बुधवार, 6 जुलाई 2011

अजय कुमार झा ... यानि कुछ भी कभी भी



अंतरजाल की दुनिया में अजय कुमार झा ... यानि कुछ भी कभी भी ... इसका ज्वलंत उदाहरण है उनका ये परिचय , मैंने कहा - ' मेरी कलम के लिए आपकी कलम से मुख्य जानकारी चाहिए - बचपन से अब तक ' और उनका जवाब आया - 'बचपन से अब तक का ..हा हा हा ये तो बडा ही मजेदार परिचय मांग लिया आपने , लिख कर भेज सकता हूं , वो भी शायद देर रात तक क्योंकि शाम का वक्त कुछ ब्लॉगर मित्रों के नाम है , यदि इतना समय दे सकें तो मेहरबानी होगी ।' और मैंने कर दी मेहरबानी .... जो ख़ास शख्स होते हैं , उनकी मेहरबानी के लिए मेहरबानी ज़रूरी भी तो है !
इनको मैंने पढ़ा , पर पढ़ने में पहली खासियत थी 'पटना' लिखा होना . अपने क्षेत्र से कोई हो तो बड़ा अच्छा लगता है , मुझे भी लगा -
'झा जी कहिन ' में अजय जी ज्यादा लोगों के करीब रहे . और झा जी कहिन भी में यह पृष्ठ http://ajaykumarjha.com/blog/%E0%A4%A4%E0%A5%82-%E0%A4%B9%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0/ उनकी नींव की सशक्त दर्शाता है, देखकर आगत के स्वर सुनाई देते हैं . अजय जी की ख़ुशी वहाँ टिप्पणी में देखी जा सकती है . मैंने सोचा , आयुष ने उनके सिखाये को यूँ अंजाम न दिया होता तो झा जी ऐसा नहीं कर पाते , बस कहते ही रहते !

अब हम उस दिशा में कदम बढ़ाएं, जहाँ वह सब है जिसे उनको पढनेवाले जानना चाहेंगे औए खुद अजय जी बताना चाहेंगे , क्योंकि' कुछ भी कभी भी' के पीछे यही तो पृष्ठभूमि है -


सोच रहा हूं कि बचपन में मेरी क्या पहचान थी , एक बच्चा था , बस और क्या , पिता फ़ौजी और मां गृहणी , एक बडी बहन और एक छोटे भाई के बीच , यानि माता पिता की मंझली संतान । जाने अब मां और पिताजी को ये पहले ही आभास हो गया था कि शायद उन्होंने मेरी आदतों को देखकर मेरा घर का नाम रखा था "भोला "
,और मैं उन दिनों इतना ही भोला हुआ करता था कि दोस्त , पेड के नीचे ले जाकर , दूर शाख पर लटके मधुमक्खी के छत्ते में ढेला मार कर फ़ुर्र और मैं जब तक भागने की सोचता या मुझे खतरे का एहसास होता तब तक तो एक आध डंक खा चुका होता था फ़िर रोते धोते घर वापस । बचपन तो बचपन ही होता है , उस वक्त तो शायद शहरों का भी वो बचपन ही था , आज जब उन्हें जवां और मशरूफ़ होता देखता हूं तो अहसास होता है कि सडकों पर अपनी मस्ती में भागते तांगे , और पूरे रास्ते लगे हरे भरे पेड उनके बचपन की ही निशानी तो थे । हम भी उन दरख्तों के साथ ही बढते चले गए ।

आम बच्चों की तरह ,पतंग उडाने , कंचे खेलने , कॉमिक्स पढने , स्टार ट्रैक देखने , लट्टू नचाने और सायकल के टायर को डंडो से चलाने दौडाने तक के सारे खेल में खूब भागीदारी करते थे । ये तो याद नहीं कि किसी भी खेल के चैंपियन सरीखे पहचाने गए हों , लेकिन ये जरूर था कि हर खेल में इतनी महारत तो हो ही जाती थी कि दोस्तों की टीम चुनते समय अपना भी खास ख्याल रखा जाता था और इतना ही बहुत हुआ करता था उन दिनों । फ़ौजी कैंट की कॉलोनियों में बिजली जाने के बाद घंटे दो घंटे के अंधरे में छुपन छुपाई का वो दौर शायद ही उसके बाद चलन में रहा हो । पढाई लिखाई में यही हैसियत थी कि घर वाले निश्चिंत रहते थे , कभी अव्वल आना नहीं है और कभी फ़ेल होना नहीं है , सच कहें तो उस समय तो तैंतीस प्रतिशत पा लेने वाली ललक भी कभी नहीं जगी थी और मैट्रिक परीक्षा तक यही हाल रहा था ।


एक खास बाद बचपन से लेकर युवापन तक और उसके बाद से लेकर शायद अब तक ये महसूस की अपने साथ कि जाने अनजाने दोस्तों के केंद्र में जरूर आता रहा । यानि कुल मिलाकर मैं वो बिंदु था जहां आकर सारी मित्र रेखाएं मिल जाती थीं । मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण पढाई लिखाई खत्म होते होते ही कैरियर बनाने संवारने की एक स्वाभाविक सी जिम्मेदारी ओढ ही ली जाती है सो हमने भी ओढ ली । अपनी स्थितियां कुछ ज्यादा दुश्वार इसलिए हुईं क्योंकि बडी बहन , वो भी जिसे पिताजी अपना बडा बेटा समझते थे और मां की पक्की सहेली थी वो , के अचानक चले जाने के बाद पिता मानसिक संतुलन खो बैठे और मां शरीर को घुन लगा बैठीं और अंतत: उन्होंने भी साथ छोड दिया । लेकिन वे दिन जिंदगी के सबसे कठिन दिनों में से एक थे । मुझे याद है कि कैसे एक हादसे ने मुझसे मेरा बचपन छीन कर मुझे रातों रात अपने मां पिता का अभिभावक बना दिया था ।

संघर्ष के दिन वो रहे जब , इस महानगर में हम कुछ दोस्त अपनी अपनी जगह तलाश रहे थे । कई क्षेत्रों में रुचि और प्रयास करने के बावजूद सरकारी सेवा को सबसे सुरक्षित मानते हुए किस्मत ने उसीसे जोड दिया । खुशकिस्मती ये रही कि सरकारी सेवा में आने के बावजूद भी क्षेत्र रहा विधि और न्याय , जिसका एक लाभ ये रहा कि खुद के अलावा मित्रों दोस्तों के बहुत ही काम आने का मौका मिल गया जो अब भी जारी है । पढने लिखने का शौक यूं तो मुझे शायद पहली बार तब हुआ था जब मैं ग्यारहवी कक्षा में था , रही सही कसर पूरी कर दी संपादकों के नाम पत्रों और विभिन्न रेडियो स्टेशनों की हिंदी सेवा जैसे बीबीसी , वॉयस ऑफ़ अमेरिका , रेडियो डोईचेवैले , और रेडियो जापान आदि जैसी सेवाओं में एक श्रोता के रूप में लिखे सैकडों पत्रों ने । इनके सहारे मिली पहचान (एक पाठक और एक श्रोता के रूप में ) ने मुझे न सिर्फ़ प्रेरणा दी बल्कि बहुत सी बारीकियां और एक पत्रकारीय गुण भी । यहां ये बताना दिलचस्प होगा कि समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र और रेडियो श्रोता के रूप में उन दिनों एक अनिवार्य नाम सा बन चुका था मैं । और जो थोडी बहुत कमी रही वो पूरी कर दी अंग्रेजी साहित्य की प्रतिष्ठा की पढाई और रूममेट्स के हिंदी साहित्य के प्रेम ने ।


इसने एक ऐसे सफ़र की शुरूआत कर दी जिसने मुझे एक नई दुनिया ही दे दी । साहित्य की , भाषा की , शब्दों की दुनिया , और अपनी आदत के अनुरूप मैं उसमें ऐसा रम गया कि अब ये एक जुनून बन गया है । यहां शायद ये बताना ठीक होगा कि अपने कार्यालय के अलावा मैं अब भी पूरे चौबीस घंटों में कम से कम सात आठ घंटे तो लिख पढ ही लेता हूं , क्या , ये मैं खुद भी नहीं जानता , यानि तय नहीं होता है कुछ भी । कभी सत्रह अखबारों में से सारे के सारे , कभी फ़ेसबुक पर सारे मित्रों के स्टेटस तो कभी जाने कौन कौन से एग्रीगेटर्स से तलाश कर और एक पोस्ट से दूसरी पोस्टों तक भटकते हुए , जितना पढता जाता हूं , उतना ही लिखता भी जाता हूं , और अब तक ये सफ़र अनवरत जारी है ।


अजय कुमार झा
मेरा अंतर्जाल पता :-http://blog.ajaykumarjha.com/
11/248 3rd floor,
geeta colony,
delhi-110031
9871205767

19 टिप्‍पणियां:

  1. जो ख़ास शख्स होते हैं , उनकी मेहरबानी के लिए मेहरबानी ज़रूरी भी तो है ! बिल्‍कुल सही कहा आपने वर्ना 'झा' जी का यह विस्‍तृत परिचय कहां से मिलता पढ़ने को बहुत कुछ जाना उनके बारे में आपकी कलम से और सच कहूं तो बहुत ही अच्‍छा लगा ... जिन्‍हें हम पढ़ते हैं उनके बारे में विस्‍तार से जानने का अवसर दिया है आपकी कलम ने और आपकी सोच ने एक बार फिर आभार के साथ शुक्रिया ।

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  2. संघर्ष और जिम्मेदारियों की आग में तप कर ही सोना कंचन बनता है.शायद यही अजय जी की कलम की ताकत है.
    आभार इस परिचय का.

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  3. अजय जी का परिचय जान कर मन इस संघर्षशील व्यक्तित्व के सामने नतमस्तक हो गया ....यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसे व्यक्तित्व से रूबरू होने का अवसर मिला है ....आपका आभार इस श्रृंखला को जारी रखने के लिए .....!

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  4. इन्हें ही कहते हैं -सेल्फ मेड पर्सन ।
    अच्छा रहा है अब तक का मेहनत का सफ़र ।

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  5. Paricha karane ke liye dhanyabad di..

    Bahut bar se apka agman hamare angan me nahi ho raha hai..!

    Hame apka intejar hai..!

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  6. अजय जी से मुलाकात तो आदर्श नगर मे हुई थी मगर उनकी शख्सियत से परिचय उनके ब्लोग से हुआ…………आँच पर तप कर ही कुन्दन खरा होता है और ये बात उन पर पूरी तरह लागू होती है…………यही चाहते है उनका लेखन अनवरत जारी रहे।

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  7. अजय जी से पहली ही मुलाक़ात में बहुत अपनापन मिला ..सही कहा है की ये वो बिंदु हैं जहाँ सारी मित्रता की रेखाएं मिल जाती हैं ..फिर दूसरी मुलाक़ात में तो उन्होंने ही मुझे आवाज़ दे कर कहा की चलिए हिंदी भवन में यहाँ से एंट्री होगी .. छोटी सी मुलाकत बहुत अच्छी रही ... आज उनकी कलम से उनका परिचय पढ़ा .. जो जीवन के संघर्षों में नहीं डगमगाता वही स्वयं को पा सकता है ... आभार

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  8. भोला भईया के इस परिचय के लिए आपका बहुत बहुत आभार !

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  9. अजय जी का परिचय पाकर अच्छा लगा...
    aabhar rashmi di aur ajay ji ko shubhkamnayen ...

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  10. मेरे प्यारे अजय भिया... :) अगर इनके बारे में कुछ लिखूंगा तो एक पूरा लेख ही बन जाएगा... अभी तो बस इसी लेख को दो बार पढ़ चुका हूँ.... अभी ३ दिन पहले ही तो इनसे मिलना हुआ....लेकिन दिल में तो कब से ही घर बना चुके हैं... भगवान् इन्हें दुनिया की बेहतरीन सफलताएं दिलाये....

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  11. अजय जी का परिचय मुझ जैसे नए ब्लोगर के लिए सोभाग की बात है .. कठिनाइयो से भरे जीवन सफल होते जरुर है ..चाहे देर ही सही ..दिल्ली मै एक ही ठिकाना है बड़ी दीदी का गीता कालोनी मैं ,आशा है कभी मुलाकात होगी ...उनकी सफलता के लिए कामनाए ....

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  12. अजय जी के साथ कुछ देर बातचीत में ही इतना अपनापन मिला ...वो शायद ही मै भूल सकूँ....

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  13. अजय जी का परिचय पाकर अच्छा लगा... आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  14. ब्लोगिंग में नया ही हूँ फिर भी अजय जी को पहले भी कुछ एक बार पढ़ा है , आज उनके बारे में जानने को भी मिला |

    सादर

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  15. बहुत बहुत शुक्रिया और आभार आपका रश्मि दी इस स्नेह और इतना मान सम्मान देने के लिए ।

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