शनिवार, 26 जनवरी 2013

अचानक एक सागर मिला -सौरभ रॉय



मैं शब्द हूँ, स्याही हूँ, कलम हूँ, पन्ना हूँ ...... या भावनाओं की यायावर 
अपनी पहचान से अलग मैं बस इतना जानती हूँ - कि 
बंजारों की तरह मैं चलती हूँ 
जहाँ मिलते हैं अद्भुत एहसास 
कुछ दिन वहीँ खेमा लगा लेती हूँ ............ ताकि उस जमीन की मिटटी आपके लिए उठा सकूँ . 
                 मिटटी की कोई उम्र नहीं होती, वह नम है तो उसकी उर्वरक क्षमता आपको विस्मित कर देगी . ऐसे ही विस्मित भाव जगे जब एक मेल मुझे मिला -

नमस्कार,

मेरा नाम सौरभ राय 'भगीरथ' है और मैं हिंदी में कवितायेँ लिखता हूँ । मेरी उम्र 24 वर्ष वर्ष है एवं मेरी कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमे से यायावर गतः शनिवार (15 दिसम्बर, 2012) को बैंगलोर में रिलीज़ हुआ । मेरी कवितायेँ हिंदी की कई किताबों में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अलावा हंस मेरी कविताओं को अपने अगले संकलन में प्रकाशित कर रहा है । इसके अलावा हिन्दू, डीएनए, वीक सहित कई अंग्रेजी के पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेखन के बारे में छप चुका है ।

अपनी कुछ कवितायेँ आपके उत्कृष्ट पत्रिका 'वटवृक्ष' में छापने हेतु भेज रहा हूँ । आशा है आपको पसंद आएँगी । इनके प्रकाशित होने पर इनका एक संकलित लिंक मुझे भेज दीजियेगा ताकि मैं अपने वेबसाइट http://souravroy.com से पाठकों को आपके साईट में भेज सकूं ।

एक एक शब्द विश्वास से लबरेज .... मैं पढ़ती गई और लगा 24 वर्ष का अनुभव गौरवान्वित कर रहा है इस देश को - भगीरथ का प्रयास और गंगा, सौरभ रॉय 'भगीरथ' के शब्द शिव जटा से कम नहीं लगे . भावनाओं के आवेग को शब्दों का खूबसूरत कैनवस देकर इस युवा कवि ने कलम की जय का शंखनाद किया है . 

सौरभ रॉय की अपनी वेबसाइट है - जहाँ पहुंचकर आपको उस गुफा में हीरे जवाहरातों से कीमती एहसासों के उजाले मिलेंगे .मेरी यात्रा,मेरा पडाव कविता,कहानियाँ होती हैं तो आइये इस गुफा के कुछ कोने तक मैं ले चलूँ -

एक और दिन

प्रदुषण से लड़ते लड़ते
एक और पत्ती
सूख गयी है
पक्ष विपक्ष ने
एक दुसरे को गालियाँ देने का
मुद्दा ढूंढ लिया है
डस्टबिन कूड़े से
थोड़ा और भर गया है
किसान का बैल
भूखे पेट
हल जोतने से अकड़ गया है |

पत्रकारों ने जनता को
डरना शुरू कर दिया है
मज़दूर कारखानों में पिस रहें हैं
उनकी सांसें निकल रही चिमनियों से
किसानों के घुटनों के घाव
फिर से रिस रहें हैं
हीरो हिरोइन का रोमांस पढ़
युवा रोमांचित है
लड़की का जन्म अनवांछित है |

धर्मगत जातिगत नरसंहार
डेंगू मलेरिया कालाज़ार
हत्या ख़ुदख़ुशी बलात्कार
हाजत में पुलिस की मार
ज़हरीले शराब की डकार से
थोड़े और लोग मर रहें हैं
कुछ मुष्टंडे
लो वेस्ट निक्कर पहन
रक्तदान करने से दर रहे हैं |

एक और सूरज डूब रहा है
अपने घोटालों की फेहरिस्त देख
मंत्री स्वयं ही ऊब रहा है
अमीर क्रिकटरों के नखरे
और नंग धडंग लड़कियों का नाच देख
पब्लिक ताली पीट रहा है
मुबारक हो ! मुबारक हो !
भारतवर्ष में एक और दिन
सकुशल बीत रहा है ||
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दो बहनें

‘विरक्ति’ और ‘अशांति’
दो बहनें हैं |
दो चंचल बहनें
जो पता नहीं कितनों से ‘ब्याही’ हैं
कितनो से ‘बंधी’ हैं |
स्वांगमय-गरिमामय रूप उनका |
मैं एक से ब्याहा हूँ
दूसरी से बंधा हुआ !
दोनों को छोड़ दूं
तो क्या सुखी हो जाऊंगा
या और सुनसान ?
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करवटों के जोकर

भारत का संविधान जानते हो
कई लोगों को पहचानते हो
समझते हो देश की तकलीफें
आते हो
आकर चले जाते हो |
इस नितम्बाकार अजायबघर में क्यों बैठे हो ?
बाहर आकर देखो
दुनिया सदियों से दु-निया है |
प्रसंगों में जी रहे हो
दीमक की तरह
मेरी माँ के शरीर पर
अपेंडिक्स की तरह क्यों लटके हो ?
जब तुम्हारी ज़रुरत
आदमी को कम
बंदरों को ज़्यादा है |

आँखों में बुखार की जलन नहीं
नस में रक्त स्राव की टूटन नहीं
जर्जर आत्मबल लिए
तुम्हारी देह
खड़ी है कपड़े उतारकर, और
पृथिवी के संग बस
घूम रही है
और तुम अपने होने भर के
एहसास में उत्सव मना रहे हो
करते रहो लीचड़ बहाने
अस्पताल में क्रांति के
क्या माने ?
बनाकर गूखोर सूअरों का गिरोह
घूमते रहो सड़कों पर
एक आसान शिकार की तरह |
बैठो नुक्कडों पर
बातें करो
पैसे-चाय-क्रान्ति की
घुट्टी पियो सीमेंट घोलकर
तुम्हारी बारिश भी
तुम्हारे फसल को देख कर बरसती है
तुम्हारी माँ तुम्हारी आत्मा को तरसती है
जब तुम ट्रैफिक जाम में फंसे
हार्न पर माथा पीटते हो
एक और अभिमन्यु
एक और व्यूह में पिट जाता है
चलो आज बता ही दूं
तुम्हारा विद्वतापूर्ण संवाद
एक विशिष्ट बकवास में सिमट जाता है |

पीछे हटो
ओ असाध्य रोग के ग्रास !
ओ सुलभ मृत्यु के दास !
तुम्हारे झुके कन्धों से
आज मेरी माँ शर्म से झुकी है
करते रहो प्रयोग अपनी भाषा सुधारने की
और अपनी यातना को कला का नाम देकर
बने रहो करवटों के जोकर
कभी काल कुछ करते भी हो
तो उसे क्या बुलाओगे ?
मनुष्यता ?
या परिणति ?
अंत से पहले ही
ख़त्म हो गए?
जानने से पहले ही
जान लिया?

स्तन मदिरा प्रार्थना ज़हर
कहो तुम्हारा मुंह कहाँ खुलेगा?
अपने कटे हाथों को
माचिस की डिब्बी में डाल
चलते रहो घुटनों के बल
घुटनों के बिना
शिकस्त आदमी अधमरे अस्तित्व
हर चीज़ ऊंचे पर है
उल्लू चिमगादड़ से भी ऊंचे
और उछालना तुम्हारी औकात से बहार

तुम्हारे वस्त्रों के पार दिखते हैं
तुम्हारे अंग
जिनसे आती है
जले मांस की गंध
बार बार टकराते हो खुदसे
जानते हो ऐसा ही है
तुम्हारे पास मुस्कुराने की
एक ठोस वजह नहीं है !
सर उठाओ
अब तो जी कर दिखाओ
वरना फिंक जाओगे
अकेलेपन की तरह
तुम्हारा खून कितना ही लाल हो
कैनवास पर खून नहीं बना सकते
काले पड़ जाओगे
उसी तरह आते रहेंगे
उन्हीं उन्हीं नामों के
वही वही दिन
कुकुरमुत्तों की तरह तुम
बिस्तर पर सड़ जाओगे |
तलवार से परछाईयाँ नहीं काट सकते
मैं क्यों चीख रहा हूँ
तुम्हारे वास्ते ?
क्यों बांस बन
तुम्हारी चिता उलट रहा हूँ ?
तुम्हारे वास्ते |
पर जान लो ये बात
जो करता हूँ
ईमान से
प्यार करुँ या सैर
इन पंक्तियों में भी मैंने
थाम रक्खा था हाथ तुम्हारा
लिख रहे थे पैर !!
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विक्रम बेताल

मेरा आत्मा रोज़
ज़बरजस्ती मर कर
लटक जाती है
पेड़ पर
वहां प्रलाप करती है
चीखती है
क्रांति क्रांति !
और लिपटी रहती है
अपनी शाखा से |

मेरे तले अँधेरा है
घनघोर !

मेरा शरीर
मुझे ढूंढता हुआ
रोज़ आता है
मुझे ढोता है कंधे पर
और ऊल फिजूल
प्रश्नों में फंस
फोड़ डालता है
अपना ही सिर |

मेरे सिरे रोशनी है
प्रचंड !