी. लेकिन हारी नहीं क्योंकि साथ देने वाले का पूर्ण सहयोग रहा. मेरे नोट्स तक बनवाये. आम घरों की तरह से कटाक्ष, असहयोग और छोटे होने की पीड़ा मैंने भी झेली और उसको डायरियो में कैद करती गयी तभी इतना सब झेल सकी. लिखने पर विराम सा लग गया . मेरी दो बेटियाँ हैं और दोनों ही मेडिकल क्षेत्र से जुड़ी हैं.
१९८६ में आई आई टी में नौकरी लगी एक साल बाद मशीन अनुवाद से जुड़ी. कंप्यूटर तब इतने कॉमन नहीं थे. धीरे धीरे मिले और उसकी ए बी सी डी वहीँ गुरुजनों से सीखी. और फिर 'करत करत अभ्यास ते....' पारंगत हो गयी. शौकिया तौर पर कानपुर विश्वविद्यालय से डिप्लोमा कोर्स किया जिसका सर्टिफिकेट आज भी वहीँ पड़ा है.
जब नेट का प्रयोग करने को मिला तो ब्लॉग के बारे में जाना और बना ही डाला फिर खो गया और मैं भी भूल गयी. फिर कभी यूँ ही चलते चलते फिर मुलाकात हो गयी तो फिर मैं ऑफिस में एक डायरी रखती थी जिसमें कविता, कहानी, लेख लिखती रहती थी. बीच के वर्षों में लेखनी सोयी नहीं - संयुक्त परिवार और नौकरी के बीच जूझती रही लेकिन संवेदनशील मन तूफान रहित तो नहीं था - आक्रोश, विवशता और अन्याय के खिलाफ जुबां नहीं खुल पाई तो क्या कलम पर पहरे कोई नहीं लगा पाया और जो लिखा जाता रहा संगृहीत होता रहा.
ब्लॉग बना कर सब कुछ उस पर डाल दिया. अब तो निर्बाध कलम चलती है क्योंकि बेबाक बोलने, लिखने और कहने से डरती नहीं हूँ. मेरी पहचान बचपन से लेकर आज तक जहाँ भी रहीं अलग बनी रही. आज भी है. मेरे लेखन ने मुझे एक नई पहचान स्कूल के समय में जब देश में खाद्य समस्या में चुनौती बनी थी तब इंटर कॉलेज में आठवें कक्षा की लड़की ने कलम चला कर अपना नाम सब स्कूलों के बीच दर्ज करवा कर पहला पुरस्कार जीता था. आई आई टी में भी सिर्फ दो बार हिंदी पखवारे में कविता पथ करके प्रथम पुरस्कार प्राप्त किये. ब्लॉग बनाने अपने ब्लोगर मित्रों से बहुत दिशा निर्देश मिला तो कुछ कर पा रही हूँ. मेरे ब्लॉग लेखन को जनसत्ता, हिंदुस्तान, उदंती पत्रिका, और भी कई पत्रों में स्थान दिया गया लेकिन सच कहूं - मुझे खुद पता नहीं चल पता है कि क्या कहाँ ले लिया गया है ? . ये सब मुझे मेरे ब्लोगर बंधुओं से ही खबर मिल पाती है क्योंकि मैं ब्लॉग जगत में घूमने का समय काम निकाल पाती हूँ . ब्लॉग जगत में परिकल्पना, वटवृक्ष पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहती हूँ. अभी हाल में ही प्रकाशित " हिंदी ब्लोगिंग - अभिव्यक्ति की नई क्रांति" जो अविनाश वाचस्पत और रवींद्र प्रभात द्वारा सम्पादित पुस्तक में भी एक पृष्ठ मेरे नाम भी है. बस इतनी सी कहानी है.
जीवन के प्रति मेरा यही दृष्टिकोण रहा है, अपने लिए तो सब जीते हैं अगर अपने जीवन में कुछ पल की खुशियाँ उनको भी दे सकूं जो उदास मन लिए दो पल ख़ुशी को तरसते हैं. कुछ कर पाई औरों के लिए यही मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी है और उससे भी बड़ी ख़ुशी कि मेरे स्वभाव के अनुरुप मेरे पति और मेरी दोनों बेटियाँ हैं. यही ईश्वर का प्रतिफल मुझे आत्मिक ख़ुशी देता है. इसके साथ ही काउंसिलिंग मेरा शौक है. कोशिश करती हूँ कि इससे कुछ भटके हुए लोगों को सही दिशा दिखा सकूं. कई दरकते हुए दाम्पत्य जीवन जोड़ने में सफल रही, कुछ भटकते युवाओं को उस रास्ते से हटा कर सही ही दिशा दी. ये मेरे लिए सबसे बड़े इनाम हैं
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रेखा श्रीवास्तव
09307043451

14 टिप्‍पणियां:

  1. bhut hi acche se aapne hamra parichaye kaaya rekha ji se karaya... hamne aaj hi inke blog ko pada hi bht sarthak post hai...

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  2. रेखा जी का परिचय पाना एक सुखद अनुभव रहा ।
    आभार ।

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  3. रेखा जी से उस दिन हिन्दी भवन मे मिलना हुआ सच सोचा नही था उससे बढ्कर अपना पन उनसे मिला है मै भी बहुत डरा करती थी उनके गंभीर आलेख देखकर मगर कमेंट भी दर्ज करा देती थी…………मगर उस दिन मिलकर सारा डर काफ़ूर हो गया और यूं लगा कि हम पहले क्यो नही मिले……………और आज उनके जीवन के पहलुओ से अवगत कराकर आपने उनका पूर्ण परिचय दे दिया………आभार्।

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  4. रेखा जी के लेख वाकई शोधपूर्ण होते हैं.आभार उनसे विस्तृत परिचय कराने का.

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  5. रेखा जी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही बेमिसाल है ...कुछ -कुछ मेरी स्थिति भी आप जेसी ही है ..उनके ब्लॉग पर जाना और लम्बे आर्टिकल पढना ,किसी परीक्षा से कम नही है ..
    आज उनका समर्पण ब्लॉग जगत के प्रति विश्वशनीय हैं ...आपकी कलम से उनका व्यक्तित्व -दर्शन कर के मानो निहाल हो गई हूँ ...

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  6. रेखा जी से परिचय तो ब्लॉग के माध्यम से ही हुआ ..और हिंदी भवन पर मिलना .. इनकी यथार्थ के धरातल पर सोच हमेशा आकर्षित करती रही है ...

    सबसे मज्र्दार बात आपकी यह लगी की आप रेखा जी के लेख पढ़ डरतीं रही हैं :):)..कभी कभी मेरे साथ भी ऐसा हुआ है ..लगता है की इतने गंभीर लेख पर क्या लिखूं ...
    उनका परिचय आपके माध्यम से बढ़िया लगा ... आभार

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  7. रेखा जी को यूँ जानना भी अच्छा लगा !

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  8. क्या बात है? मेरे क्या भूत जैसी दिखती हूँ जो सब लोग डरते हुए दिखाई दिए. चलो रश्मि जी ने परिचय पर दिया तो मुझ पर विश्वास कीजिये मैं आप जैसी ही हूँ.

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  9. आप कभी-कभी कितनी सच्‍ची बात कह देती हैं वह भी इतने सहज शब्‍दों में रेखा जी के बारे में भी कितने अच्‍छे से उनके साहित्‍य की विशेषताएं बताते हुये उनका विस्‍तृत परिचय दिया बहुत ही अच्‍छा लगा ... आभार के साथ बधाई ।

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  10. कोई हंसेगा नहीं .... आपस की बात है, चलिये इसी बात पर मुस्‍करा लीजिए :) पहली पंक्ति में तो हम आपके ही कायल हो गये ... बाकी की पंक्तियों में रेखा जी के परिचय ने सच में नतमस्‍तक कर दिया ... बहुत ही अच्‍छा लगा उनके बारे में जानकर और आपकी कलम की सहजता देख ...शुभकामनाएं ।

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  11. rekha didi...aapse milne ke bad aapko padhna or bhi accha laga

    aabhar rashmi di.....jo aap sabka parichay yahan ham sab se karwa rahi hai

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  12. arre wah...rekha di bhi............hamne to dekha hi nahi....!!
    chahe jo bhi vidwata ho...
    hai to ek achchhi pyari si di...:)
    ham to uss baat ke liye kayal hain!!

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  13. आपके बारे में जानकार मुझे बहुत ज्यादा खुशी मिली | आप उरई से हैं , मैं भी पाँच साल की उम्र से औरैया में रहा हूँ , शायद ज्यादा दूरी नहीं है दोनों जगहों में | :)
    आप विवाह के बाद कानपुर आयीं मैं मूल रूप से कानपुर का ही रहने वाला हूँ |
    और अंत में हंसियेगा नहीं , आप काउंसलिंग करती हैं , मुझे लगता है कि मुझे इसकी बहुत जरूरत है (आप यकीन मानिए सिर्फ मुझे ही नहीं इंजीनियरिंग के तीन चौथाई पीड़ितों को काउंसलिंग की जरूरत है , आप तो आई.आई.टी. में काम कर चुकी हैं शायद मेरा दर्द समझ सकती होंगीं | )
    :)

    सादर

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