ब्लॉग की दुनिया बहुत बड़ी है ... हर बार घूमते हुए यह गीत होठों पर काँपता है , 'इतना बड़ा है ये दुनिया का मेला , कोई कहीं पे ज़रूर है तेरा ' शब्दों का रिश्ता बनाने के लिए मानस के रश्मि ज्वलित जल से
मैं शब्द शब्द में तैरती भावनाओं का अभिषेक करती हूँ , तन्मयता से मोती चुनती हूँ - हर किसी का अपना एक गहरा वजूद है , अपना अकेलापन और अकेलेपन में निखरी ज़िन्दगी है . उड़ान में कभी मैं दस्तक देती हूँ , कभी सामनेवाला - फिर कहते सुनते पढ़ते जीवन के पार छुपे वे तार दिखने लगते हैं , जिन पर उंगलिया रखो तो वे कभी एथेंस का सत्यार्थी के गीत गाती है, कभी बुद्ध, कभी यशोधरा , कभी कोलंबस, कभी आम्रपाली , कभी नीर भरी दुःख की बदली .... अनंत परिभाषाएं , अनंत अनुकरणीय कदम !
पौ फटते अपनी दिनचर्या के बीच मैं एक अनंत यात्रा करती हूँ , और किसी दहलीज पर रुक जाती हूँ . फिर उस दहलीज से सोंधे एहसास , सोंधे आंसू, सोंधे सोंधे सपनों की खुशबू और हौसले ले आती हूँ ताकि जब कभी साँसें लड़खड़ाने लगें तो किसी पन्ने को आप अपना आदर्श बना लें !
कुछ ऐसा ही एक आधार हैं असीमा भट्ट , जिनकी दहलीज से मैंने उनकी पहचान को उनके शब्दों में ढूंढा - " मैं कौन हूं ? इस सवाल की तलाश में तो बड़े-बड़े भटकते फिरे हैं, फिर चाहे वो बुल्लेशाह हों-“बुल्ला कि जाना मैं कौन..” या गालिब हों- “डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता..”, सो इसी तलाश-ओ-ताज्जुस में खो गई हूं मैं- “जो मैं हूं तो क्या हूं, जो नहीं हूं तो क्या हूं मैं...” मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं क्या हूं ! बड़ी शिद्दत से यह जानने की कोशिश कर रही हूं. कौन जाने, कभी जान भी पाउं या नहीं ! वैसे कभी-कभी लगता है मैं मीर, ग़ालिब और फैज की माशूका हूं तो कभी लगता है कि निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की सुहागन हूं....हो सकता कि आपको ये लगे कि पागल हूं मैं. अपने होश में नहीं हूं. लेकिन सच कहूं ? मुझे ये पगली शब्द बहुत पसंद है…कुछ कुछ दीवानी सी. वो कहते हैं न- “तुने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना…”
और स्वतः मेरी हथेलियाँ उनके मन के दरवाज़े पर दस्तकें देने को आतुर हो गईं और बड़ी मीठी सी मुस्कान लिए द्वार खुले , ----- जिनकी मासूमियत से हवाएं अपना रूख बदलती हैं , वे अनजाने उन्हें जिद्दी बना जाती हैं और यही जिद्द खुद के साथ होड़ लेती हवाओं को अपना हमसफ़र बना लेती हैं . नहीं इंतज़ार होता उन्हें किसी से सुनने का ' यू आर द बेस्ट ' , क्योंकि विपरीत परिस्थितियाँ उनका स्वर बन जाती हैं - ' आय एम द बेस्ट !'
अब आगे असीमा जी के साथ बढ़ते हैं . समय की अफरातफरी और खुली ज़िन्दगी के संजोये पलों में असीमा जी समझ नहीं पा रही थीं कि क्या लिखा जाए , फिर मैंने उनके पास अपने प्रश्न रख दिए जिनके जवाब उनका परिचय बन गए
सबसे पहले धन्यवाद मुझ नाचीज को इतनी इज्ज़त देने के लिए .तो सुनिए ........
मेरा बचपन फ़ुल ऑफ़ लाइफ था . नाना जी ज़मींदार थे , दादा जी बहुत ही प्रतिष्ठित डॉक्टर और सिनेमा हॉल के मालिक थे . और पिता जी BHU (बनारस हिन्दू युनिवेर्सिटी ) के स्टुडेंट थे जो बाद में स्टुडेंट मूवमेंट में शामिल हो गए . मैं तीन बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी थी . जब मैं छोटी थी पिता जी ने घर छोड़ दिया . कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाईमर हो गए . माँ को बहुत दुःख हुआ था . सदमे में वो मुझे मारती थीं क्योंकि मैं पिता की कट्टर पक्षधर (पिता जी को बहुत प्यार और रेस्पेक्ट देती थी ) . इसलिए माँ को बुरा लगता था और अपना गुस्सा मुझपर उतारती थीं . और शायद इसलिए भी कि शायद मैं बचपन में बहुत चंचल थी . बहुत शैतानियाँ करती थी . जो कि मेरा एक लड़की होने के नाते माँ को गवारा नहीं था . बस खूब पिटाई होती थी और मैं फिर भी शैतानियाँ करती थीं . शायद यही वो वजह है कि मैं जिद्दी हो गई .
अपने पिता के बारे में कहूँ तो हमेशा मुझे उनकी बात अच्छी ही लगी . तब भी अच्छा लगता था , कभी बुरा नहीं लगा . कभी उपेक्षित नहीं महसूस किया . हमेशा प्राउड फील होता था . मुझे बचपन का एक वाकया याद आता है . एक बार मुझे स्कूल में कल्चरल प्रोग्राम में फर्स्ट आने के लिए पुरस्कार मिला था . पुरस्कार वहाँ के D.M. दे रहे थे , उन्होंने पुरस्कार देते हुए मुझसे पूछा -"तुम्हारे पापा का नाम क्या है ? मैंने कहा - श्री सुरेश भट्ट , वो बोले - अच्छा , तो तुम 'भट्ट जी ' की बेटी हो , वाह "
मैंने यह बात घर आकर पिता जी को बताया कि - DM ने यह कहा कि आप 'भट्ट जी ' की बेटी हो - वाह !'
पापा बोले - मुझे उस दिन ख़ुशी होगी जब लोग कहेंगे कि मुझसे - ' क्रांति भट्ट (वो मुझे क्रांति ही बुलाते थे ) के पिता हो .वाह !'
मैंने अपनी जिंदगी को नहीं ढाला, बस खुद ब खुद ढलता चला गया . "अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं , रुख हवाओं का जिधर का है , उधर के हम हैं .
मुझे महात्मा बुद्ध की तरह दिखाई देते हैं अपने पापा (बुद्ध की तरह ही वे हमें बचपन में छोड़ कर समाज सेवा के लिए चले गए थे ) , बातें भी उन्हीं की तरह करते . मुझे याद है , जब मैं बच्ची थी मेरे पापा नक्सलाईट थे , वो कहा करते थे - "हम नक्सलाईट लोग हैं , गोली पहले चलाते हैं सोचते बाद में हैं ." आज वही इन्सान कहते हैं - "हिंसा से कुछ भी हासिल नहीं होगा . हिंसा किसी समस्या का हल नहीं ."
मैं फिल्म में कहाँ आना चाहती थी . बहुत ही ओर्थोडोक्स फैमिली में थी , वहाँ ऐसी बातें सोचना भी गुनाह था . मैं पता नहीं कैसे आ गई . आज भी यह एक पहेली सा लगता है कि मैं कैसे यहाँ तक आ गई ! Its all destiny
जिंदगी मेरे लिए एक इम्तहान है . मैं रोज़ एक प्रश्न -पत्र हल करती हूँ . रोज़ इम्तहान देती हूँ और हाँ रोज़ पास होती हूँ
लेखन से भी कैसे जुड़ी , यह भी ठीक से याद नहीं . शायद पापा की किताबें पढ़ने की आदत मेरे अन्दर आई . शायद इसीलिए थोड़ा बहुत लिख लेती थी . फिर जब मैं पटना आई तो सर्वाइवल के लिए मुझे न्यूज़ पेपर में काम करना पड़ा . और ऐसे लिखना पेशा बन गया ...
जिंदगी से मुझे कोई शिकायत - नहीं . कुछ भी नहीं . I love it. My life is beautifull.
बहुत कुछ खोया है .... बहुत कुछ पाया है . अब तो बात जिद्द पे आ गई है - अब तो जिंदगी से सूद समेत वापस लेना है और उसे भी देना पड़ेगा .
आखिर में इतना ही कहूँगी - मुश्किलें पड़ीं मुझ पे इतनी कि ज़िन्दगी आसान हो गई ....