गुरुवार, 30 जून 2011

बरगद सी विशालता (अशोक आंद्रे )



अशोक आंद्रे ... कथासृजन ब्लॉग http://wwwkathasrijan.blogspot.com/ पर जिस दिन मैं गई , मैंने पढ़ा -
आँख बन्द होते ही
एहसासों की पगडण्डी पर
शब्दों का हुजूम
थाह लेता हुआ बन्द कोठरी के
सीलन भरे वातावरण में
अर्थ को छूने के प्रयास में
विश्वास की परतों को
तह - दर -तह लगाता है
जहाँ उन परतों को छूने में , हर बार
पोर - पोर दुखने लगता है ।
और लगा किसी ने अपने पोर पोर में उठे दर्द में जाने कितनी पगडंडियाँ समेट लीं . एक आशीर्वचन सा लगा उनका व्यक्तित्व और मैंने उनको फ़ोन किया , उम्र के अनुभव सबकी आवाज़ में नहीं होते . मुझे उनकी आवाज़ में बरगद सी विशालता मिली . कम शब्दों में कोई बहुत कुछ कह जाए , समझिये - उसने ज़िन्दगी को बहुत करीब से जाना है , और वो भी दूसरों की शर्तों पर !
मुझे उनकी हर रचनाएँ बोलती मिलीं .... तो मेरा फ़र्ज़ बनता है न कि मैं आपको भी वहाँ ले चलूँ और अशोक जी से उनका परिचय पाऊं .

बचपन में माँ का चले जाना उस जगह जहां से कभी कोई लौट के नहीं आ सका. उम्मीदों
के सारे रास्ते बंद हो चुके थे . घर में सबसे बड़ा था इसलिए सबकुछ महसूस कर रहा था और
अन्दर तक दहल गया था.किसको अपनी व्यथा बताता ,कुछ समझ नहीं आता था .
उसी दौरान हमारे घर के पास लायब्रेरी का उद्घाटन हुआ था . उस तरफ आकर्षित होकर किताबों की दुनिया में खो गया था. लगा शब्दों में बहुत ताकत है जो हमें व्यवस्थित करने में तथा अपने उदगारों को लोगों तक पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है.
उसी दौरान वार एंड पीस , टेल आफ टू सीटीज तथा GreatExpectation जैसे उपन्यासों से गुजरना
हुआ.जिसने मेरी जिन्दगी के मूल्यों को बदल डाला.
पहली बार एक कविता "द फ्लावर " लिखी थी जिसे मेरे इंग्लिश के टीचर ने बिना बताए उसे एक
मैगजीन में छपने के लिए भेज दी और वह छप भीगयी. मैं उसकी महत्ता से अनजान संभाल
कर रख न पाया .
धीरे-धीरे मैं लेखन से जुड़ता चला गया. शुरुआत आकाशवाणी से हुई थी .स्वर्गीय श्री राम नरेश
पाण्डेय जी, स्वर्गीय श्री सत्येश पाठक जी तथा श्री सोम ठाकुर जी जैसे विद्वानों के आशीर्वाद
सेहो अपनी साहित्यिक यात्रा को नये आयाम देता चला गया.
लेकिन पहली बार स्वर्गीय श्री दुर्गा प्रसाद नौटियाल जी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में मेरी बाल
कविता छापकर मेरा हौसला बढ़ायाऔर श्री विजय किशोर मानव जी ने भी दैनिक हिन्दुस्तान में मेरी कई रचनाओं को विशेष स्थान देकर प्रोत्साहित किया.
उसी दौरान कई कहानियाँ भी लिखीं जिनसे अपने समय को तथा जीवन की तरल सच्चाइयों
को करीब से जानने का मौका मिला .
आज लगता है कि मैं अगर साहित्य की दुनियां में नहीं आता तो शायद मौत से असली
साक्षात्कार हो गया होता तथा किसी गुमनाम बस्ती में रहकर जीवन की माला के अंतिम मानकों
पर चलता हुआ आखिरी यात्रा की तरफ चला गया होता.
(अशोक आंद्रे )
जीवन परिचय -
जन्म -०३मार्च १९५१,कानपुर (उ प)
प्रकाशित कृतियाँ -फुनगियों पर लटका एहसास
खिलाफ अँधेरे के
नटखट दीपू
चूहे का संकट
कथा दर्पण (संपादित )
सतरंगे गीत ( ")
सम्मान - राष्ट्रीय हिंदी सहस्त्राब्दी सेवी सम्मान 2001
हिंदी सेवी सम्मान 2005 ( जैमिनी अकादमी (हरियाणा )
आचार्य प्रफुल चन्द्र राय स्मारक सम्मान २०१० (कोलकता)
ट्वंटी टेन राष्ट्रिय अकेडमी एवार्ड (हिंदी साहित्य ) २०१० (कोलकत्ता )

बुधवार, 29 जून 2011

सत्य, शालीनता , विस्तृत दृष्टिकोण (राजेश उत्साही )

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राजेश उत्साही , एक सहज व्यक्तित्व के मालिक . सत्य, शालीनता , विस्तृत दृष्टिकोण - इनकी रचनाओं, इनकी बातों में स्वतः दिख जाती है. इनकी 'गुल्लक' जिसे वाकई इन्होंने बहुत कुछ गंवाकर हासिल किया , उसमें यादों वादों और संवादों को इन्होंने संग्रहित किया है.
मैंने इन्हें जाना जब ये मेरे ब्लॉग पर आए और बड़ी सहजता, शालीनता से इन्होंने मेरी मात्र अशुद्धि को इन्गित किया .... सच मानिये , मुझे बड़ी ख़ुशी हुई . लिखने में, जल्दबाजी में, और कई बार अज्ञानता में गलतियां होती हैं . इसे इन्गित करना सबके लिए आसान नहीं होता, वही करता है , जो आपके प्राप्य से उस कमी को दूर करना चाहता है , वही सही वक्ता , श्रोता और पाठक होता है . वरना पीठ पीछे निंदा .... व्यक्ति के बीमार मन का द्योतक है.
राजेश जी के साथ बातें करते हुए घरेलु से भाव पनपे ... जो आजकल सर्वथा दुर्लभ है , क्योंकि घर सा कोई दिखना नहीं चाहता ! हो या न हो - हर कोई पेज-3 के गेटअप में खड़ा रहता है. सहजता को तो आदमी खुद ही दीमक बन चट कर गया है . और मैंने राजेश जी को बहुत सहज पाया .... इन्होंने अपनी लेखनी में जिस तरह अपनी पत्नी 'नीमा' को उतारा है, http://gullakapni.blogspot.com/2010/07/blog-post.html वह राजेश जी के सूक्ष्म दृष्टिकोण की गहनता का कैनवस है , जिस पर उभरे हर रंग नीमा जी के हैं !
अपनी माँ श्रीमती सरस्वती प्रसाद जी की पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगी राजेश जी की छवि को उभारने के लिए - 'जीवन की राह को सहयात्री बन काट लेंगे, दर्द को हम बाँट लेंगे ....' जी हाँ , जीवन के उतार-चढ़ाव में सहयात्री का ज़िक्र करना लोग भूल जाते हैं या भूल जाने में शान समझते हैं , पर राजेश जी ने पलों को नीमामय कर दिया है . मैंने जब उनके बेटे को अपना आशीर्वाद दिया तो राजेश जी ने उसके हाथों मुझे मेल करवाया , संस्कारयुक्त सहजता उनमें ही नहीं , उनके बेटे में भी मुझे मिली .

अब हम राजेश जी के शब्दों से राजेश जी को जानेंगे , तो ये हैं राजेश उत्साही =

1958 के 13 नवम्बर की एक सर्द रात में भोपाल के पास मिसरोद रेल्वे- स्टेशन के घुड़सालनुमा रेल्वे क्वार्टर में एक बच्चे का जन्म हुआ। नाम दिया गया मुन्ना। पिता रेल्वे में स्टेशन मास्टर थे। पिता का स्वभाव कुछ ऐसा था कि वे अन्याय और गलत बात बिलकुल सहन नहीं करते थे यानी उनकी अपने अफसरों से नहीं बनती थी। नतीजा यह कि हर दूसरे साल उनका तबादला हो जाता।
मुन्ना चार साल का था पिता का तबादला बीना हो गया। रेल्वे स्टाफ का एक छोटा सा विद्यालय था। मुन्ना को उसमें भेजा गया। पहले ही दिन कुछ ऐसा हुआ कि मुन्ना के पिता और शिक्षक में झड़प हो गई। नतीजा मुन्ना घर वापस। हां मुन्ना को इस घटना से इतनी उपलब्धि तो हो ही गई कि उसका नामकरण हो गया-राजेश यानी राजेश पटेल।
*
राजेश छह साल का हुआ तो इटारसी के पास पवारखेड़ा में था। स्कल जाने की बारी आई तो
जैसे तैसे धक्का देकर राजेश को गांव की पाठशाला में ले जाया गया। मास्साब ने पूछा,’ तुम्हारे पिताजी पढ़ लिखकर स्टेशन मास्टर बन गए,तुम क्या भैंस चराओगे।‘ राजेश ने सोचा,शायद हां कहने से स्कूल से छुटकारा मिल जाएगा। तो बोल दिया, ‘हां।‘ पर ऐसा कभी हुआ है क्या जो उस दिन होता। फिर होशंगाबाद, इकडोरी, सबलगढ़ और इटारसी के विभिन्न विद्यालयों में पढ़ते हुए जैसे तैसे 1975 में ग्यारहवीं पास किया थर्ड डिवीजन में।
*
इस बीच राजेश के अंदर कहीं एक भावना जन्म लेने लगी थी। शायद यह चंबल के पानी का असर था। राजेश ने तय किया कि या तो कुख्यात होना या फिर प्रख्यात । सबसे पहले एक नया नाम सोचा वह था उत्सा ही । इस तरह अब नाम हो गया राजेश कुमार पटेल उत्साही। (बाद में इसमें से कुमार और पटेल को विदा कर दिया।) फिर धीरे धीरे कुछ लिखना पढ़ना शुरू किया। आठवीं तक आते आते सौ-डेढ़ सौ उपन्यास पढ़ डाले थे। पत्रिकाएं,अखबार पढ़ना भी शगल था।
*
ग्यारहवीं पास करके खंडवा के नीलकंठेश्व‍र महाविद्यालय में बीएससी में प्रवेश लिया। और प्रथमवर्ष ही कुछ इतना पसंद आया कि उसी में दो साल गुजारे। लेकिन महाविद्यालय को राजेश जी पसंद नहीं आए सो उसने उनसे क्षमा मांग ली। बीएससी का दूसरा साल होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय के प्रांगण में गुजरा। लेकिन फिर तीसरा साल कुछ ऐसा भाया कि उसी में दो साल गुजर गए। नर्मदा महाविद्यालय ने इसे अपना अपमान समझा और बिना पास किए ही राजेश जी को महाविद्यालय से बाहर कर दिया।

इस बीच राजेश जी पत्र संपादक से लेकर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में बकायदा लिक्खाड़ के रूप में स्थापित हो चुके थे। होशंगाबाद में उन्हें लोग इसी तरह जानते थे। दस बाइ दस के कमरे में रात के दो दो बजे तक चलने वाली काव्य गोष्ठियों में वे सादर आमंत्रित किए जाते थे। जहां लोग बस एक दूसरे की रचनाओं को वाह वाह कहकर सराहने के अलावा कुछ और कहना ही नहीं चाहते थे।
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लेकिन राजेश को स्नातक की डिग्री का इस तरह ठुकराया जाना कुछ जमा नहीं। पहले तो उसने सोचा कि इहलीला समाप्त ही कर ली जाए। तरीके भी थे। घर के सामने पल पल गुजरती रेल। या‍ फिर नर्मदा की अतल गहराई। लेकिन इसके लिए भी हिम्मत चाहिए। वह नहीं जुटा पाया। लेकिन हिम्मत तो जिंदा रहने के लिए भी चाहिए।
*
खंडवा कॉलेज के एक परिचित शिक्षक श्याम बोहरे होशंगाबाद में नेहरू युवक केन्द्र के समन्वयक बनकर आए थे। राजेश उन्हें श्याम भाई कहता था। वह उनसे मिला। राजेश का आत्मवविश्वास टूट चुका था। उसे वह अपने अंदर पैदा करना था। राजेश ने उनसे कहा उसे काम चाहिए। पैसा मिले या न मिले। लेकिन वह कुछ कर सकता है, यह आत्म विश्वास अपने में पैदा करना चाहता है। नेहरू युवक केन्द्र में एक ही पद खाली था चौकीदार कम फर्रास(सफाईवाला) का। राजेश ने वह पद स्वीकार कर लिया। इस पद की जो जिम्मेफदारियां थीं, वे उसने पूरी कीं। लेकिन श्याम भाई उससे कुछ और भी करवाना चाहते थे। पहले ही दिन से उसे दिशा नामक एक सायक्लोशस्टामयल पत्रिका की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी। यह पत्रिका ग्रामीण युवाओं के लिए थी। राजेश को जैसे अपने मन माफिक काम मिल गया। राजेश ने तीन साल नेहरू युवक केन्द्रर में काम किया। इस बीच उसने टायपिस्ट, लिपि‍क और लेखापाल का न केवल काम सीखा बल्कि इन पदों पर वहां काम भी किया। साथ ही साथ स्वासध्याहयी छात्र के रूप में बीए की परीक्षा भी पास की। बाद में समाजशास्त्र में एमए भी किया। आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जैसे लौट आया था।
*
उन दिनों मप्र के होशंगाबाद जिले में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण प्रयोग हो रहा था। इसे आज होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के नाम से याद किया जाता है। इसे किशोरभारती नामक संस्था ने शुरू किया था, जिसके प्रमुख कर्ताधर्ता थे डा.अनिल सद्गोपाल । नेहरू युवक केन्द्रा में ही इस कार्यक्रम को आगे ले जाने के लिए रणनीति बन रही थी। वहीं योजना बनी एकलव्यल संस्था के गठन की। श्याम भाई ने बहुत सहज तरीके से पूछा एक संस्था बन रही है, काम करोगे। हां कहने में राजेश ने एक पल की भी देर नहीं की। इधर 1982 की 30 जून को नेहरू युवक केन्द्र छोड़ा और 1 जुलाई को एकलव्य में प्रवेश किया। फिर 1985 में भोपाल से चकमक बालविज्ञान पत्रिका के प्रकाशन की योजना बनी तो राजेश जो अब तक राजेश उत्सांही के रूप में स्थापित हो चुके थे चकमक की टीम में थे। और फिर वे 1985 से 2002 तक लगातार सत्रह साल तक चकमक की टीम में रहे सह-संपादक से लेकर कार्यकारी संपादक की भूमिका में। इस बीच एकलव्यी में विभिन्न जिम्मेदारियां उठाते रहे। 27 साल तक एकलव्य में काम करने के बाद 2009 में बंगलौर चले गए और वहां अजीम प्रेमजी फाउंडेशन द्वारा संचालित टीचर्स आफ इंडिया पोर्टल में हिन्दी संपादक की हैसियत से कार्यरत हैं।
उन्होने इस बीच जो उपलब्धियां हासिल कीं उनके बारे में इस लिंक पर विस्तार से देखा जा सकता है http://utsahi.blogspot.com/p/blog-page_12.html

* कविता,कहानी,लघुकथा व्यंग्य आदि में कलम चलाई। बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य में गहरी रूचि रही है। किसी भी रचना को आलोचक की निगाह से देखना खासा भाता है। उस पर अपनी राय देने से नहीं चूकने की आदत है। पिछले लगभग दो साल से ब्लागिंग की दुनिया में हैं और तीन ब्लागों के मार्फत सबसे मुखातिब हैं। उनके ब्लाग की लिंक ये रहीं- गुल्लकhttp://utsahi.blogspot.com/
यायावरी http://apnigullak.blogspot.com/
गुलमोहर http://gullakapni.blogspot.com/

मंगलवार, 28 जून 2011

शांत, सौम्य, निर्बाध (सुधा भार्गव )



सुधा भार्गव जी के ब्लॉग से मैं परिचित थी , पढ़ती भी रही .... पर वे मेरे मानस पटल पर अंकित हुईं श्री राजेश उत्साही द्वारा लिखित उनसे मिलने के वृतांत पे ...
जीवन में सीखने के लिए हमेशा कुछ होता है हमारे पास - सुधा जी से मैंने संस्कारों की शांत निर्बाध चलनेवाली ज़िन्दगी के ढंग लिए . उनकी लघुकथा बहुत कुछ
कहेगी ... पात्र काल्पनिक होते हैं , सोच अनुभवों के रास्ते से निकलते हैं , कल्पना भी मौन के गृह से निकलते अपने ख्वाब होते हैं - http://sudhashilp.blogspot.com/2011/05/blog-post.html

बच्चों के लिए इनका जो ब्लॉग है, उसका आरम्भ उनके उस रूप को रेखांकित करता है , जिससे बचपन की झलक मीठे अंदाज में मिलती है . "कल सपने में देखा मैं एक छोटी सी बच्ची
बन गई हूँ ....... तुम सब मेरा जन्मदिन मना रहे हो, चारों तरफ खुशियाँ बिखरी हैं , टौफियों की बरसात हो रही है ....." , एक नन्हीं बच्ची उनके चेहरे से झांकती है . छोटी सुधा और आज की सुधा के बीच को मैंने पढ़ा , कैसे ? यह बताना मुमकिन नहीं , पर पढ़ा और अपनी यादों के एल्बम में संजो लिया , फुर्सत के क्षणों में देखने की आदत जो है .
दूर दूर , अजनबी से होकर भी हम अजनबी नहीं , अभिव्यक्ति ने हमें अपने तरीके से किसी को समझने का मौका दिया है और साथ होकर भी वर्षों हम कितनी बातों से अनजान रहते हैं तो ज़रूरी है कुछ बातें उसकी जुबानी सुनना ..... तो चलिए एक विस्तृत परिचय सुधा जी का उनके द्वारा !

बचपन से अब तक का जीवन सफर

कहा जाता है बचपन जीवन का सबसे छोटा मौसम होता है.। पर मैं तो कहूँगी यह सबसे लम्बा होता है । तभी तो जीवन के इस मोड़ पर भी वह मेरी हथेलियों पर पसरे बैठा है और मैंने --मैंने मुट्ठियाँ कसकर बाँध रखी हैं । यदि उसका एक कण फिसल भी गया तो धरती हँसने लगती है ।

मेरा जन्म अनूपशहर (जिला -बुलंदशहर )के एक ऐसे धनाढ्य ,प्रतिष्ठित सयुंक्त परिवार में हुआ जहाँ वात्सल्य का कलश छलका पड़ता था । बाबा डा. श्यो सहाय भार्गव मेरे लिए देवतुल्य थे ,मेरा कवच थे । पिता डा.जगदीश्वर सहाय के क्रोध से हमेशा बचाते थे । औषधि निर्माण का कार्य उन्हीं के समय शुरू हो गया था जो निरंतर प्रगति पर है । बायोकैमिक -होम्योपैथिक चिकित्सा से सम्बंधित हिन्दी ,उर्दू .अंग्रेजी में पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ ।

बचपन में पढ़ाईमें मन नहीं लगता था इसलिए हमेशा मास्टरों के घेरे में रहती। हाई स्कूल में आते -आते हिन्दी साहित्य के प्रति रूचि जाग उठी। शरतचंद्र .बंकिम चंद ,रवीन्द्र नाथ टेगोर के उपन्यास पहले ही ख़त्म कर चुकी थ। सूर .कबीर साहित्य भी छोटी सी लाइब्रेरी में जुड़ गया।.महादेवी वर्मा की छायावादी कविताओं में कहीं खो जाती और हूक सी उठती --मैं भी उनकी तरह लिखूँ ।
उनको मैंने एक पत्र भी लिखा ,जबाब भी आया पर दुर्भाग्यवश वह कहीं खो गया ।उन्होंने मेरे अक्षरों को मोती समान बताया था ।
मेरा आरम्भ से ही 'LAUGHING THEORY'में विश्वास है। इसी कारण हास्य जगत के शिरोमिणी काका हाथरसी की कविताओं व काका -काकी के प्रहसनों ने मुझे गुदगुदाया । उनको भी मैंने पत्र लिखा था -उत्तर मेरे पास सुरक्षित है । उन्होंने ढेर सा आशीर्वाद दिया था --जहाँ भी रहो अमृत की वर्षा करो । दूसरों को खुश करती रहो।

इंट्ररमीडियेट करते -करते हिन्दी की विशेष परीक्षाएं जैसे सिद्धांत सरोज ,प्रवेशिका .विद्द्या विनोदिनी पास कर लीं ।
बी,ए,-टीका राम गर्ल्स कालिज अलीगढ़
से छात्रावास में रहकर किया॥यहाँ सांस्कृतिक व खेलकूद की गतिविधियाँ कुछ ज्यादा ही हो गईं । वैसे भी पिताजी किताबी कीड़ा नहीं बनाना चाहते थे ना ही उन्होंने लड़के लडकी के पालन -पोषण में कोई भेदभाव किया ।
छात्र संघ से जुड़ने के कारण वक्तव्य कला में निखार आया। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर डा.कर्नल जैदी ,अरुणा आसफ अली .श्री जगजीवन राम आदि को देखने का अवसर मिला ।
बी.टी.उरई वैदिक कालिज से की॥.योगा का प्रथम पाठ यहीं सीखा जो बाद में जीवन का अनिवार्य अंग बन गया।
अन्य योग्यता -रेकी चिकित्सक

विवाहोपरांत कलकत्ते चली गई। प्रतिभा के धनी हरि कृष्ण भार्गव उषा फैक्टरी व फैन फैक्टरी में एक कर्तव्यनिष्ठ इंजीनयर रहे। वे बड़े सरल और सौम्य प्रकृति के थे ।
बड़े बेटे ने रांची B.I.T.से इंजीनियरिंग की जो आजकल लन्दन में है । छोटे बेटे ने खड़गपुर I.I.T.से इंजीनियरिंग की जो कनाडा से अभी हाल में भारत लौटा है॥ बेटी ने कलकत्ते से ही M.B.B.S.किया। शादी बाद से वह कानपुर हैं ।दामाद भी सर्जन हैं।दोनों बहुओं ने डाक्ट्रेट की है।
अक्टूबर -२०११ में मेरी पोती और नाती (2 grandchildren)कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी लन्दन में इंजीनियरिंग करने जा रहे हैं।इस तरह से सरस्वती की बहुत मेहरबानी है।

मुझे बच्चों के संसर्ग में हमेशा प्राकृतिक सुख मिल। जैसे ही अपने बच्चे बड़े हुए ,मौका मिलते ही बिरला हाई स्कूल कलकत्ता से जुड़ गई ।करीब २२ वर्षों तक अध्यापन कार्य किया ।

लेखन संसार कविता से शुरू हुआ था । मुक्तक,यात्रा संस्मरण .कहानी ,लघुकथा तथा बालसाहित्य जैसी अनेक विधाओं पर लेखनी चलती रहती है। जनसत्ता ,विश्वामित्र ,सरिता अहल्या ,अनुराग .नंदन ,साहित्यकी आदि अनेक पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ छपती रही हैं।
बिभिन्न कवि गोष्ठियों में सक्रिय रही । दिल्ली आकाशवाणी से कहानी व कविताओं का प्रसारण हुआ।

प्रकाशित पुस्तकें
रोशनी की तलाश में --काव्य संग्रह
बालकथा पुस्तकें---
१ अंगूठा चूस
२ अहंकारी राजा
३ जितनी चादर उतने पैर पसार

सम्मान
डा.कमला रत्नम सम्मान
सम्मानित कृति--रोशनी की तलाश में(कविता संग्रह )

राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान
सम्मानित कृति
जितनी चादर उतने पैर पसार

पुरस्कार --राष्ट्र निर्माता पुरस्कार (प. बंगाल -१९९६)
अभिरुचि -पेंटिंग और भ्रमण
विदेश भ्रमण --अमेरिका ,इंग्लैंड ,कनाडा ,यूरोप ,नेपाल ,भूटान ,सिंगापुर,मलेशिया आदि ।

रिटायर्मेंट के बाद दिल्ली सरिता विहार में बस गये। चिंता में थे महानगरी में कैसे पैर जमेंगे। इस सन्दर्भ में डा.शेरजंग गर्ग और इंदु जैन को कभी नहीं भूल सकत। मैं जानती थी लेखन के मामले में---- मैं कितने पानी में हूँ ।पर .गर्ग जी ने कभी हतोत्साहित नहीं किया। बस एक बात कहते थे --खूब लिखो-- फिर उसे बार -बार पढ़ो और माँजो ।
इंदुजी अब हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी कृतियाँ ,उनका सद्व्यवहार अमिट छाप छोड़ गया है।उदासीनता के बादल जब मुझ पर छाते , उनके शब्द मीठी फुआर बन बरस पड़ते --कभी अपने को कम न समझो ।जैसे एक माँ अपने बच्चे को जन्म देती है उसी प्रकार कविता का जन्मदाता एक कवि होता है।

सोचा था दिल्ली में स्थाई रूप से रहेंगे ।परन्तु भार्गव जी की अस्वस्थ्यता के कारण बैंगलोर आना पड़ा | गतिविधियाँ ज्यादातर घर तक सीमित हो गईं|
डा. कुमारेन्द्र सिंह सैंगर जी के द्वारा ब्लॉगकी दुनिया से परिचित हुई।उनसे ही प्रोत्साहन पाकर तूलिकासदन ब्लॉग का आरम्भ किया । अन्य मित्रों की सहायता से क-ख-ग सीखकर सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ती गई ।परिणाम आपके सामने है । लेकिन अभी बहुत कुछ सीखना है और सीखने की कोई उम्र नहीं होती।

मेरे ब्लॉग--
१--तूलिका सदन (लिंक ;sudhashilp.blogspot.com)
२--बालकुंज (baalkunj.blogspot.com)
3--बचपन के गलियारे (baalshilp.blogspot .com)

२०११-जनवरी -फरवरी--मेरी जीवन परीक्षा के कठिनतम दिन थे । मैं उस परीक्षा में पास न हो सकी।अपने जीवन साथी को रोकने की बहुत कोशिश की पर वे १३फरवरी को प्रात:ही हमें अकेला छोड़कर चले गये । हाँ इतना अवश्य है कि जाने से पहले बहुत मजबूत बना गये ताकि पाँव कभी रुकें नहीं ।आगे के सफर में चलना तो है--- चलना ही जीवन है ।

सोमवार, 27 जून 2011

गंभीर व्यक्तित्व (डॉ दराल)



http://tsdaral.blogspot.com/ इस लिंक तक मैं पहुंची किसी और के ब्लॉग की टिप्पणी के माध्यम से ... गंभीर व्यक्तित्व और कुछ अलग सा लेखन , सोचा एक टिप्पणी डाल दूँ , ... सच कहूँ , कुछ अजनबी से एहसास हुए . पर मैंने पाया कि डॉ साहब ने मेरे ब्लॉग पर अपनी उपस्थिति दर्ज की और एक गंभीर टिप्पणी दी . वो होता है न कि कोई बच्चा अगले दिन फिर खेलने जाता है पार्क में धीरे धीरे , ठीक वैसे ही मैं डॉ दराल के ब्लॉग पर गई - इधर-उधर देखते हुए झट से उनके लेखन के बगीचे में पहुँच गई बिना किसी आहट के ....... और शान से ऊटी यात्रा की , क्योंकि यूँ तो सोचती ही रही .... अगर आपने ना घुमा हो तो चलिए हम घुमा आएँ - http://tsdaral.blogspot.com/2011/06/blog-post_23.html
बहुत लम्बा परिचय नहीं , पर खासियत है इनके प्रस्तुतीकरण में , तो इनसे आपको मिलवाना मेरा कर्तव्य है .
डॉ दराल के शब्दों में उनकी जीवनी के कुछ अंश - जो आपसे बहुत कुछ कह जाएँ , बहुत कुछ सीखा जाएँ ---
दिल्ली के एक गाँव के एक साधारण से किसान परिवार में ११ अगस्त १९५६ को जन्म हुआ था । सौभाग्य था कि किसान परिवार होते हुए भी घर में शिक्षा को बहुत महत्त्व दिया जाता था । दादाजी गाँव के पहले व्यक्ति थे जिन्हें पढना लिखना आता था , पिताजी दिल्ली के हिन्दू कॉलिज से इको ( ऑनर्स ) करके पहले ग्रेजुएट और हम दराल गोत्र के पहले मेडिकल ग्रेजुएट बने । प्रारंभिक शिक्षा जहाँ गाँव में ही हुई , छठी कक्षा में दिल्ली शहर के स्कूल में दाखिला लिया । शायद यह काम पिताजी ने अपने जीवन का सबसे बेहतरीन काम किया था । वर्ना मैं भी यूँ ही कहीं दर दर की ठोकरें खा रहा होता , अन्य बालकों की तरह ।

कुछ तो पारिवारिक संस्कार थे , कुछ ऊपर वाले की दया से उत्तम आई क्यु और कुछ अपनी मेहनत का फल --स्कूल में हमेशा प्रथम या द्वितीय ही आता था । जहाँ बाकि बच्चे पास होने की ख़ुशी मनाते थे , वहीँ अपने लिए तो पास होने का मतलब होता था --प्रथम आना ।

उस समय सभी टॉपर्स स्कूल में बायोलोजी लेते थे । बस इसी तरह हम भी मेडिकल कॉलिज में पहुँच गए ।

लिओ होने के नाते , हर काम में आगे रहने की आदत थी । इसलिए कॉलिज में सभी कार्यक्रमों में हिस्सा लेने की आदत सी पड़ गई थी ।

कॉलिज में निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरुस्कार , गायन में भी द्वितीय , लेकिन फोटोग्राफी में प्रथम रहा । अंतिम वर्ष में गाय्नेकोलोजी में भी द्वितीय स्थान लेकर शिक्षा पूर्ण हुई ।


मेडिकल करियर के प्रथम वर्षों में मेडिकल रिसर्च में रूचि लेते हुए दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में बाल रोग विभाग में काम करते हुए ओ आर एस पर किया शोध कार्य आज भी डायरिया पर होने वाले सेमिनार्स और पेपर्स में कोट किया जाता है । इसके लिए १९८३ में नेशनल कौन्फेरेंस में रिसर्च में गोल्ड मेडल प्राप्त हुआ ।


तद्पश्चात १९९० से दिल्ली के जी टी बी अस्पताल में कार्यरत हूँ ।वहां भी एपिडेमिक ड्रोप्सी पर किया शोध कार्य एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रहा ।

१३ अप्रैल १८८४ में शादी हुई । अपनी तो एक ही शर्त थी कि शादी डॉक्टर से करनी है । शगुन का एक रुपया लेकर हमने शादी की । पत्नी भी डॉक्टर है । दोनों बच्चे इंजिनियर हैं ।


एक दिन अचानक ख्याल आया कि हम तो २० साल तक हनीमून मनाते रहे और बच्चे तो पैदा किये ही नहीं । यानि पोस्ट ग्रेजुएशन तो की ही नहीं । उसके बिना अधूरा सा लगा तो कमर कस ली और अपने से आधे उम्र के बच्चों के साथ कम्पीट करके कॉम्पिटिशन में सफल हुए और सन २००० में न्यूक्लियर मेडिसिन में दिल्ली के इनमास में दाखिला लेकर यह मुकाम भी पूरा किया ।


एक्स्ट्रा क्यूरिकुलर : बचपन से ही घर में बड़ों से हंसी मजाक के किस्से सुनते आए थे । हरियाणवी खून होने के नाते हास्य रग रग में बसा हुआ है । लेकिन सबसे पहला प्रभाव पड़ा , कॉलिज के दिनों में --हास्य कवि काका हाथरसी का । उनकी हास्य कवितायेँ सुनकर हमने भी लिखना शुरू किया और सबसे पहले डॉक्टर बनने के अनुभवों पर हास्य कवितायेँ लिखी जिन्हें सुनकर हमारे साथी दिल खोलकर हँसे ।

फिर दौर आया टी वी पर लाफ्टर चैम्पियंस का । मुंबई के डॉ तुषार शाह को देखकर अपनी भी दबी हुई टेलेंट अंगडाई लेने लगी । दिसंबर २००७ में हुए दिल्ली आज तक पर दिल्ली हंसोड़ दंगल के ऑडिशन में पहुँच गए । डेढ़ करोड़ आबादी में से १५० लोग ऑडिशन के लिए आए थे । उनमे से १० लोगों का चुनाव किया गया । और अंत में ५ फाइनल में गए जिनमे प्रथम पुरुस्कार हमें ही मिला । हंसी का डाक्टर , दिल्ली का हंसी का बादशाह और ऑडियंस ने हमें ख़िताब दिया --हरियाणे का ताऊ । इस प्रोग्राम में ज़ज़ थे -कविराज अशोक चक्रधर ।

अक्तूबर २००८ में अशोक चक्रधर जी ने ही वार्षिक हैल्थ मेले में एक प्रतियोगिता का प्रबंध किया --नव कवियों की कुश्ती । वहां भी ५० पार कर चुके लेकिन नवोदित कवि के रूप में हमने भाग लिया और बुजुर्ग कवि ज़जों द्वारा प्रथम पुरुस्कार प्रदान किया जाने पर हमें स्वयं पर विश्वास सा होने लगा ।

और इस तरह काव्य जगत में प्रवेश हुआ । अब कविसंगम डोट कॉम में कवियों की लिस्ट में हमारा भी नाम है ।
मासिक काव्य गोष्ठियां , काव्य विशेष कार्यक्रम और अनेकों तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए निरंतर आमंत्रण आते रहते हैं ।

१ जनवरी २००९ को हमने अपना ब्लॉग आरंभ किया --श्री अशोक चक्रधर जी के ही आह्वान पर । ब्लॉग पर मैं मुख्यतया हास्य- व्यंग कवितायेँ , चिकित्सा लेख , फोटोग्राफी और सामाजिक मुद्दों पर लिखता हूँ ।



अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि एक डॉक्टर को इन सब कामों के लिए वक्त कैसे मिलता है ।
ऐसे में मेरा एक ही ज़वाब होता है --मेरी पत्नी को मुझसे एक ही शिकायत रहती है कि मैं अस्पताल जाकर घर को बिल्कुल भूल जाता हूँ । कम से कम इस मामले में वो बिल्कुल सही कहती है । यह सच है कि ९ से ४ तक मैं जब अस्पताल में होता हूँ तो सिर्फ और सिर्फ अपने काम के बारे में सोचता हूँ । लेकिन उसके बाद जो १७ घंटे बचते हैं उनमे से २-३ घंटे अपने शौक के लिए न बचें , यह कैसे हो सकता है ।

दूसरे डॉक्टर्स घर जाकर भी मरीजों में उलझे रहते हैं । किसी सेवा भावना से प्रेरित होकर नहीं बल्कि कमाई के लालच में ।
हमें तो जो मिल रहा है , उसी में संतुष्ट हैं । वैसे भी ख़ुशी पैसे से नहीं खरीदी जा सकती ।

घूमने फिरने , ट्रेकिंग और पहाड़ों में विचरण करने का बड़ा शौक है । प्राकृतिक द्रश्यों को कैमरे में कैद करना बड़ा अच्छा लगता है । दोस्तों के साथ महफिलें सजाना हमेशा शौक रहा है ।

कभी कभी सोचता हूँ दुनिया में हमारे जैसे सीधे सादे बन्दे का गुजारा कैसे हो सकता है । लेकिन सच यही है कि अभी तक अच्छा गुजारा हुआ है ।


डॉ टी एस दराल
मो: ९८६८३९९५२०
इ-मेल: tsdaral@yahoo.com
ब्लॉग: अंतर्मंथन ( tsdaral.blogspot.com)

रविवार, 26 जून 2011

एक खिलखिलाती हवा (वंदना गुप्ता )



वंदना गुप्ता ... जब भी इन्हें पढ़ा एक गंभीर चेहरा मेरी आँखों के आगे उभरा ... तस्वीर भी ब्लॉग पर बड़ी ही गंभीर ! इनसे मिलने का सौभाग्य हुआ ब्लोगोत्सव के वार्षिक कार्यक्रम में . एक खिलखिलाती हवा नीले परिधान में विद्युत् सी दन्त पंक्तियों की छटा बिखेरती पास आकर बोली - 'रश्मि जी...' मैं भी मुस्कुराई , कहा - 'पहचाना नहीं ' . जगह बनाती बैठती हवा खिलखिलाई - 'मैं वंदना गुप्ता' ..................... हाँ ? हठात मुंह से निकला - लेखन , तस्वीर से एकदम अलग ! सबसे मिलकर वंदना जी बहुत खुश दिखाई दे रही थीं ....
लेखन पर उनकी पकड़ जबरदस्त है , हर क्षेत्र में एक वर्चस्व है और दंभ बिल्कुल नहीं , होता तो वह मेरे साथ यहाँ नहीं होतीं .

यह तो मेरा अनुभव रहा उनके साथ होने का , चलिए उनको सुनें उनसे ही -

मैं खुद आज तक अपना परिचय पाने के लिए जूझ रही हूँ मगर मुझे मैं ही नहीं मिल रही ............ना जाने कहाँ कहाँ घूम आई , हर दरो दीवार से टकराकर सदा वापस आ गयी मगर मुझे मैं नहीं मिली ...........और जब आखिर दरवाज़ा खटखटाया तो उसके बाद अपना पता भूल गयी .
अब तो यही मेरा परिचय है .

लेकिन इस दुनिया में रहते हैं हम सभी और इसकी रीति निभानी है तो शुरू करना ही होगा कहीं ना कहीं से .

मैं एक आम लड़की की तरह साधारण जीवन जीती आई हूँ . जिसमे ज़िन्दगी के उतार चढाव उसी तरह आते रहे जैसे सागर में हिलोरें .
बचपन शायद आया था मुझ पर भी मगर बहुत कम समय के लिए ........एक दबे ढके घर में उसूलों और आदर्शों से बंधा जीवन जिया है . मेरे बाउजी बहुत ही आदर्शवान व्यक्ति थे और उन्ही के आदर्श और उसूल आज मेरे जीवन की धरोहर बने हैं . बहुत सख्त थे मेरे पिता ......कहीं अकेले नहीं जाना, देर तक बाहर नहीं रहना ये ऐसे आदेश थे जिनका हम उल्लंघन नहीं कर सकते थे नहीं तो वो चिंतित हो जाते थे मगर प्यार इतना करते थे कि कोई क्या प्यार करेगा ........हम तीन बेटियां ही उनकी जान थे . हमें क्या पसंद है खाने पीने में बस वो ही बनता था घर में चाहे कुछ हो जाये . प्यार अपनी जगह था और सख्ती अपनी जगह . मगर ज़िन्दगी में उतार चढाव भी उसी तरह बने रहे . मम्मी बीमार रहती थीं जल्दी जल्दी अस्पताल में admit करना पड़ जाता था जिस कारण जो मैं बनना चाहती थी नहीं बन पाई या कहिये जो मेरे पिता मुझे बनाना चाहते थे नहीं बना पाए. उनका लक्ष्य था कि मैं आई ए एस की परीक्षा दूँ या मेरी कोई ऊँचे ओहदे पर सरकारी नौकरी लगे . हमेशा मेरा हौसला बढाया करते थे क्यूँकि पढाई में बचपन से होशियार थी और हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त करती रही और यही मैं भी चाहती थी . मगर होनी को ये मंजूर नहीं था मम्मी की बीमारी के कारण वो लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई और साधारण रूप से स्नातक तक की शिक्षा ग्रहण कर पाई और उसके बाद कंप्यूटर में एक साल का डिप्लोमा किया .

इसी बीच शादी हो गयी और ज़िन्दगी ने एक नयी करवट ले ली . अब ज़िन्दगी एक नए मोड़ पर आ गयी जहाँ से अपने लिए जीना छोड़कर सबके लिए जीना शुरू कर दिया और खुद को भूल गयी.

यूँ तो कवितायेँ , शेरो -शायरी सुनने का शौक बचपन से था . टी वी पर जितने कार्यक्रम आते थे मुशायरे आदि के सब देखा करती थी और खुद भी थोडा बहुत दिल की बातें लिखा करती थी मगर वो एक वक्त था जो आकर गुज़र गया जिसमे कुछ पल अपने साथ जिया करती थी .

मगर जब मेरे बच्चे बड़े हुए और मुझे ज़िन्दगी ने फुरसत दी तो लगा अब अपने लिए कुछ करना चाहिए .

इसी सिलसिले में एक दिन अख़बार में पढ़ा ब्लॉग बनाने का तरीका क्यूँकि चारों तरफ ब्लॉगिंग का शोर था तो सोचा कि एक हाथ इसमें भी अजमाया जाये शायद अपने दिल की बात वहाँ कहने का मौका मिल जाये . बस इस तरह ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई २००७ में और १-२ पोस्ट लगा भी दी .मगर तब सिर्फ साल में शायद २-३ पोस्ट ही लगायी होंगी क्यूँकि ज्यादा कुछ पता नहीं था इसी बीच मेरा ये ब्लॉग ज़िन्दगी खो गया और फिर मैंने अपना दूसरा ब्लॉग ज़ख्म बनाया और उसके बाद बाकी सब ब्लोगर के सहयोग से कारवां बनता गया और आज आप सबके सामने हूँ जैसी भी हूँ .

जब से ब्लॉग बनाया तब से मानसिक सुकून काफी मिलने लगा और यहाँ इतने अच्छे लोग मिले कि लगा ही नहीं कि हम किसी अलग दुनिया के हैं या एक दूसरे को नहीं जानते .सब ने काफी सहयोग किया तथा उत्साहवर्धन किया जिसके कारण आज आप सबके बीच थोड़ी सी पहचान बन पाई.

जहाँ तक मेरी रूचि की बात है तो अब मैं अध्यात्म की तरफ इतना मुड चुकी हूँ कि उसके आगे मुझे अब कुछ अच्छा नहीं लगता ......मेरे कान्हा और मैं बस और कुछ चाहिए ही नहीं होता ........कोई इच्छा , कोई चाह नहीं रही और मुझे तो लगता है कि जो मैं लिखती हूँ वो सब उसी की प्रेरणा है या कहिये वो ही मेरी कलम में बैठकर स्वयं लिखता है और मुझे माध्यम बना रखा है ..........उसकी इतनी महती कृपा है .
वरना मुझे अपने में ऐसा कोई गुण नहीं दिखता की मैं कुछ लिख सकूँ ..........ये सब आज उसी की कृपा का ही फल है . मेरे लेखन में आपको ज्यादातर ईश्वरीय तत्व ही दिखेगा क्यूँकि वो ही लिखवाता है जो वो ही मैं लिख देती हूँ .
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम( OBO) ने मुझे फरबरी २०११ में "महीने का सर्वश्रेष्ठ सदस्य" चुना था।
तथा पिछले महीने मेरी कविता को महीने की सर्वश्रेष्ठ कविता से नवाज़ा गया है ओ बी ओ द्वारा .
पिछले कुछ समय से मेरी कुछ कवितायें , कहानियां और आलेख अलग अलग मैगज़ीनों, अखबारों इत्यादि मे छप रहे हैं जैसे -------मिडिया दरबार, जनोक्ति ,ब्लोग इन मीडिया, गजरौला टाइम्स ,उदंती छत्तीसगढ़ रायपुर , स्वाभिमान टाइम्स, हमारा मेट्रो, सप्तरंगी प्रेम. हिंदी साहित्य शिल्पी, वटवृक्ष , मधेपुरा टाइम्स, OBO पत्रिका आदि मे छपी हैं तथा कुछ कवितायेँ प्रवासी भारतीयों की मैगजीन गर्भनाल और कुछ सुखनवर में छपने गयी हैं!
यहां तक कि कुछ आलेख अभी विभिन्न पुस्तकों मे छपने गये हैं जो ब्लोगिंग से संबंधित हैं। एक पुस्तक का विमोचन तो 30 अप्रैल को हुआ है और दूसरी अगले साल तक आयेगी।इनमे मेरे लिखे आलेख सम्मिलित हैं।एक कविता संचयन के लिये चुनी गयी है इस किताब का इस वर्ष विमोचन होगा जो छह खण्ड मे प्रकाशित होगी।

उनसे एक मुलाकात यहाँ - http://www.udanti.com/2011/03/blog-post_1251.html

शनिवार, 25 जून 2011

'होनहार बिरवान के होत चिकने पात' (अनुपमा सुकृति )


अनुपमा सुकृति , ब्लौगिंग की दुनिया में हाल में ही इन्होंने कदम बढ़ाये , पर कहते हैं न कि 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात' , वही चरितार्थ किया अनुपमा सुकृति ने . हर लेखनी में जीवन का सरल स्पर्श और टिप्पणी में सहजता . वटवृक्ष , परिकल्पना के बारे में बातचीत करते हुए हम चिर परिचित बन गए और मुझे एक और छोटी बहन मिल गई . अब इस प्रश्न में नहीं उलझना है कि 'एक और से तात्पर्य' .... ये कहानी फिर सही !
साधारण सी बात है कि जब सामनेवाला आपकी बातें समझ लेता है ठीक उसी तरह जैसा आप कहना चाह रह तो बहुत अच्छा लगता है , तो मुझे भी अच्छा लगा अनुपमा सुकृति से बातें करके . बातों के दरम्यान मैंने जाना वह गाती है , संगीत में विशारद किया है.... मुझे अपने लिखे गीतों के लिए एक और आधार नज़र आया , मैंने उनको फ़ोन पर पहले सुना , फिर उन्होंने अपने गाये गीत मेल किये , यकीनन जिस खनक की मुझे तलाश थी , वह मिली . गीत बाद में सुनियेगा , पहले एक झलक उनके नाम के साथ उनके काम पर उनके सपनों पर -

: श्रीमती अनुपमा त्रिपाठी
जन्म तिथि :13-05-63.
शिक्षा :एम.ए(अर्थशास्त्र)1984 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय(जबलपुर) से किया |74%with distinction in Econometrics and Mathematical Economics.
विशारद (संगीत)में 2006 में किया|प्रथम श्रेणी में |अब अलंकार कर रहीं हैं |
व्यवसायिक अनुभव :अर्थशास्त्र की व्याख्याता 1984-85.Jabalpur . हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत पढ़ाया: .2010 में T.F.A.(TEMPLE OF FINE ARTS-K.L.-Malaysia.)में.
पता : 5-B,रेलवे बोर्ड ऑफीसर फ्लैट .
सरोजिनी नगर
नई दिल्ली.110023.
फोन (मोबाईल) : 09350210808.
अपने बारे में बताते हुए अनुपमा कहती हैं .. "ज़िन्दगी में समय से .. वो सब मिला जिसकी हर स्त्री को तमन्ना रहती है ...सच कहूँ तो किसी प्रकार का समझौता नहीं किया कभी भी किसी भी चीज़ से मैंने ..!!इस अदम्य साहस के पीछे है मेरे माता-पिता के द्वारा दी गयी शिक्षा ..संस्कार ..और अब मेरे पति के द्वारा दिया जा रहा वो सुंदर ,संरक्षित जीवन जिसमे वे एक स्तम्भ की तरह हमेशा मेरे साथ रहते हैं |सशक्त ..शांत..धीर ..गंभीर ...!!दो बेटों की माँ हूँ और अपनी घर-गृहस्थी में लीन .....!!"
कला से जुड़ाव : आपको बचपन से ही गीत ,संगीत .नृत्य एवं अभिनय में गहन रूचि थी .भातखंडे महाविद्यालय से आपने शास्त्रीय संगीत और सितार की शिक्षा ग्रहण की |श्रीमती सुंदरी सेशाद्री से भरतनाट्यम सीखा|इन सभी विधाओं में स्कूल में विभिन्न स्तरों पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लिया एवं अनेकों पुरस्कार अर्जित किये |
१८ वर्ष की आयु में युववाणी ;ऑल इंडिया रेडिओ से जुड़ीं |फिर जबलपुर आकाशवाणी से लोक संगीत में( बी ग्रेड) कलाकार के रूप में प्रोग्राम दिए|
2000-2010 के बीच R.W.W.C.O.रेलवे वूमन वेल्फेयर सेन्ट्रल ओर्गनाइजेशन की सांस्कृतिक सचिव रहकर अनेक कार्यक्रमों में गाया भी और सञ्चालन भी किया|
श्री राधे शरणम् पीठ के लिए भक्ति संगीत दिया |
2010 में T.F.A.(TEMPLE OF FINE ARTS-K.L.-Malaysia.)में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत पढ़ाया |संगीत के कई कार्यक्रमों में गाया और ''यादें '' नामक सी .डी में भी गाकर अपना योगदान दिया |
फिलहाल उपशास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम देती रहतीं हैं और शास्त्रीय संगीत का शिक्षण अनवरत चल रहा है |
लेखन से जुड़ाव :आपकी बचपन से ही साहित्य में गहन रूचि थी |हिंदी,संस्कृत या अंग्रेजी ,कोई भी भाषा हो उसे पढ़ना रुचिकर लगता था |हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में निबंध लेखन में और कविता-पाठ प्रतियोगिताओं में ,वाद-विवाद प्रतियोगिता में अनेक पुरस्कार प्राप्त किये |कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य एक विषय था,अंगरेजी साहित्य भी काफी पढ़ा | |किन्तु ...आपकी माँ संस्कृत की ज्ञाता थीं |उन्हीं की हिंदी साहित्य की किताबों को पढ़ते -पढ़ते हिंदी साहित्य का बीज ह्रदय में रोपित हुआ |समय के साथ-साथ ये बीज प्रस्फुटित हुआ,पल्वित हुआ और धीरे -धीरे एक वटवृक्ष बन गया| अब जीवन की कड़ी धूप से बेचैन होता मन इसकी छाओं में बैठने को तरसने लगा ...!!छटपटाहट बढ़ने लगी ...भीड़ बेचैन करने लगी ..एकान्तप्रिय मन होने लगा ...और इस तरह मन जुड़ गया कलम से भी ..!!आपकी कविता ''मृग मरीचिका नहीं मुझे है जल तक जाना ...!!"की ये पंक्तियाँ बहुत प्रभावित करतीं हैं और ...इस भाव को स्पष्ट करती हैं:
जाग गयी चेतना --
अब मैं देख रही प्रभु लीला --
प्रभु लीला क्या -जीवन लीला ....
जीवन है संघर्ष तभी तो --
जीवन का ये महाभारत --

युद्ध के रथ पर --
मैं अर्जुन ...तुम सारथी मेरे ..
मार्ग दिखाना -
मृगमरीचिका नहीं ---
मुझे है जल तक जाना ...!!!!!!

अब आप अपने ब्लॉग http://anupamassukrity.blogspot.com/ पर लिखतीं हैं |
आपकी कवितायें "नई सुबह" एवं "मन की सरिता" "उन्मुक्ता "नमक पत्रिका में छपी हैं | "अर्चना (२०११के लिए )" "नारी "नामक पत्रिका में छपी है और अब हर अंक में निरंतर छ्प रहीं हैं|
इस प्रकार आपका मन गायन और लेखन से जुड़ा हुआ ...जीवन में आगे बढ़ रहा है .....!!

शुक्रवार, 24 जून 2011

देख लूँ तो चलूँ' (नीरज गोस्वामी )



लिखा समीर जी ने 'देख लूँ तो चलूँ' और किसी किताब के पास ठिठके नीरज जी का दिल बोलता है ' देख लूँ तो चलूँ ' ... तो जब मैं इनके ब्लॉग पर पहुंची तो मेरी पसंद ने भी कहा - 'देख लूँ तो चलूँ ' !
ग़ज़ल , कविता , कहानी .... लिखना खुद तक सीमित एक प्रक्रिया है . डायरी , खूबसूरत कॉपियों में इन्हें सहेजना जीने की एक कला है ! ब्लॉग ने इस जीवन्तता को पंख दे दिए , इस मुंडेर से उस मुंडेर तक जाने का बेटिकट मौका . चाय अपनी अपनी , पर साथ पीने का मज़ा , कोई ज़बरदस्ती नहीं - शौक से कहो, सुनो, सुनाओ ....... नीरज जी ने अपनी मुंडेर पर कुर्सियों के साथ एक बुकशेल्फ भी लगाया और अपनी पसंद की किताबों की पसंदीदा पंक्तियों से उसके आकर्षण से हमें रूबरू करवाया .
पढ़ने का शौक ना हो तो लिखना बहुत सफल नहीं होता , सही लेखक पढ़ने की आदमी लालसा से भरा होता है और यही लालसा उसके पंखों की ताकत बनती है . नीरज की इस ताकत से मैं शुरू से प्रभावित रही हूँ , उनके माध्यम से बहुत से ग़ज़लकारों को मैंने जाना .
अपने प्रशंसकों को जानते हैं नीरज जी , पर इसका अभिमान नहीं उनमें ( एक बात स्पष्ट कर दूँ कि जिन्हें मैंने अपनी कलम से लिखने की कोशिश की है और करुँगी - वे सब अहम् से कोसों दूर हैं और यही
उनकी विशेषता है !), वे बड़ी सहजता से खुद के बारे में बताते हैं -

अपने बारे में कुछ लिखने को ऐसा कुछ उल्लेखनीय है ही नहीं. एक आम इंसान के जीवन में ऐसा कुछ खास नहीं होता जिस पर गर्व किया जा सके. पार्टीशन के समय अपना भरा पूरा घर छोड़ कर जब दादाजी भारत आये तब पिता शायद बीस बाईस वर्ष के थे. तभी से उनकी जद्दोजहद भरी ज़िन्दगी की शुरुआत हुई. अनजान जगह पर फिर से अपने पाँव जमा कर खड़े होना हंसी खेल नहीं होता. ऐसी विकट परिस्थितियों में साधारण इंसान टूट जाता है. लेकिन उन्होंने न खुद को स्थापित किया बल्कि पूरे परिवार की जिम्मेवारी भी उठाई. उनकी शादी के एक साल बाद याने सन उन्नीस सौ पचास की चौदह अगस्त को मेरा जन्म हुआ. शादी के समय माता जी दसवीं पास थीं .परिवार को सँभालने की खातिर पिताजी के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलने के ज़ज्बे ने उन्हें और पढने को प्रेरित किया. अपनी लगन और मेहनत से पढ़ते हुए उन्होंने इतिहास में एम् ऐ के बाद बी एड भी किया और सरकारी स्कूल में सेवा निवृति तक पढ़ाती रहीं. परिवार में सबको साहित्य से प्रेम था. मेरी दादी अस्सी वर्ष की अवस्था में भी बिना कोई पुस्तक पढ़े सोने नहीं जाया करती थीं. हमारे घर में पुस्तकों का अद्भुत भण्डार था. पिताजी को संगीत में भी रूचि थी जिसके चलते उन्होंने अनेकों वाद्य यंत्र शौकिया सीखे और फिर बाद में सितार वादन में विधिवत शिक्षा ले कर स्नातक की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की. माताजी का रुझान गायन की तरफ अधिक रहा जो आज भी वैसा का वैसा है. अपनी गायकी से वो आज भी सुनने वाले को अपना दीवाना बना लेती हैं. शास्त्रीय संगीत हो,लोक गीत हों या फिर आज के तेज फ़िल्मी गीत सभी को गाने में उन्हें मजा आता है. येही कारण है के आजकी युवा पीढ़ी भी उनकी उतनी ही दीवानी है जिनती के हमारे बच्चों की पीढ़ी थी. साहित्य, संगीत और सिनेमा से रचे बचे घर परिवार में मुझमें इन विधाओं से स्वतः ही अनुराग हो गया.

मैं सिर्फ पांच साल का था जब हमारा परिवार जयपुर आ कर बस गया. अब पिछले पचपन सालों से जयपुर में रहने के कारण हम जयपुर के ही हो गए हैं. प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर इंजिनीयरिंग की पढाई जयपुर में की. इसी दौरान जयपुर के रंग मंच से जुड़ गए और नाटकों से प्रेम दीवानगी की हद तक बढ़ गया. घरवालों को चिंता हुई के इंजीनियरिंग करने के बाद लड़का बजाय नौकरी करने के नाटकों में दिलचस्पी ले रहा है. नाटकों से ध्यान हटाने के लिए मेरी नौकरी की व्यवस्था जालंधर कर दी गयी जहाँ मैंने तीन सालों तक काम किया और फिर जयपुर की एक प्रसिद्द फैक्ट्री में काम मिलने पर जयपुर आ गया. अब पिछले दस सालों से मुंबई के पास खोपोली में स्थित भूषण स्टील में कार्यरत हूँ. नौकरी के साथ साथ पढने और सिनेमा देखने का शौक भी चलता रहा. पढने और सिनेमा देखने में समय की कमी कभी महसूस नहीं की. मेरा ये मानना है के अगर आपकी किसी चीज़ में रूचि है तो उसके लिए समय अपने आप निकल आता है.जो लोग कोई काम न कर पाने के लिए समय की कमी की शिकायत करते हैं वो शायद उस काम को करना ही नहीं चाहते.

शायरी से लगाव भी बरसों पुराना है. मुझे याद है पिताजी अक्सर जयपुर में होने वाले अखिल भारतीय मुशायरों और कवि सम्मेलनों में मुझे अपने साथ लेजाया करते थे जहाँ मैं रात रात भर बैठ कर बड़े बड़े शायरों कवियों को सुना करता था. शायरी की समझ तो खैर क्या आती होगी लेकिन तब शायरों के शायरी सुनाने का ढंग और फिर दाद पर लोगों की वाह वाह रोमांचित किया करती थी. पिछले चार पांच सालों से याने जब से ब्लॉग खुला तब से लिखने का कर्म शुरू हुआ. ग़ज़ल लिखने को प्रोत्साहित मेरी धर्म पत्नी ने किया जो पत्नी कम और मित्र अधिक है. तब शायरी कैसे की जाती है और ग़ज़ल कैसे कही जाती है इसका मुझे बिलकुल इल्म नहीं था. ग़ज़ल की टेढ़ी बांकी पगडंडियों पर बिना किसी सहारे के चलना मुश्किल काम है. ग़ज़ल का ये सफ़र बिना गुरु जनों की मदद से तय करना असंभव था . मैं तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ और रहूँगा अपने गुरु पंकज सुबीर जी और प्राण साहब का जिन्होंने मुझे ऊँगली पकड़ कर इन दुरूह रास्तों पर चलना सिखाया. अभी भी मैं बिना इनकी मदद के एक मिसरा भी नहीं लिख पाता हूँ. मुझे अपने पाठकों से अब तक जितना भी प्यार मिला है वो सब इन्हीं की बदौलत है.

पाठकों का असीम प्यार ही मेरी एक मात्र उपलब्धि है. इन्टरनेट के माध्यम से लोगों से इतना प्यार मिला है के "आँचल में न समाय" वाली स्तिथि है. ग़ज़लें हिंदी की अधिकांश वेब साइट्स पर मौजूद हैं एक आध राष्ट्रिय स्तर और स्थानीय अखबारों में भी ग़ज़लें छपी हैं. कभी अपनी ग़ज़लों को किसी अखबार या पत्रिका में छपवाने का भागीरथी प्रयास किया भी नहीं. अलबत्ता मुंबई और जयपुर की साहित्यिक गोष्ठियों में कोई बुलाता है तो चला जाता हूँ. किसी मान सम्मान की चाह भी नहीं है जो लिखता हूँ सिर्फ अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूँ.

ब्लॉग और ग़ज़ल लेखन का सबसे बड़ा फायदा हुआ ये हुआ कि मेरा सम्बन्ध कुछ ऐसे लोगों से हुआ जो विलक्षण हैं. सोचता हूँ के अगर उनसे न मिला होता तो जीवन में बहुत कुछ अधूरा रह जाता. सम्बन्ध बिना किसी पूर्व परिचय के भी बनते हैं और प्रगाढ़ हो जाते हैं ये मैंने ब्लॉग लेखन के दौरान मिले लोगों से ही जाना. जब तक ऊर्जा रहेगी लिखता रहूँगा, अभी तक तो ये ही सोचा है आगे भगवान् जाने.
इन्हें और जानना हो तो आप इन्हें यहाँ शाहिद मिर्ज़ा जी और कुश की कॉफी के साथ जान सकते हैं .......
और ताऊ के संग यहाँ -

नीरज जी का ब्लॉग है - http://ngoswami.blogspot.com अब आप अपने शौक के साथ यहाँ भ्रमण करें और जानें कि क्या मेरी कलम ने कुछ गलत कहा !!!

गुरुवार, 23 जून 2011

होनहार , चुलबुली ...'बाप रे , कितना जानती है ये लड़की ' (शिखा वार्ष्णेय )



शिखा को मैं पढ़ती थी , और हर बार सोचती - 'बाप रे , कितना जानती है ये लड़की ' कभी उसके क्वालिफिकेशन को नहीं पढ़ा और दांतों तले ऊँगली दबाती रही . उसकी योग्यता , उसके क्षेत्र को तब जाना जब मेरी बेटी अपराजिता को मास कम्युनिकेशन में एडमिशन के लिए एक प्रोजेक्ट बनाना था और तब मेरी दोनों बेटियों ने उससे मेल के जरिये प्रश्नों के उत्तर मांगे और बिना किसी नानुकुर के शिखा मान गई . एक फॉर्म उसने अपने पतिदेव से भी भरवाकर भेजा ...... यह ब्लॉग का सामीप्य , शब्दों का रिश्ता था .
उसके शब्द में जाना है कि वह बड़ी बेटी है, पर उसके लिखने के अंदाज में , किसी अवार्ड को साझा करने में एक सादगी और चुलबुलापन है , तभी तो - जब भी वह कुछ विशेष सन्दर्भ में बताती है तो मैं मन ही मन कहती हूँ - 'बाप रे , कितना जानती है ये लड़की ' !

अब एक नज़र उस शिखा की , जिसने अपनी प्रतिभा के साथ जीवन की आपाधापी में समझौता किया , पर वक़्त ही चलकर पास आया और कहा - 'मैं हूँ न' .... उसकी यह उड़ान उसके पापा और अपनों के नाम ;

जन्म २० दिसंबर १९७३ को नई दिल्ली में हुआ खानदान के सबसे बड़े बेटे की सबसे बड़ी बेटी थी अत: सभी का भरपूर प्यार मेरे हिस्से आया .पिताजी उत्तर प्रदेश के एक सरकारी विभाग में अधिकारी थे अत :स्कूलिंग पहले पिथोरागड़ फिर रानीखेत के स्थानीय स्कूलों में हुई ,जो उस समय उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा थे. जानने वाले कहते हैं मुझपर अपने पिताजी के व्यक्तित्व का गहरा असर है .शायद इसलिए बचपन से ही कुछ ऐसा करने की ललक थी कि पापा को मेरे नाम से जाना जाये.स्कूल की सभी गतिविधियों,प्रतियोगिताएं में हिस्सा लिया करती थी. चाहे वह वाद विवाद प्रतियोगिता हो या डांस या फिर खेल और जीता भी करती थी.पढ़ाई में भी अच्छी थी. तो उस छोटे से शहर में अच्छा खासा रोब था. हम तीन बहने थीं और मैं सबसे बड़ी शायद इस बात ने मुझे कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी बना दिया था. घर में दुनिया भर के पत्र- पत्रिकाएं आतीं थीं फिर भी आते ही उन्हें पढने की होड़ सी हुआ करती थी. होली पर हम पिताजी के साथ बैठकर रिश्तेदारों के काव्यात्मक टायटिल बनाया करते थे.शायद वहीँ से साहित्य के अंकुर पनपने लगे थे. परन्तु ज्यादातर बच्चों की तरह मैं भी तब कभी टीचर ,कभी एयर होस्टेस तो कभी आई ए एस अफसर बनने के सपने ही देखा करती थी. और इसी दौरान हंसी खेल में अपनी एक तुकबंदी मैंने एक स्थानीय पत्रिका में भेज दी.और घोर आश्चर्य कि वह छप गई. जबकि तब तक यही सुनते आये थे कि पत्र पत्रिकाओं में अनजान और नए लोगों की रचनाएँ नहीं छपा करती.उस रचना के छपने से मेरी सोच का रुख आई ए एस से निकल कर पत्रकारिता पर होने लगा था.. तभी बारहवीं पास करने के बाद रशिया से छात्रवृति का ऑफ़र आया.सभी रिश्तेदारों के यह कहने के वावजूद कि हमारे समाज में लडकियां जर्नलिस्ट नहीं बना करती, यही किसी कॉलेज में दाखिला करा दो.मेरे माता पिता ने मुझे जर्नलिज्म करने के लिए ६ साल के लिए रशिया भेज दिया . और १९९१ में , १६ साल की अवस्था में,मैं अपने छोटे से शहर से निकल कर आगे की पढ़ाई करने रशिया चली गई . वहां पत्रकारिता में स्नातक और परास्नातक करने के दौरान मेरे लेख ,अमर उजाला ,दैनिक जागरण और आज जैसे भारतीय समाचार पत्रों में छपने लगे.उसी दौरान रेडियो मोस्को की हिंदी सेवा से भी बटोर स्टायलीस्ट/ब्रोडकास्टर जुडी रही. फिर वहां से टीवी पत्रकारिता में सर्वोच्च अंकों के साथ "विद ऑनर" डिग्री लेकर वापस आई और भारत में एक टी वी आई (बिजनेस इंडिया ग्रुप )नामक एक न्यूज चैनल में अस्सिस्टेंट न्यूज प्रोडूसर के तौर पर नौकरी करने लगी.परन्तु जैसा कि भारतीय समाज में सोचा जाता है नौकरी लगते ही विवाह के लिए जोर दिया जाने लगा और ३ महीने बाद ही मेरा विवाह एक कम्पूटर इंजिनियर से हो गया. फिर जैसे कि होता है पति कि नौकरी के अनुसार कभी अमेरिका तो कभी इंग्लेंड के चक्कर हम लगाते रहे और उसमें मेरे कैरियर की आहुति जाती रही.शादी के एक साल बाद ही बेटी का जन्म फिर देश ,विदेश आवागमन ,पिताजी का आकस्मिक देहांत और फिर बेटे का जन्म. जिन्दगी इतनी तेजी से भाग रही थी कि कभी अपने बारे में सोचने का, पीछे मुड़ कर देखने का मौका ही नहीं मिला. किसी भी काम को पूरी शिद्दत से करने के अपने स्वभाव वश मैंने अपनी गृहस्थी में अपने आप को तन, मन से समर्पित कर दिया.बस कुछ पंक्तियाँ अपनी डायरी के हवाले करती रही जिससे मेरा अस्तित्व बरकरार रहा शायद.जैसा कि कवि बच्चन की ये पंक्तियाँ काफी हद तक मुझे अपनी सी लगाती हैं -

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला

२००५ में लन्दन आने के बाद बच्चे थोड़े बड़े हुए तो अपने लिए थोडा समय मिलने लगा.तभी एक मित्र ने ऑरकुट से परिचय कराया .ऑरकुट की साहित्यिक कम्युनिटी में मैंने अपनी डायरी के पन्ने बांटने शुरू किये और वहां से प्रोत्सहन पाकर ब्लॉग बनाया जहाँ खुले दिल से लोगों की सराहना और प्रोत्साहन मुझे मिला जिसकी मैं हमेशा ऋणी रहूंगी . मेरी रुकी हुई गाड़ी को जैसे अचानक पटरी मिल गई और मैंने अपने बचे हुए समय को, उसे तेल,पानी देने में लगा दिया और फिर वह गाड़ी चल पड़ी.उसके बाद रास्ते अपने आप बनते गए .

आजकल ब्लॉग और कुछ न्यूज़ पोर्टल के अलावा.लन्दन में भारतीय उच्चायोग की सांस्कृतिक शाखा नेहरु सेंटर की हिंदी साहित्य की गतिविधियों में सक्रीय रहना शुरू किया.यह शायद मेरा सौभाग्य है कि हर क्षेत्र में लोगों का प्यार, सम्मान मुझे सहज ही प्राप्त हो जाता है.यहाँ भी सभी गुणी जानो का और वरिष्ठ साहित्यकारों का अपनत्व और साथ मुझे भरपूर मिल रहा है.और अब मैं हिंदी की ,हिंदी साहित्य की और पत्रकारिता की सेवा में संग्लग्न हूँ.
आज जीवन से बहुत हद तक संतुष्ट हूँ .पूरा जहाँ जीतने की तमन्ना नहीं .बस इतनी सी हसरत है कि ऊपर से जब मेरे पिताजी मुझे देखें तो अपने आसपास के सभी लोगों से कह सकें ( जो कि मुझे उम्मीद है कि वहां भी उन्होंने अपने आस पास मजमा लगा रखा होगा) कि देखो ! ये मेरी बेटी है.
प्रकाशित पुस्तकें - एक क़तरा आस्मां ( संयुक्त काव्य संकलन.)
एक संस्मरण प्रकाशनार्थ

--




बुधवार, 22 जून 2011

आकाश को पाना है , फिर सूरज मुट्ठी में (संगीता स्वरुप )




हाँ हाँ ये है आज की पोस्ट ... जी हाँ तस्वीर तो देख ही चुके आप सब ! ये हैं संगीता स्वरुप .... हर ब्लॉगरों की तरह उन्होंने भी इस क्षेत्र में अपनी भावनाओं का तरकश लिया , शब्दों की प्रत्यंचा पर लक्ष्य भेद किया ... प्रत्यक्ष कहा नहीं पर इनके क़दमों के निशान कहते गए - 'मन के हारे हार है , मन के जीते जीत ' और वे निरंतर चलती गईं . बचपन की यादों के सन्दर्भ में इन्होंने कहा -
' अक्सर अकेली स्याह रातों में
अपने आप से मिला करती हूँ और अंधेरे सायों में अपने आप से बात किया करती हूँ।' ये पंक्तियाँ बताती हैं कि हर रिश्ते , हर कर्तव्य से परे अपने 'मैं' से मिलना उससे कहना सुनना एक ख़ास हिस्सा होता है हमारा , जहाँ सोयी यादें , आगत की आहटें शक्ल लेती हैं .
ब्लॉग , संग्रह के प्रति सोच ने मुझसे 'अनमोल संचयन ' का संपादन करवाया और ३१ कवियों की श्रृंखला में संगीता जी भी थीं .... तो जनवरी २०१० प्रगति मैदान के बुक फेयर में हमारा मिलना हुआ हिन्दयुग्म के मंच पर . एक आत्मीयता , एक उत्साह और भविष्य में क्या करना है से भाव मुझे संगीता जी में मिले और वर्ष बीतते न बीतते मैंने उनकी साहित्यिक उड़ान देखी . चलिए अब उसके बारे में उनके शब्दों में हम उन्हें पढ़ें ---

मेरा जन्म ७ मई १९५३ में उत्तर प्रदेश के रुडकी शहर में हुआ था ..मेरे पिता उत्तर प्रदेश में इरिगेशन डिपार्टमेंट में कार्यरत थे .. समय समय पर स्थानांतरण होते रहते थे .जहाँ भी बाँध परियोजनाएं चलतीं थीं वही स्थानान्तरण हो जाता था ..प्राथमिक शिक्षा पहली से पांचवीं कक्षा तक रिहंद में हुई ..सरकारी स्कूल था . यहाँ तक कि पढाई टाट पट्टियों पर बैठ कर और तख्ती पर लिख कर पूरी की .. इतना समय माता पिता की स्नेह सिक्त छत्रछाया में बीता ... इसके पश्चात पापा का ट्रांसफर ऐसी जगह हो गया जहाँ कोई स्कूल नहीं था और दूर जाने के लिए कोई आवागमन का साधन भी नहीं उपलब्ध था ..यह जगह थी देहरादून से ३० किलोमीटर दूर ढालीपुर जगह जहाँ यमुना नदी पर बाँध बनाया जा रहा था ..पढ़ना ज़रुरी था और इतनी कम उम्र में हॉस्टल भेजना पापा को गवारा नहीं था तो हमें भेज दिया गया दादा जी के पास मेरठ शहर ... जहाँ रह कर हमने छठी से दसवीं तक की शिक्षा सेंट थॉमस गर्ल्स हाई स्कूल में पायी .. वहाँ रहते हुए ही जाना कि माता पिता के साथ रहने में और अन्य किसी रिश्तेदार के साथ रहने में कितना अन्तर होता है ..उस दौरान मेरा मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता था ..( वैसे कभी भी नहीं लगा ) इसी बीच दादाजी का निधन हो गया ..उनके जाने के बाद तो और भी वहाँ मन नहीं लगता था ..पापा का ट्रांसफर वहीं के आस पास के क्षेत्र ढालीपुर से ढकरानी और फिर डाकपत्थर होता रहा ... हाँ तब तक सरकार ने बच्चों को स्कूल तक पहुँचने के लिए बस उपलब्द्ध करा दी थी ... तो दसवीं के बाद हमने भी ग्यारहवीं और बारहवीं की परीक्षा माता पिता के साथ रह कर दी ..उसके बाद फिर समस्या आ गयी की डिग्री कॉलेज कोई नहीं था आस -पास ...तो फिर भेज दिया गया हमें चाचा जी चाचीजी के पास मेरठ ..पापा को यह गवारा नहीं था कि घर होते हुए हमें हॉस्टल में रख कर पढाया जाये ..तो पापा का आदेश मान रह लिए मन मार कर और ले लिया बी० ए० में प्रवेश रघुनाथ गर्ल्स डिग्री कॉलेज में ..उस समय मेरठ यूनिवर्सिटी में सेमेस्टर सिस्टम था .. इसी कॉलेज में मेरी मामी जी मनोविज्ञान विभाग में लेक्चरर थीं ..शायद उन्होंने ही मेरी मनोदशा को पढ़ा और समझा ..और उनके आग्रह
पर ही पापा ने दूसरे सिमेस्टर में मुझे हॉस्टल भेज दिया ..और यही मेरी ज़िंदगी का एक टर्निंग पौइंट था .. इस समय तक मैं बहुत दब्बू किस्म की लडकी हुआ करती थी ..कभी भी स्कूल के किसी भी कार्यक्रम में कभी भाग नहीं लिया ..बस घर से कॉलेज और कॉलेज से घर ...
लेकिन हॉस्टल में रहने के बाद ही मैं समझ पायी कि व्यक्तित्व के विकास के लिए हॉस्टल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ..
वहाँ रहते हुए कॉलेज के सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेना , अभिनय में प्रथम पुरस्कार पाना , मेरठ यूनिवर्सिटी की टेबल टेनिस टीम में चयन और एम० ए० फाईनल तक आते आते टीम की कैप्टन बनना ..और १९७३-७४ में यू ० पी० टेबल टेनिस चैम्पियन शिप जीतना मेरी उपलब्धि माना जा सकता है ..यही वह समय था जब लिखने में भी मेरा रुझान हुआ .. उस समय लडकियों की पढ़ाई का मकसद कोई कैरियर बनाना नहीं हुआ करता था ... ज्यादातर माता - पिता की सोच होती थी कि बेटी की शादी अच्छे पढ़े लिखे लडके से हो जायेगी ..कोई डॉक्टर या इंजीनियर लड़का मिल जायेगा ...खैर न न करते हुए बी० एड ० भी कर लिया .. और पढ़ाई की बदौलत १९७६ में एक अदद इंजिनियर से विवाह भी हो गया :):) .और मैं पहुँच गयी खेतड़ी नगर ( राजस्थान ) यहाँ मेरे पति हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड में कार्यरत थे ...

ज़िंदगी जीते जीते बस यही अनुभव हुआ कि ज़िंदगी समझौतों का नाम है ..हर एक को कुछ समझौते तो करने ही पड़ते हैं अब चाहे वो पुरुष हो या स्त्री ...यह बात और है कि स्त्री को ज्यादा करने पड़ते हैं ..इन्हीं समझौते के तहत ज़िंदगी गुज़रती गयी ..लिखने का शौक मृतप्राय: हो गया था ..क्रमश: १९७८ और १९८० में एक बेटे और एक बेटी की माँ बनने का गौरव भी मिला ..अब दोनों बच्चे अपनी अपनी घर गृहस्थी संभाल रहे हैं ... खेतड़ी नगर रहते हुए ही १९८४ -८५ से केंद्रीय विद्यालय में शिक्षिका के पद पर भी कार्य किया ..लेकिन पति के २००० में कोलकता स्थानान्तरण हो जाने के कारण मैंने अपनी नौकरी त्याग दी ... क्यों कि मेरा ट्रांसफर नहीं हो पा रहा था ..कारण ... बिना रिश्वत के कहीं बात नहीं बनती ...पहुँच होनी चाहिए ..रास्ते पता होने चाहिए ..जिनसे मैं तो बिल्कुल अनभिज्ञ थी ... खैर ... उसका मुझे कोई अफ़सोस नहीं है क्यों कि नौकरी छोडने का निश्चय मेरा ही था .. लेकिन अध्यापिका के रूप में बिताये समय मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा ...कोलकता से २००१ में फिर ट्रांसफर हो गया घाटशिला ( झारखंड ) २००५ तक वहाँ रहने के बाद फिर २ साल कोलकता में बिताये और २००७ में पति डायरेक्टर के पद से सेवानिवृत हुए ... और हम २००७ से आ कर दिल्ली में बस गए ... यहाँ आ कर फिर से लेखन की तरफ ध्यान गया ..देखा जाए तो इंसान को जो चाहिए वो सब मुझे खूब और भरपूर मिला है ..पर कहीं कुछ ऐसा है जो अक्सर मन को झकझोर देता है और यही छटपटाहट मेरी लेखनी में उतर आती है ..
२००७ से अंतरजाल से जुडने के बाद बहुत से अच्छे लोगों से मुलाक़ात हुई ... लोगों ने मेरे लिखे को सराहा ..प्रोत्साहित किया और ब्लॉगिंग की वजह से शून्यता भी मेरे जीवन में घर नहीं कर सकी ...इसके लिए मैं ब्लॉग जगत और ब्लॉगर साथियों का आभार व्यक्त करती हूँ ..
तो यही था बचपन से अब तक का सफर

प्रकाशित पुस्तक -- उजला आसमां

ब्लॉग्स --- http://geet7553.blogspot.com/


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{निर्भीक निडर का फर्क http://sameekshaamerikalamse.blogspot.com/2011/06/blog-post_20.html}


एक टिप्पणी के सन्दर्भ में , जिसे मैंने पढ़ा


पत्रकार निर्भीक होता है जो निर्भीक लिखता है, निडर रहता है .... भाव सूक्ष्म परिवर्तित हो जाते हैं
जैसे यह वाक्य - 'मतदाताओं से अपील की है कि वे निर्भीकनिडर होकर अपने घरों से मतदान केन्द्रों के लिए निकलें। ...'
'वह बड़ी निडरता से राजा के पास चला गया और राजा ने जब उससे सवाल पूछा कि तुमने मेरे महल के नियमों का उल्लंघन क्यूँ किया तो उसने निर्भीकता से जवाब दिया ...'निर्भीक ... पूरी तरह से भयमुक्त और निडर यानि जिसे डर न लगे . भय व्यापक रूप में समाहित है .एक बाह्य अभिव्यक्ति है एक आत्मिक - बस यही सूक्ष्म फर्क है !
वैसे ...क्या आलोचना करने से ज्यादा सही यह बात नहीं कि उसे कहा जाए कि यह गलत है... अब जब मैंने यह ब्लॉगhttp://sameekshaamerikalamse.blogspot.com/ बनाया तो टाइप करने में शख्स की जगह शक्स लिखा तो संगीता स्वरुप जी ने कहा ,' कृपया इसे देख लें .....' बताना तो विनम्रता ही है न ,
और यूँ गलती किससे नहीं होती , एक रूचि के होकर हम एक दूसरे का साथ दें तो बेहतर है .

मंगलवार, 21 जून 2011

मासूमियत में मासूम आक्रोश और मासूम दृढ़ता (वाणी शर्मा )



वाणी शर्मा ... कब मिलीं , किस तरह पहचान बनी , कितनी अपनी लगीं , कितनी परायी ...... ऐसा कुछ भी तो
याद नहीं , बस याद है वह तारीख जब मैंने उनको पढ़ा 'गीत मेरे' पर 'ज़िन्दगी मुझसे यूँ मिली ; ' के माध्यम से और
इन पंक्तियों ने मुझसे कहा - 'फिर आना'
ज़िन्दगी पहले न लगी इतनी भली
जब तलक उससे मैं मैं बनकर न मिली ....(११ अप्रैल २०१० ,) ज़िन्दगी से मैं बनकर मिलना यानी खुद्दारी के लिबास में
--- मुझे बहुत अच्छा लगा और मैंने वादा किया ... जब जब शब्द मुझे आवाज़ देंगे , मैं आउंगी .....
ब्लॉग का परिचय अनदेखा विस्तार पाने लगा और मैंने पाया कि जंजाल से वह कोसों दूर रहना पसंद करती हैं और शालीनता
पहनावे में ही नहीं, कुछ भी पूछने में है ..... यह भी याद नहीं, कब मैं आप से तुम पर आ गई ! पर सारी स्वभाविकता में मैंने
एक लेखिका का सम्मान बनाये रखा . एक बार मेरी दी गई टिपण्णी पर उन्होंने पूछा ' वाणी जी क्यूँ लिखा ' ... मैंने उतनी ही सहजता से
बताया कि 'ब्लॉग पर तुम्हारी एक अलग छवि है और यह 'जी' उस छवि का सम्मान है ' किसी छोटे बच्चे की तरह उन्होंने एक सहज मुस्कान
बनाकर भेज दिया .
'मासूमियत में मासूम आक्रोश और मासूम दृढ़ता' आपके अन्दर इस शीर्षक से कई प्रश्न सर उठा रहे होंगे , वाणी जी के अन्दर भी सवाल
होंगे ... तो खुलासा करूँ . 'वटवृक्ष' के प्रथम अंक में उनके परिचय में उनकी बेटी का परिचय पता नहीं कैसे गडमड होकर छप गया और उन्होंने
अहले सुबह मेरे मेल की शिकायत पेटी में शिकायत लिखकर भेजा ... मैंने लिखा ' हाहाहा , देखा मैंने ' तो झट से गोली चली - 'आपको हंसी आ
रही है , मुझे गुस्सा ' मुझे यह अधिकार भरा ढंग बहुत अच्छा लगा और मेरे यह कहते कि आरंभिक कदम में गलतियां हो जाती हैं , वे शांत हो गईं
........... इसे मासूम आक्रोश ही कहेंगे न !
अब आऊं मासूम दृढ़ता पर - तो उसकी व्याख्या ज़रूरी नहीं , पर अनचाहे को परे करने की दृढ़ता उनमें है और बड़ी शालीनता और मासूमियत
भरे लहजे में . ये तो मेरी कलम की बातें थीं , अब वाणी शर्मा को एक पहचान के रूप में उसी ढंग से कहना चाहूंगी ---
वाणी शर्मा
शिक्षा ...एम .ए. ...
रुचियाँ ...पढना , पर्यटन , संगीत , बागवानी आदि

प्रकाशित ... हिंदी ब्लॉगिंग से शुरू हुआ लेखन का सफ़र अब पत्र -पत्रिकाओं तक पहुँचने लगा है ...डेली न्यूज़ , हिंदी ब्लॉगिंग "अभिव्यक्ति की नई क्रांति" , वटवृक्ष , अनुगूँज आदि ..

इनके ब्लॉग ... ज्ञानवाणी
और गीत मेरे...


सामूहिक ब्लॉग्स
" कबीरा खड़ा बाज़ार में
", परिचर्चा
, पिताजी
, नारी
, प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ
पर भी सदस्य हूँ ...

वाणी के शब्दों में -
वाणी ...प्रकृति द्वारा रचित अनूठे वृहद् संसार में अकिंचन बूँद -सी जिसे जीने को , कुछ नया सीखने को एक जन्म कम ही लगता है ...अपने अस्तित्व को तलाशते शब्दों के अथाह संसार से कुछ शब्द चुन कर उन्हें करीने से लगाने का प्रयास करते हुए साधारण में असाधारण होने की सम्भावना रखती एक गृहिणी .... जब तक जीवन है, हौसलों की उन्मुक्त उड़ान है और मैं हूँ ...

बचपन से अब तक का सफ़र

जन्म सितम्बर 1965, हैदराबाद में हुआ .....शिक्षा बिहार और राजस्थान में हुई .....ज्ञानवान जिम्मेदार पति से विवाह के पश्चात गृहिणी और दो बहुत प्यारी बेटियों की माँ होने का उत्तरदायित्व निभाते हुए परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर स्कूल में पढ़ाने , कंप्यूटर सिखाने , अपनी पत्रिका का लेखन व संपादन से लेकर गिफ्ट शॉप तक सँभालने का हर कार्य किया ...अब तक सफलता और असफलता का चोली -दामन सा साथ जीवन भर रहा है ...

पारंपरिक परिवार की बेटी और बहू होने तथा परम्पराओं का पालन करते हुए भी रूढ़ियों को जस का तस नहीं मानती हूँ ... प्यार ,सम्मान और नफरत, उपेक्षा समान प्रतिशत में झेली है ... जीवन के सफ़र में हर तरह के लोगों से वास्ता पड़ा ...बेवजह ईर्ष्या, द्वेष पालने वाले भी मिले तो बेइंतहा प्यार और सम्मान देने वाले भी ...अपने आस- पास उस ईश्वर की उपस्थिति को हमेशा महसूस करती हूँ ...उसकी असीम कृपा रही है , हर असफलता के बाद भी हार नहीं मानने के अवसर प्रदान कर देता है ....

सोमवार, 20 जून 2011

निर्भीक , निडर , संतुलित (रश्मि रविजा )



रश्मि रविजा ... बस कुछ फर्क और एक नाम एक अर्थ यानि मैं भी रश्मि और वो भी . फर्क ये कि मैं भावनाओं का सार लेती हूँ , रश्मि रविजा उसकी व्याख्या करती हैं , जहाँ एक कवि को लोग कई बार अबूझ निगाहों से देखते हैं वहाँ कहानीकार सबकुछ स्पष्ट करता है .. मेरी कलम रश्मि जी के करीब तब आई जब उनकी कहानियों का सम्मोहन मुझे कभी मुट्ठी भर पारले की तरह बुलाता , कभी भागीरथ की तरह , कभी ओस की मानिंद , तो कभी संवेदित पुकार की तरह ....मुझे रश्मि जी एक निर्भीक , निडर , संतुलित , स्पष्ट महिला लगीं .... मित्रता अपनी जगह , सच अपनी जगह . स्वाभिमान की निर्द्वंद अग्नि .... कहानी के कई पात्रों की गुप्त परतें .

अपनी कलम की यात्रा में सामनेवाले शक्स को भी मैंने पूरा पूरा मौका दिया है सहयात्री बनने का , क्योंकि खुद की पहचान अपनी कलम से मायने
रखती हैं हैं और यह भी तय है कि एक ख़ास मंच पर स्व पंच परमेश्वर होता है .
तो इसकी निष्पक्ष भूमिका में हम रश्मि जी को उनसे जानें -

"जब से समझ आई किताबों का साथ पाया....नन्दन,पराग,चंदामामा से गुजरते हुए धर्मयुग,हिन्दुस्तान,सारिका तक पहुंची...हिंदी -कहानी उपन्यास का पठन भी शुरू हो गया...जाहिर था..इतना पढ़ते-पढ़ते लिखने की इच्छा भी जागी. किसी भी सामयिक घटना पर मेरे मन की त्वरित प्रतिक्रिया होती...और धीरे-धीरे ये प्रतिक्रिया कब शब्दों का रूप ले..पत्रिकाओं में छपने लगी...पता भी नहीं चला...सोलह साल की उम्र से धर्मयुग..साप्ताहिक हिन्दुस्तान,मनोरमा जैसी पत्रिकाओं में आलेख छपने लगे..

पर लेखन को आजीविका बनाने का ख्याल तब भी नहीं था. बारहवीं में 'गणित' लिया था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहती थी...पर उन दिनों लड़कियों को ज्यादातर इंजीनियरिंग वगैरह की शिक्षा का प्रचलन नहीं था...सो बी.ए. में विज्ञान का 'पल्लू' छोड़ 'कला' का दामन थाम लिया. विषय लिया 'राजनीति शास्त्र' . अब लक्ष्य बदल गया था और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहती थी. राजनीति शास्त्र में ही एम.ए भी किया और लगन से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगी थी .
इसी बीच टाइम्स ऑफ इण्डिया में एक विज्ञापन देख ' ट्रेनी जर्नलिस्ट' के लिए आवेदन किया था...लिखित परीक्षा उत्तीर्ण भी कर ली थी...कि शादी तय हो गयी. शादी की तैयारियों में इंटरव्यू का डेट निकल गया...किसी को ध्यान ही नहीं रहा.
उन दिनों टेलीफोन और नेट की सुविधा नहीं थी. पत्र का ही सहारा था. जब पहली बार ससुराल से लौटी तो पता चला...टाइम्स ऑफ इण्डिया से पत्र आया था...पर इंटरव्यू का डेट बीत चुका था..

शादी के बाद दिल्ली आ गयी और गृहस्थी और दो पुत्रों की देखभाल में लगी रही. पिछले पंद्रह साल से मुंबई में हूँ. लिखना तो छूट गया था पर पढना जारी रहा. इतने दिनों में शायद ही अंग्रेजी की कोई मशहूर किताब ना पढ़ी हो.
पेंटिंग भी चलती रही...फैब्रिक, ग्लास, निब...हर तरह की पेंटिंग करती हूँ ..पर ख़ास रूचि आयल पेंटिंग में है.
पिछले कुछ सालों से मुंबई आकाशवाणी से जुड़ी हुई हूँ..जहाँ से कहानियाँ और वार्ताएं प्रसारित होती हैं. बच्चों की एक संस्था 'हमारा फुटपाथ' के लिए भी काम करती हूँ.जहाँ 'स्ट्रीट चिल्ड्रेन ' को एक अच्छी जिंदगी जीने की राह दिखाने की कोशिश की जाती है.

2009 सेप्टेम्बर में ब्लॉग जगत में शामिल हुई और यहाँ कुछ इतनी रम गयी हूँ...कि अब पत्र-पत्रिकाओं..अखबारों में लिखने के आमंत्रण मिलते रहते हैं...पर सारा समय ब्लॉग्गिंग ही ले लेता है...और संतुष्टि भी यहीं मिल जाती है. बस एक दुविधा है.. मेरे अंदर के पत्रकार और कहानी की आत्मा में लगातार संघर्ष चलता रहता है...और स्पष्ट नहीं हो पाता कि किसे मुझे ज्यादा तरजीह देनी चाहिए या किसका वर्चस्व होना चाहिए. :(

यही कह सकती हूँ कि जिंदगी, जैसी भी मिली है..जिस रूप में मिली है...उसके हर रूप से प्यार है..कोई शिकायत नहीं.
भरपूर जीवन जीने की तमन्ना और कोशिश रहती है. बस जिंदगी से मीठा-मीठा हप्प और कड़वा -कड़व थू :)
परिवार-रिश्तेदार-मित्र...आप सबका प्यार भरा साथ हो...और दिन गुजरते रहे...और हम कह सकें

"दिन सलीके से उगा...रात ठिकाने से रही...
दोस्ती कुछ रोज़ हमारी भी जमाने से रही " {हर रोज़ :)}

रविवार, 19 जून 2011

कभी अमृता कभी इमरोज़ कभी बादल (रंजू भाटिया )






ब्लॉग की दुनिया में मेरी पहली आकर्षण `रंजू भाटिया रहीं और उनको पढ़ते हुए मैं उनकी ऑरकुट मित्र भी बन गई . 'प्यार के एक पल ने जन्नत दिखा दिया , प्यार के उसी पल ने मुझे ता -उमर रुला दिया - एक नूर की बूँद की तरह पीया हमने उस पल को ,एक उसी पल ने हमे खुदा के क़रीब ला दिया !!' इन पंक्तियों में मुझे अमृता मिलीं ,जिसकी कलम में इमरोज़ से रंग थे . कैनवस अमृता के थे , पन्ने पर नाम अमृता का था पर अक्षर अक्षर रंजना जी के थे . एहसासों पर किसी की मल्कियत नहीं होती , हाँ पिरोये शब्दों पर उस ख़ास का नाम होता है, जो पिरोता है , पर पिरोये गए फूलों की ताजगी जो बरकरार रखता है , फूल उसके हो जाते हैं .
उनकी एक रचना ...

'
कविता में उतरे
यह एहसास
ज़िन्दगी की टूटी हुई
कांच की किरचें हैं
जिन्हें महसूस करके
मैं लफ्जों में ढाल देती हूँ
फ़िर सहजती हूँ
इन्ही दर्द के एहसासों को
सुबह अलसाई
ओस की बूंदों की तरह
अपनी बंद पलकों में
और अपने अस्तित्व को तलाशती हूँ
पर हर सुबह ...........
यह तलाश वही थम जाती है
सूरज की जगमगाती सी
एक उम्मीद की किरण
जब बिंदी सी ......
माथे पर चमक जाती है
एक आस ,जो खो गई है कहीं
वह रात आने तक
जीने का एक बहाना दे जाती है... ....

.' जिसके करीब आकर मैंने सोचा , क्यूँ पूर्णता में भी तलाश रह जाती है शेष ! मेरी सोच कहती है कि अपूर्ण वह व्यक्ति है जो झुककर नहीं मिलता . अहम् के कीड़े उसे इस तरह ख जाते हैं कि शक्ल नहीं पहचान में आती . रंजना जी में मैंने बिना किसी तर्क कुतर्क के सहजता देखी और निःसंदेह यह सहजता उनकी विरासत है, उनकी पहचान है , उनकी लेखनी है , उनकी मुस्कुराहट है !

मेरी कलम के बाद उनके शब्दों से रूबरू होने का वक़्त है , जो मेरी कलम को प्रमाणित करेगा ....

'नाम --रंजना (रंजू )भाटिया

जन्म--- १४ अप्रैल १९६३
शिक्षा-- बी .ऐ .बी .एड
पत्रकारिता में डिप्लोमा

अनुभव ---१२ साल तक प्राइमरी स्कूल में अध्यापन
दो वर्ष तक दिल्ली के मधुबन पब्लिशर में काम जहाँ प्रेमचन्द के उपन्यासों और प्राइमरी हिंदी की पुस्तकों पर काम किया सम्राट प्रेमचंद के उपन्यासों की प्रूफ़-रीडिंग और एडीटिंग का अनुभव प्राप्त हुआ।

प्रकाशन -- प्रथम काव्य संग्रह "साया" सन २००८ में प्रकाशित
दैनिक जागरण ,अमर उजाला ,नवभारत टाइम्स ऑनलाइन भाटिया प्रकाश मासिक पत्रिका, हरी भूमि ,जन्संदेश लखनऊ आदि में लेख कविताओं का प्रकाशन ,हिंदी मिडिया ऑनलाइन ब्लॉग समीक्षा

लेखन --कविता नारी ,सामाज विषयक लेखन के साथ बाल साहित्य लिखने में विशेष रूचि वह नियिमत रूप से लेखन जारी है इन्टरनेट के माध्यम से हिंदी से लोगों को जोड़ने तथा हिंदी में लिखने के लिए प्रोत्सहित करने में विशेष रूचि फिलहाल कई ब्लॉग पर नियमित लेखन अपना ब्लॉग कुछ मेरी कलम से बहुत लोकप्रिय है इस ब्लॉग को अहमदाबाद टाइम्स और इकनोमिक टाइम्स ने विशेष रूप से कवर किया है| दीदी की पाती बाल उद्यान में बहुत लोकप्रिय रहा है और जन्संदेश लखनऊ में यह नियमित रूप से पब्लिश हो रहा है | इ पत्रिका साहित्य कुञ्ज पर लेखन और वर्ड पोएटिक सोसायटी की सदस्य

उपलब्धियां :
2007 तरकश स्वर्ण कलम विजेता
२००९ में वर्ष की सर्व श्रेष्ठ ब्लागर

२००९ में बेस्ट साइंस ब्लागर एसोसेशन अवार्ड

२०११ में हिंद युग्म शमशेर अहमद खान बाल साहित्यकार सम्मान


रियाणा के एक कस्बे कलानौर जिला रोहतक .पहली संतान के रूप मे मेरा जन्म हुआ १४ अप्रैल १९६३ माँ पापा ने नाम दिया रंजू | पहली संतान होने के कारण मम्मी पापा की बहुत लाडली थी | और बहुत शैतान भी |र मे पढ़ाई का बहुत सख्त माहौल था | होना ही था जहाँ नाना , नानी प्रिंसिपल दादा जी गणित के सख्त अध्यापक हो वहां गर्मी की छुट्टियों मे भी पढ़ाई से मोहलत नही मिलती थी| साथ ही दोनों तरफ़ आर्य समाज माहोल होने के कारण उठते ही हवन और गायत्री मन्त्र बोलना हर बच्चे के लिए जरुरी था |

जब माँ थी तो वह कई बार हमें "हरिवंश राय बच्चन "की कविता का वह अंश लोरी के रूप मे सुनाती थी "जो बीत गई वह बात गई ..जीवन मे एक सितारा था ..माना वह बेहद प्यारा था " ..वह कविता दिलो दिमाग में ऐसी बसी कि अब तक प्रेरणा देती है | शिवानी और अमृता प्रीतम की किताबों से पढने का शौक बारह साल की उम्र से ही पैदा हुआ और फ़िर अमृता को पढने का जो नशा उस वक़्त चढ़ा वह अब तक नही उतरा ..तभी से ही निरंतर लिखने का सिलसिला भी चल पड़ा |अभी कालेज कि पढाई भी पूरी नहीं हुई थी कि विवाह हो गया शादी के बाद बी एड किया और एक स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू किया कुछ साल बाद लेखन का काम अधिक रुचने लगा तो वही कम अब तक निरंतर जारी है

शुक्रवार, 17 जून 2011

समय की नायाब पकड़ (रवीन्द्र प्रभात )





रवीन्द्र प्रभात से मेरी कलम की मुलाकात 2010 के परिकल्पना उत्सव में हुई - समय के रूप में ,...............
"मैं समय हूँ , मैंने देखा है वेद व्यास को महाभारत की रचना करते हुए , आदिकवि वाल्मीकि ने मेरे ही समक्ष मर्यादापुरुषोत्तम की मर्यादा को अक्षरों मेंउतारा...सुर-तुलसी-मीरा ने प्रेम-सौंदर्यऔर भक्ति के छंद गुनगुनाये, भारतेंदु नेकिया शंखनाद हिंदी की समृद्धि का.निराला ने नयी क्रान्ति की प्रस्तावना की,दिनकर ने द्वन्द गीत सुनाये और प्रसादने कामायनी को शाश्वत प्रेम का आवरणदिया .....!

मैं समय हूँ, मैंने कबीर की सच्ची वाणी सुनी है और नजरूल की अग्निवीणा के स्वर. सुर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करने वाली महादेवी को भी सुना है और ओज को अभिव्यक्त करने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान को भी, मेरे सामने आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री की राधा कृष्णमय हो गयी औरमेरे ही आँगन में बेनीपुरी की अम्बपाली ने पायल झनका कर रुनझुन गीत सुनाये ....!

मैं समय हूँ, मेरे ही सामने पन्त ने कविता को छायावाद का नया विम्ब दिया, अज्ञेय और नागार्जुन ने मेरीपाठशाला में बैठकर कविता का ककहरा सीखा , मुक्तिबोध और धूमिल ने गढ़ा नया मुहावरा हिंदी का,केदारनाथ सिंह ने किये नयी कविता के माध्यम से हिंदी का श्रृंगार और नामवर ने दिए नए मिथक, नएबिंब हिंदी को. मेरे ही सामने नीरज ने गाये प्रणय के गीत और अमृता ने रची प्रणय की कथा ....!"
समय के इस अदभुत संचालन ने मेरी कल्पनाओं के लिए रंगों का अम्बार लगा दिया और मैं समय के रंगमंच पर दौड़ने लगी . मैंने सुना है, आपने भी सुना ही होगा कि एक राजा था, वह जिस चीज पर हाथ रखता वह सोना हो जाता उसी प्रकार रवीन्द्र प्रभात जी ने जिधर भी दृष्टि घुमाई हिंदी साहित्य को गरिमायुक्त कर दिया -
अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि मैं यह कहूँ कि साहित्य के आह्वान में बढ़ते क़दमों को इन्होंने मजबूत मंच दिया है बिना किसी आवेश
के . चक्रव्यूह तो बहुत बने , पर इन्होंने सारथी के सार को दुहराया है और साहित्य को गरिमायुक्त किया है .
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रवीन्द्र प्रभात जन्म साठ के दशक पूर्व 05 अप्रैल को महींदवारा गाँव, सीतामढ़ी जनपद बिहार के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ । इनका मूल नाम रवीन्द्र कुमार चौबे है । इनकी आरंभिक शिक्षा सीतामढ़ी में हुई। बाद में इन्होंने बिहार विश्वविद्यालय से भूगोल विषय के साथ विश्वविद्यालयी शिक्षा ग्रहण की।

बचपन में दोस्तों के बीच शेरो-शायरी के साथ-साथ तुकबंदी करने का शौक था .इंटर की परीक्षा के दौरान हिन्दी विषय की पूरी तैयारी नहीं थी, उत्तीर्ण होना अनिवार्य था . इसलिए मरता क्या नहीं करता .सोचा क्यों न अपनी तुकवंदी के हुनर को आजमा लिया जाए . फिर क्या था आँखें बंद कर ईश्वर को याद किया और राष्ट्रकवि दिनकर, पन्त आदि कवियों की याद आधी-अधूरी कविताओं में अपनी तुकवंदी मिलाते हुए सारे प्रश्नों के उत्तर दे दिए . जब परिणाम आया तो अन्य सारे विषयों से ज्यादा अंक हिन्दी में प्राप्त हुए थे . फिर क्या था, हिन्दी के प्रति अनुराग बढ़ता गया और धीरे-धीरे यह अनुराग कवि-कर्म में परिवर्तित होता चला गया ....

जीवन और जीविका के बीच तारतम्य स्थापित करने के क्रम में इन्होने डिग्री कॉलेज में अध्यापन का कार्य भी किया, पत्रकारिता भी की तथा प्राससनिक दायित्वों का निर्वहन भी किया । नब्बे के दशक में स्थानीय स्तर पर इन्होने साहित्य साधना और काव्य साधना की शुरुआत की ,किन्तु पत्रकारिता में इनकी संलग्नता को धार मिला वरिष्ठ पत्रकार श्री नरेंद्र कुमार के सान्निध्य में आने के बाद । ये स्थानीय स्तर पर नरेन्द्र जी के संपादकत्व में प्रकाशित तब के लोकप्रिय समाचार पत्र खोजबीन (पाक्षिक) सहित तत्कालीन विभिन्न समाचार पत्रों में स्वतंत्र लेखन से प्रमुखता के साथ जुड़े रहे ।

वर्ष-१९८९ में १८ मई को ये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सत्याग्रह स्थली से कुछ दूर स्थित डुमरा निवासी माला के साथ परिणय सूत्र में बंधे । विवाह बंधन में बंधने के बाद इनकी लेखनी को धार देने का कार्य इनकी धर्मपत्नी ने किया । उनके प्रेरित करने पर ही वर्ष-१९९१ में इनकी ग़ज़लों का पहला संग्रह "हमसफ़र " प्रकाशित हुआ । अपने पहले संग्रह से ही ये चर्चित हुए और आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री, राम दयाल पाण्डेय आदि साहित्य के शलाका पुरुषों के सान्निध्य में आये । उस समय के चर्चित समाचार पत्र आर्यावर्त के संपादक मार्कंडेय प्रवासी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निदेशक महेंद्र यादव,नवगीतकार राम चन्द्र चंद्रभूषण,हृदयेश्वर, पाण्डेय आशुतोष आदि अनेक हस्ताक्षरों से इनकी निकटता बढ़ी और ये अचानक साहित्य की मुख्य धारा में आ गए । इन्हें वहुचर्चित साहित्यिक संस्था "काव्य संगम" के प्रकाशन सचिव बनाए गए और इनके संयोजन-समन्वयन में सीतामढ़ी के तात्कालीन ए डी एम और साहित्यकार श्री राम दुबे ने तात्कालीन कवियों का एक काव्य संकलन "मौन के स्वर" का संपादन किया ।

वर्ष-१९९२ में सीतामढ़ी में एक बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ और शहर कई दिनों तक कर्फ्यू के चपेट में रहा । इन्होने काव्य संगम से जुड़े साहित्यकारों को संगठित कर सांप्रदायिक दंगे के दावानल को शांत करने में अहम् भूमिका निभायी,जिसके लिए जिला प्रसाशन के अनुमोदन पर बिहार सरकार ने इन्हें और इनकी संस्था काव्य संगम को वर्ष-१९९२ में सम्मानित किया ।

श्री प्रभात "अन्तरंग" संस्था के माध्यम से साहित्यिक,सांस्कृतिक व सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहे हैं । तब के बिहार शिक्षा परियोजना के वातावरण निर्माण व लोक भागीदारी उप-समिति के बाल मेला के आयोजन व विभागीय पत्रिका "भोर" के प्रकाशन से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे । इसी वर्ष ५ जून को इन्हें प्रथम पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई , घर में खुशियों का माहौल था । इसी दौरान राष्ट्रीय कवि सम्मलेन में हिस्सा लेने आये आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री और राम दयाल पांडे जी इनके आवास पर पधारे । आचार्य जी को जब यह पता चला कि इस घर में एक लक्ष्मी का आगमन हुआ है तो उन्होंने उसे गोद में लेते हुए कहा कि -" ये प्रभात की प्रथम रश्मि है इसे रश्मि कहकर बुलाना ....!" तबतक इन्होने उसका नाम उर्विजा रख दिया था इसलिए उसे दोनों नाम प्राप्त हुए ।

इन्होने इसी वर्ष से बिटीया "उर्विजा" के नाम पर एक अनियतकालिक पत्रिका का संपादन शुरू किया , साथ ही हास्य-व्यंग्य की वार्षिकी "फगुनाहट" का भी । इसी दौरान इन्होने हिंदी मासिक "संवाद" तथा "साहित्यांजलि" का विशेष संपादन भी किया । इसी दौरान राष्ट्रीय सहारा के जिला संवाददाता और अपने अन्तरंग मित्र राजीव कुमार के साथ मिलकर 'ड्वाकरा' की टेली डक्यूमेंटरी फ़िल्म 'नया विहान' का निर्माण किया जिसके ये पटकथा लेखक थे ।

विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ-साथ 1995 में 'समकालीन नेपाली साहित्य'( संपादित), 1999 में 'मत रोना रमज़ानी चाचा' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित हुआ ।. लगभग दो दर्ज़न सहयोगी संकालनों में रचनाएँ संकालित हुई । वर्ष 2002 में स्मृति शेष ( काव्य संग्रह) कथ्यरूप प्रकाशन इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित हुआ । इन्होने लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है परंतु व्यंग्य, कविता और ग़ज़ल लेखन में प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। इनकी रचनाएँ भारत तथा विदेश से प्रकाशित लगभग सभी प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इनकी कविताएँ चर्चित काव्य संकलनों में संकलित की गई हैं।

वर्ष-२००६ में जियोसिटीज डोट कॉम के माध्यम से ये हिंदी ब्लॉग जगत से जुड़े , किन्तु ब्लागस्पाट के माध्यम से इनका हिंदी ब्लॉगजगत से जुड़ाव हुआ जून-२००७ में । इनका पहला ब्लॉग है http://parikalpnaa.blogspot.com/ जो ठहाका वाले बसंत आर्य के सहयोग से इन्हेने बनाया, बाद में इन्होने इसे डोमेन पर यानी (www.parikalpnaa.com/)डोट कॉम पर शिफ्ट कर दिया ।

जनसंदेश टाईम्स (०१ मार्च २०११ ) के अनुसार -
“रवीन्‍द्र प्रभात ब्‍लॉग जगत में सिर्फ एक कुशल रचनाकार के ही रूप में नहीं जाने जाते हैं, उन्‍होंने ब्‍लॉगिंग के क्षेत्र में कुछ विशिष्‍ट कार्य भी किये हैं। वर्ष 2007 में उन्‍होंने ब्‍लॉगिंग में एक नया प्रयोग प्रारम्‍भ किया और ‘ब्‍लॉग विश्‍लेषण’ के द्वारा ब्‍लॉग जगत में बिखरे अनमोल मोतियों से पाठकों को परिचित करने का बीड़ा उठाया। 2007 में पद्यात्‍मक रूप में प्रारम्‍भ हुई यह कड़ी 2008 में गद्यात्‍मक हो चली और 11 खण्‍डों के रूप में सामने आई। वर्ष 2009 में उन्‍होंने इस विश्‍लेषण को और ज्‍यादा व्‍यापक रूप प्रदान किया और विभिन्‍न प्रकार के वर्गीकरणों के द्वारा 25 खण्‍डों में एक वर्ष के दौरान लिखे जाने वाले प्रमुख ब्‍लागों का लेखा-जोखा प्रस्‍तुत किया। इसी प्रकार वर्ष 2010 में भी यह अनुष्‍ठान उन्‍होंने पूरी निष्‍ठा के साथ सम्‍पन्‍न किया और 21 कडियों में ब्‍लॉग जगत की वार्षिक रिपोर्ट को प्रस्‍तुत करके एक तरह से ब्‍लॉग इतिहास लेखन का सूत्रपात किया।

ब्‍लॉग जगत की सकारात्‍मक प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के उद्देश्‍य से अभी तक जितने भी प्रयास किये गये हैं, उनमें ‘ब्‍लॉगोत्‍सव’ एक अहम प्रयोग है। अपनी मौलिक सोच के द्वारा रवीन्‍द्र प्रभात ने इस आयोजन के माध्‍यम से पहली बार ब्‍लॉग जगत के लगभग सभी प्रमुख रचनाकारों को एक मंच पर प्रस्‍तुत किया और गैर ब्‍लॉगर रचनाकारों को भी इससे जोड़कर समाज में एक सकारात्‍मक संदेश का प्रसार किया।”

हिंदी के मुख्य ब्लॉग विश्लेषक के रूप में चर्चित रवीन्द्र प्रभात विगत ढाई दशक से निरंतर साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखनरत हैं ! इनकी रचनाएँ भारत तथा विदेश से प्रकाशित लगभग सभी प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा उनकी कविताएँ लगभग डेढ़ दर्जन चर्चित काव्य संकलनों में संकलित की गई हैं।इन्होनें सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है परंतु व्यंग्य, कविता और ग़ज़ल लेखन में इनकी प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। लखनऊ से प्रकाशित हिंदी "दैनिक जनसंदेश टाइम्स" के ये नियमित स्तंभकार हैं, व्यंग्य पर आधारित इनका साप्ताहिक स्तंभ "चौबे जी की चौपाल " काफी लोकप्रिय है ! इनके द्वारा विगत चार वर्षों से हिंदी चिट्ठों का विहंगम विश्लेषण किया जा रहा है, जिसके परिप्रेक्ष्य में इन्हें "संवाद सम्मान" से वर्ष-२००९ में सम्मानित किया जा चुका है ! इनका एक और संपादित पुस्तक "अभिव्यक्ति की नई क्रान्ति :हिंदी ब्लॉगिंग" अभी हाल में प्रकाशित हुई है ! ये साहित्यिक संस्था "काव्य संगम" के प्रकाशन सचिव,"लख़नऊ ब्लॉगर एसोसिएशन" के अध्यक्ष तथा "प्रगतिशील बज्जिका लेखक संघ" के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं । वर्त्तमान में ये अंतरजाल की वहुचर्चित ई-पत्रिका "हमारी वाणी" के सलाहकार संपादक तथा प्रमुख सांस्कृतिक संस्था "अन्तरंग" के राष्ट्रीय सचिव है। संप्रति लखनऊ से प्रकाशित समकालीन साहित्य-संस्कृति और कला को समर्पित त्रैमासिक पत्रिका"वटवृक्ष" के ये प्रधान संपादक भी हैं ! इनकी वेबसाईट "parikalpnaa" हिंदी ब्लॉग जगत में काफी मशहूर है ! वर्त्तमान में ये विश्व के एक बड़े व्यावसायिक समूह में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं। आजकल लखनऊ में हैं। लखनऊ जो नज़ाकत, नफ़ासत,तहज़ीव और तमद्दून का जीवंत शहर है, अच्छा लगता है इन्हें इस शहर के आगोश में शाम गुज़ारते हुए ग़ज़ल कहना, कविताएँ लिखना, नज़्म गुनगुनाना या फिर किसी उदास चेहरे को हँसाना ..! इसी वर्ष-२०११ में हिंद युग्म ने इनका पहला उपन्यास " ताकि बचा रहे लोकतंत्र " प्रकाशित किया है ! " हिंदी ब्लॉगिंग का इतिहास " और प्रेम न हाट बिकाए (उपन्यास ) इनकी आने वाली पुस्तकें है !
संपर्क : "परिकल्पना" एन-१/१०७, संगम होटल के पीछे, सेक्टर-एन-१,
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ई-मेल संपर्क : ravindra.prabhat@gmail.com
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रवीन्द्र प्रभात
मुख्य संपादक : परिकल्पना ब्लॉगोत्सव
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